Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 162 1 -8-6-3 (२33)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन बायें से दायें की और संचारने में हि रसकी मझा आती है और यहां जो रस की मझा लेना, वह हि अंगार दोष कहा है और रस बेहुदा लगने पर द्वेष होने पर धूम दोष लगता है... अत: कीसी भी आहारादि को स्वाद की दृष्टि से न वापरें... अथवा आहारादि में आदर-राग करके मूर्च्छित या आसक्त न होवें... आहारादि को मुख में स्वाद के लिये दाये से बायें और बायें से दायें की और न घूमावें, किंतु अशन-पान, खादिम एवं स्वादिमादि चारों प्रकार के आहार को वापरने के वख्त राग एवं द्वेष का त्याग करें... तथा कभी कोई कारण से आहारादि को मुख में दायें से बायें एवं बायें से दायें की और संचारने की आवश्यकता हो तब रसास्वाद न लें अर्थात् भोजन में राग या द्वेष न करें... सामान्य से साधु को आहारादि ग्रहण करने में प्रतिमा-अभिग्रह होते हैं अतः अंतप्रांत एवं नीरस आहारादि की प्राप्ति में राग एवं द्वेष की संभावना बहोत हि कम है... इस प्रकार उस साधु को तपः अच्छी तरह से परिणत हुआ होता है... अंत-प्रांत एवं नीरस आहारादि का भोजन करने से मांस एवं लोही अल्प हो जाते हैं, शरीर में हड्डी ही हड्डी दीखाइ देती है और उस साधु को जब शरीर क्रियानुष्ठान में अनुकूल न लगे तब शरीर के त्याग की बुद्धि करता है... V सूत्रसार : यह हम देख चुके हैं कि- आसक्ति एवं तृष्णा कर्म बन्ध का कारण है। इस लिए साधक को अपने उपकरणों पर आसक्ति नहीं रखनी चाहिए। इतना ही नहीं, अपितु खाद्य पदार्थों को भी आसक्त भाव से नहीं खाना चाहिए। साधु का आहार स्वाद के लिए नहीं, परन्तु संयम साधना के लिए है या यों भी कह सकते हैं कि- संयम साधना और शरीर को व्यवस्थित रखने के लिए उसे आहार करना पडता है। इसलिए प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया हैं कि- साधु को जैसा भी प्रासुक एवं एषणीय आहार उपलब्ध हुआ हो वह उसे बिना स्वाद लिए ही ग्रहण करे। इसमें यह भी बताया गया है कि- रोटी आदि के ग्रास-कवल को मुंह में एक ओर से दूसरी और न ले जाए अर्थात् इतनी जल्दी निगल जाए कि- उस पदार्थ के स्वाद की अनुभूति मुंह के जिस भाग में कवल रखा है उसके अतिरिक्त दूसरे भाग को भी न हो। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त हनु' शब्द का अर्थ ठोडी नहीं किंतु गाल (मुंह का भीतरी भाग) किया गया है और यही अर्थ यहां संगत बैठता है। भोजन का ग्रास मुंह में रखा जाता है और वह मुंह में एक गाल से दूसरे गाल की ओर फिरता जाता है।