Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 128 // 1-8-3 - 1 (२२०)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन %3 श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 8 उद्देशक - 3 卐 अंगचेष्टास्वरूपनिर्देशः // दुसरा उद्देशक कहा, अब तीसरे उद्देशक का प्रारंभ करते हैं... यहां दुसरे एवं तीसरे उद्देशक में परस्पर इस प्रकार संबंध है कि- दुसरे उद्देशक में अकल्पनीय आहारादि का निषेध कहा...और निषेध करने पर गुस्से में आये हुए उन दाता गृहस्थों को यथावस्थित आहारादि पिंडदान की विधि कहना चाहिये... अब यहां तीसरे उद्देशक में- आहारादि के लिये गृहस्थों के घर में गये हुए गीतार्थ मुनी-साधु भगवंत के शीत आदि से अंग के कंपन को देखकर अन्य विचारवाले गृहस्थ को यथावस्थित वस्तु तत्त्व कहकर जुठी शंका (बे समझ) दूर करें... इस संबंध से आये हुए तीसरे उद्देशक का यह प्रथम सूत्र है, और वह सूत्र सूत्रानुगम में संहितादि प्रकार से शुद्ध पढ़ें... I सूत्र // 1 // // 220 // 1-8-3-1 मज्झिमेणं वयसा वि एगे संबुज्झमाणा समुट्ठिया, सुच्चा मेहावी वयणं पंडियाणं निसामिया समियाए धम्मे आरिएहिं पवेइए ते अणवकंखमाणा अणइवाएमाणा अपरिग्गहेमाणा नो परिग्गहावंती सव्यावंति च णं लोगंसि निहाय दंडं पाणेहिं पावं कम्म अकुव्वमाणे एस महं अगंथे वियाहिए, ओए जुइमस्स खेयण्णे उववायं चवणं च णच्चा // 220 // II संस्कृत-छाया : मध्यमेन वयसा अपि एके सम्बुध्यमानाः समुत्थिताः, श्रुत्वा मेधावी वचनं पण्डितानां निशम्य समतया धर्म: आर्येः प्रवेदितः, ते अनवकाङ्क्षन्तः अनतिपातयन्तः अपरिगृह्णन्त: न परिग्रहवन्तश्च सर्वस्मिन् च अपि लोके निधाय दण्डं प्राणिषु पापं कर्म अकुर्वाणः, एषः महान् अग्रन्थः व्याख्यातः, ओजः द्युतिमान् खेदज्ञः उपपातं च्यवनं च ज्ञात्वा // 220 // III सूत्रार्थ : कई एक व्यक्ति मध्यमवय में भी बोध को प्राप्त होकर धर्म में उद्यत होते हैं। बुद्धिमान तीर्थंकरादि के वचनों को सुनकर और समता भाव से हृदय में विचार कर, तीर्थंकरों के प्रतिपादन किए हुए धर्म में दीक्षित होकर वे काम-भोगों के त्यागी, प्राणियों की हिंसा से निवृत्त