Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 12 1-6-1 - 4 (189) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन हो, तथा चलते समय भी कंपन होता हो, वह संधिओं के दृढ बंधन के अभाव में कलापखंज (पांगला) है... तथा पीढसप्पि याने प्राणी गर्भदोष से पीढसर्पित्व रूप से उत्पन्न होता है अथवा जन्म होने के बाद कोइक कर्म के दोष से भी यह रोग हो शकता है... वह मनुष्य हाथ में लकडी लेकर चलता है... तथा सिलिवय याने श्लीपद नाम का यह रोग शरीर में कठोरता (अक्कड जाना) स्वरूप है... जैसे कि- प्रकुपित हुए वात पित्त और श्लेष्म शरीर में नीचे की और जातें हैं तब पैर में रहकर सूजन उत्पन्न करतें हैं; इसे श्लीपद कहते हैं... कहा भी है कि- जो भूमी सभी ऋतुओं में शीतल हि रहती है, तथा पुराने जलवाली भूमी हो... ऐसी भूमी के लोगों को विशेष करके यह श्लीपद नाम का रोग होता है... तथा यह रोग जिस प्रकार पाउं में होता है; वैसे हि हाथों में होता है... एवं कान, ओष्ठ (होठ) और नासिका में भी होता है... ऐसा . तज्ज्ञ लोग कहते हैं... तथा “महुमेहणी" याने मधुमेह अर्थात् बस्तिरोग जिसको हुआ हो वह मधुमेही है... उसके शरीर में से मधु जैसा प्रवाही स्राव बहता रहता है... इस प्रमेह रोग के बीस (20) भेद हैं, और यह रोग असाध्य है... यह सभी प्रकार के प्रमेह रोग प्रायः करके सभी (तीनों) दोषों से उत्पन्न होता है, तो भी वात आदि की उत्कटता के भेद से बीस (20) भेद होतें हैं... उनमें कफ से दश, पित्त से छह (6) तथा वात से चार (4) यह सभी असाध्य अवस्था को पाने पर "मधुप्रमेह" के नाम से पहचाना जाता है... कहा भी है कि- सभी प्रकार के प्रमेह नाम के रोग कालान्तर में जब अप्रतिकार योग्य बनतें हैं; तब वे मधुमेहत्व के स्वरूप को पाते हैं और असाध्य होते हैं... I सूत्र // 4 // // 189 // 1-6-1-4 सोलस एए रोगा अक्खाया अणुपुव्वसो। अह णं फुसंति आयंका फासा य असमंजसा // 189 // // संस्कृत-छाया : षोडश एते रोगा: आख्याता अनुपूर्वशः। अथ स्पृशन्ति आतङ्काः स्पर्शाश्श असमञ्जसाः // 189 // m सूत्रार्थ : यहां सोलह रोग अनुक्रम से कहें, अब जो असमंजस रोग-आतंक एवं कठोर स्पर्श के दुःख हैं, उन्हें कहतें हैं // 189 //