________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-8-6 - 5 (235) 165 स्थिति में समभाव पूर्वक अपनी आत्म साधना में स्थित रहना चाहिए। मान-सम्मान के समय न हर्ष करना चाहिए और अपमान-तिरस्कार एवं प्रहार के समय शोक या किसी पर द्वेष भाव नहि लाना चाहिए। इस तरह शारीरिक शक्ति का ह्रास हो जाने पर मुनि अनशन व्रत को स्वीकार करके समभाव पूर्वक समाधि मरण को प्राप्त करे। यह मरण कहां पर प्राप्त करना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि 'आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 5 // // 235 // 1-8-6-5 अणुपविसित्ता गामं वा नगरं वा खेडं वा कब्बडं वा मडंबं वा पट्टणं वा दोणमुहं वा आगरं वा आसमं वा संनिवेसं वा नेगमं वा रायहाणिं वा तणाई जाइज्जा, तणाई जाइत्ता से तमायाए एगंतमवक्कमिज्जा, एगंतमवक्कमित्ता अप्पंडे अप्पपाणे अप्पबीए अप्पहरिए अप्पोसे अप्पोदए अप्पुत्तिंगपणगदगमट्टियमक्कडा-संताणए पडिलेहिय, पमज्जिय तणाई संथरिज्जा, तणाई संथरित्ता इत्थवि समए इत्तरियं कुज्जा, तं सच्चं सच्चवाई ओए तिण्णे छिण्णाकहकहे आईयढे आणाईए चिच्चा णं भेउरं कायं संविहूय विरूवरूवे परीसहोवसग्गे अस्सिं विस्संभणयाए भेरवमणुचिण्णे तत्थावि तस्स कालपरियाए जाव अणुगामियं तिबेमि // 235 // // संस्कृत-छाया : अनुपविश्य ग्रामं वा नगरं वा खेडं वा कर्बट वा मडम्बं वा पत्तनं वा द्रोणमुखं वा आकरं वा आश्रमं वा सन्निवेशं वा नैगमं वा राजधानी वा तृणानि याचेत, तृणानि याचित्वा सः तानि आदाय एकान्तं अपक्रामेत्, एकान्तं अपक्रम्य अल्पाऽण्डे अल्पबीजे अल्पहरिते अल्पावश्याये अल्पोदके अल्पोत्तिङ्ग-पनक-दक-मृत्तिका-मर्कटकसन्तानके (भूभागे) प्रत्युपेक्ष्य प्रमृज्य, तृणानि संस्तरेत्, तृणानि संस्तीर्य अत्र अपि समये इत्वरं कुर्यात् तत् सत्यं सत्यवादी ओजः तीर्णः छिन्नकथंकथ: आतीतार्थ: अनातीतः त्यक्त्वा भिदुरं कायं संविधूय विरूपरूपान् परीषहोपसर्गान् अस्मिन् विसंभणतया भैरवं अनुचीर्णः तत्राऽपि तस्य कालपर्याय: यावत् आनुगामिकं इति ब्रवीमि // 235 // III सूत्रार्थ : वह भिक्षु ग्राम, नगर, खेट, कर्बट, मडंब, पत्तन, द्रोणमुख आकर-खान, आश्रम, सन्निवेश, नैगम और राजधानी इन स्थानों में प्रवेश कर तथा अचित प्रासुक-जीवादि से रहित एवं निर्दोष घास की याचना करके उस घास को एकान्त स्थान में ले जाएं। जहां पर अण्डे, प्राणी-जीव-जन्तु, बीज, हरी, ओस, जल, चींटियां, निगोद मिट्टी और मकडी के जाले आदी