Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 146 // 1-8 - 4 - 5 (228) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन // संस्कृत-छाया : यस्य भिक्षोः एवं भवति- स्पृष्टः खलु अहं अस्मि, न अलं अहं अस्मि शीतस्पर्श अध्यासयितुम्, स: वसुमान् सर्वसमन्वागत प्रज्ञानेन आत्मना कश्चित् अकरणतया आवृत्तः तपस्विनः खलु तदेव श्रेयः, यदा एकः विहायोगमनं, तत्राऽपि तस्य कालपर्यायः, सोऽपि तत्र व्यन्तिकारकः, इत्येतत् विमोहायतनम्, हितं सुखं क्षमं नि:शेष आनुगामिकं इति ब्रवीमि // 228 // III सूत्रार्थ : जिस भिक्षु को रोगादि के स्पर्श होने से अथवा शीतादि परीषहों से इस प्रकार के अध्यवसाय होते हैं कि- में शीतादि के स्पर्श को सहन नहीं कर सकता हूं। फिर भी वह संयम एवं ज्ञान संपन्न साधु किसी भी ओषधि का सेवन न करके भी संयम में स्थित है। उस तपस्वी मुनि को ब्रह्मचर्यादि की रक्षा के लिये फांसी आदि से मृत्यु को प्राप्त करना भी श्रेयस्कर है। उस की वह मृत्यु कर्म विनाशक मानी गई है। वह मृत्यु उसके मोह को दूर करने वाली है। अतः उसके लिए वह मृत्यु हितकारी है, सुखकारी है और शक्ति एवं मोक्ष प्रदायिनी है। क्योंकि- वह संयम की रक्षा के लिए हि ऐसा कार्य करता है, अत: उससे निर्जरा एवं पुण्य बंध भी होता है। और वह पुण्य भवान्तर में साथ आता है। IV टीका-अनुवाद : ___ जिस साधु को मंद संघयण के कारण से ऐसा अध्यवसाय (विचार) हो कि- मैं रोग आतंकों से घेरा हुआ हु, अथवा शीत-स्पर्श से पीडित हुं, अथवा स्त्री आदि के अनुकूल उपसर्गों से घेरा हुआ हु, अत: इस परिस्थिति में मुझे शरीर का त्याग करना कल्याण कर है, क्योंकिमैं शीत की पीडा को सहन करने में समर्थ नहि हुं... अथवा भावशीत याने स्त्रीयों के अनुकूल उपसर्गों को सहन करने में मैं समर्थ नहि हुं अतः मुझे भक्तपरिज्ञा, या इंगितमरण या पादपोपगमन से शरीर का त्याग करना युक्तियुक्त है, किंतु मुझे अभी इन भक्तपरिज्ञा आदि का भी अवसर नहि है, क्योंकि- मेरा यह उपसर्ग कालक्षेप को भी सहन नहि कर सकेगा... अथवा रोग की पीडा को चिरकाल पर्यंत सहन करने में मैं समर्थ नहि हुं... अतः इस कारण से अभी मुझे अपवाद स्वरूप वेहानस या गार्द्धपृष्ठ मरण हि उचित है... क्योंकि- उपसर्ग की अवस्था में उन वेहानस आदि आपवादिक मरण का स्वीकार भी अनुचित नहि होगा... इत्यादि यह बात अब सूत्र के पदों से कहतें हैं... वसु याने संयमवाला वह साधु सर्वसमन्वागत ज्ञान के द्वारा जाने कि- उपसर्ग हो रहा है, तब वह साधु विशेष प्रकार से संवर भाववाला बने... अथवा तो शीतस्पर्शवाले वायु