Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 60 // 1-6-4-1(201) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन का अपाय क्यों नहिं कहा ? जैसे कि- निष्कारण आधाकर्मादि सेवन करनेवाले साधुओं को जिनाज्ञा की आशातना से दीर्घ संसार होता है... इत्यादि... जब गुरुजी कहते हैं कि- हे श्रमण ! यदि निरपेक्ष होकर कुशीलाचरण करे; तब उन्हें भी दीर्घ संसार स्वरूप कर्मविपाक कहा गया है... इत्यादि गुरुजी की बात सुनकर भी गर्व से अंध बने हुए वे गर्विष्ठ साधु शास्ता याने हितशिक्षा देनेवाले गुरुजी का हि कठोर वचनों से अवगणना-तिरस्कार करतें हैं... तथा वे गर्विष्ठ साधु शास्त्र के वचन इसलिये पढतें हैं कि- हम लोगों को मान्य बनकर सुख से जीएंगे... अथवा वे ऐसा सोचते हैं कि- आगम-शास्त्रों के अध्ययन के द्वारा हम लोगों को मान्य बनेंगें... ऐसा सोचकर कितनेक मनुष्य साधु बनते हैं... अथवा हम शुद्ध साधु समनोज्ञ उग्रविहारी होकर जीएंगे... ऐसा सोचकर संयम जीवन जीने के लिये संसार का त्याग करतें हैं; किंतु मोहनीय कर्मो के उदय से वे तीन गारव के कारण से ज्ञान-दर्शन-चारित्र स्वरूप मोक्षमार्ग में सम्यग् सिद्ध नहि होतें हैं... अर्थात् तीर्थंकर के उपदेश अनुसार संयमानुष्ठान नहि करनेवाले वे विविध प्रकार से काम-विकारों से जलते हुए एवं तीन गारव में आसक्त बने हुए तथा पांच इंद्रियों के विषयों को हि सोचनेवाले वे तीर्थंकर प्रभुने कहे हुए इंद्रियों के प्रणिधान स्वरूप समाधि को प्राप्त नहि कर शकतें... तथा १विदग्ध ऐसे वे गर्विष्ठ साधु परमात्माने कहे हुए पांच महाव्रतों का अच्छी तरह से पालन नहि करतें... इस स्थिति में जब आचार्यादि उन्हें शास्त्रों के माध्यम से हितशिक्षा देते हैं; तब वे कोपायमान होकर कठोर वचन बोलतें हैं... जैसे कि- “हे आचार्य ! आप इन शास्त्रों को जरा भी नहि जानते हो, जैसे मैं सूत्रार्थ गणित या निमित्तों को जानता हुं... वैसा अन्य कौन साधु जानता है ?" इत्यादि... प्रकार से वे गर्व से अंध बने हुए साधु आचार्यादि की अवगणना करतें हैं... अथवा अनुशासन करनेवाले तीर्थंकरादि की “गोशाला" आदि की तरह अवगणना करतें हैं... जैसे कि- कभी कोइ अनुष्ठान में स्खलना (गलती) हुइ हो, तब गुरुजी अनुग्रह (करुणा) बुद्धि से हितशिक्षा दे तब, वे अभिमानी साधु कहते हैं कि- क्या तीर्थंकर प्रभुजी ने इस से भी अधिक हमारा गला काटने का कुछ कहा है क्या ? इत्यादि प्रकार से आलाप याने वार्तालाप से जुठीविद्या के मद से उन्मत्त होकर शास्त्रकारों के भी दूषण बोलतें हैं... अल्प ज्ञान से उन्मत्त बने हुए वे साधु केवल (मात्र) अनुशासन करनेवाले आचार्यादि गुरुजी का हि तिरस्कार नहि करतें; किंतु अन्य साधुओं की भी निंदा-अवगणना करते हैं... यह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : आगम में विनय को धर्म का मूल कहा है। निरभिमानता विनय का लक्षण हैं।