Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-8-4 - 5 (228) 145 V * सूत्रसार : अचेलकत्व और सचेलकत्व दोनों अवस्थाओं में साधक अपने साध्य की ओर आगे हि आगे बढ़ता है। वस्त्र रखना या नहीं रखना ये दोनों साध्य सिद्धि के साधन हैं। साध्य की प्राप्ति के लिए नग्नत्व का महत्त्व है, परन्तु मात्र द्रव्य नग्नत्व का हि नहीं। यह बिल्कुल सत्य है कि- जब तक आत्मा कर्म से आवृत्त रहेगी, तब तक मुक्ति नहीं हो सकती, भले ही वह वस्त्र से अनावृत्त हो। मोक्ष प्राप्ति के लिए राग-द्वेष एवं कर्मों से सर्वथा अनावृत होना आवश्यक हि नहीं, अनिवार्य ही है। आत्मा को अनावृत्त बनाने के लिए राग-द्वेष, कषाय एवं कर्म बन्धन के अन्य कारणों का त्याग करना अथवा आस्रव का निरोध करना जरूरी है, न कि- मात्र वस्त्र का त्याग करना। यदि कोई साधक लज्जा आदि को जीतने में समर्थ है, तो वह वस्त्र का भी त्याग कर सकता है और यदि वह साधु लज्जा आदि के परीषहों पर सर्वथा विजय पाने की क्षमता अभी नहीं रखता है, तो स्वल्प, मर्यादित वस्त्र रखकर भी राग-द्वेष पर विजय पाने की या आत्मा को कर्मों से सर्वथा अनावृत्त करने की साधना कर सकता है। इस तरह भगवान द्वारा प्ररूपित सचेल एवं अचेल (स्थविरकल्प-जिनकल्प) दोनों मार्गों का सम्यक्तया अवलोकनं करके साधक को अपनी योग्यतानुसार मार्ग का अनुकरण करके राग-द्वेष पर विजय पाने का प्रयत्न करना चाहिए। किसी एक मार्ग को ही एकान्त रूप से श्रेष्ठ या निकृष्ट नहीं मानना चाहिए। क्योंकि- दोनों मार्ग आत्मा को कर्मों से अनावृत्त करने के साधन हैं, अतः दोनों ही श्रेष्ठ है। इस तरह प्रबुद्ध पुरुष भगवान के वचनों पर विश्वास करके समभावपूर्वक परीषहों को सहते हुए कर्मों से अनावृत्त होने का प्रयत्न करते हैं। परन्तु, जो साधु भगवान के मार्ग को सम्यक्तया नहीं जानते हैं, और जब उनके सामने परीषह आते हैं, तब उनकी क्या स्थिति होती है ? इसका उल्लेख सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से करतें हैं... I सूत्र // 5 // // 228 // 1-8-4-5 - जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ - पुट्ठो खलु अहमंसि नालमहमंसि सीयफासं अहियासित्तए, से वसुमं सव्वसमण्णागयपण्णाणेणं अप्पाणेणं केइ अकरणयाए आउट्टे तवस्सिणो हु तं सेयं जमेगे विहमाइए तत्थावि तस्स कालपरियाए, से वि तत्थ विअंतिकारए, इच्चेयं विमोहायतणं हियं सुहं खमं निस्सेसं आणुगामियं त्तिबेमि // 228 //