________________ 156 1-8-5 - 2 (230) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन इस प्रकार विभिन्न प्रकार की प्रतिज्ञा लेकर कहिं कोइ साधु ग्लान होने पर जीवित का त्याग करता है किंतु प्रतिज्ञा का लोप-विनाश नहि करता... इस अर्थका उपसंहार करते हुए कहते हैं कि- पूर्वोक्त विधि से तत्त्वज्ञ एवं शरीरादि के प्रति अनासक्त साध जिनेश्वरो ने धर्म का जो स्वरूप कहा है उस प्रकार से धर्म को जानता है एवं आसेवन परिज्ञा से धर्म का आसेवन करता है तथा चौथे उद्देशक में कहे गये लाघविक आदि गुणवाला वह साधु कषायो के क्षयोपशम से शांत तथा अनादि संसार के हेतुभूत आश्रवों के त्याग से विरत तथा सुंदर धर्मानुष्ठान से शुभ लेश्यावाला शुभ अंत:करणवाला ऐसा वह साधु पूर्वे स्वीकृत प्रतिज्ञा के पालन में समर्थ तथा ग्लान अवस्था में भी तपश्चर्या का आदर करनेवाला एवं रोगों की पीडा में भी प्रतिज्ञा का खंडन नहि करनेवाला वह साधु शरीर के त्याग के लिये भक्तप्रत्याख्यान-अनशन स्वीकारता है... यद्यपि कालपर्याय से मरण समय निकट . न आने पर भी भक्तपरिज्ञा का स्वीकार हि कालपर्याय माना गया है... जैसे कि- अपने शिष्य को गीतार्थ बना देने पर एवं संलेखना विधि से शरीर की संलेखना करने पर जो कालपर्याय याने मृत्यु का अवसर प्राप्त होता है इसी प्रकार ग्लानावस्था में भी वह भक्तपरिज्ञा कालपर्याय कहा गया है... क्योंकि- दोनों स्थिति में कर्मनिर्जरा समान हि है... वह साधु उस ग्लान अवस्था में भक्तपरिज्ञा-अनशन स्वीकार करके सकल कर्मों का क्षय करता है इत्यादि... शेष सूत्रपदों का अर्थ सुगम है... .. V सूत्रसार : साधना का जीवन स्वावलम्बन का जीवन है। साधक कभी अपने. समानधर्मी साधक का सहयोग लेता भी है, किंतु अदीनभाव से एवं उसकी सेवा स्वेच्छा पूर्वक करता है। वह न तो किसी पर दबाव डालता है और न वह दीन स्वर से गिडगिडाता है। इसी बात को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार ने बताया है कि- परिहारविशद्ध चारित्र निष्ठ एवं अभिग्रह संपन्न मनियों को ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि- में अस्वस्थ अवस्था में भी किसी भी समानधर्मी मुनि को वैयावृत्य-सेवा के लिए नहीं कहूंगा। यदि वह अपने कर्मों की निर्जरा के लिए सेवा करेगा तो उसे मैं स्वीकार करूंगा और इसी तरह मैं भी यथासमय उनकी सेवा करूंगा। इस तरह वह अभिग्रह निष्ठ मुनि अपनी प्रतिज्ञा का पालन करे। कठिन से कठिन परिस्थिति में भी प्रतिज्ञा का समुचित निर्वाह करे... सेवा करने के संबन्ध में चार भंग-विकल्प बताए गए हैं। कुछ मुनि ऐसी प्रतिज्ञा करते . हैं कि- मैं अपने समान धर्मी अन्य मुनियों के लिए आहारादि लाऊंगा और उनका लाया हुआ आहार ग्रहण भी करूंगा। कुछ मुनि ऐसा नियम करते हैं कि- मैं अन्य मुनियों को आहार ला दूंगा, परन्तु उनका लाया हुआ स्वीकार नहीं करूंगा। कुछ मुनि ऐसा संकल्प करते हैं