Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 154 // 1-8 - 5 - 2 (230) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन स्वादयिष्यामि 3, आहृत्य प्रतिज्ञां न अन्वीक्षिष्ये आहृतं च न स्वादयिष्यामि 4, एवं स: यथाकीर्त्तितं एव धर्मं समभिजानन् शान्त: विरत: सुसमाहितलेश्यः, तत्र अपि तस्य कालपर्यायः, सः तत्र व्यन्तिकारकः, इत्येतत् विमोहायतनं हितं सुखं क्षमं निःश्रेयसं निःशेषं आनुगामिकं इति ब्रवीमि // 230 // III सूत्रार्थ : जिस साधु का यह आचार है कि- यदि मैं रोगादि से पीडित हो जाऊं तो अन्य साधु को मैं यह नहीं कहूंगा कि- तुम मेरी वेयावृत्य करो। परन्तु यदि रोगादि से रहित, समान धर्मवाला साधु अपने कर्मों की निर्जरा के लिए मेरी वैयावृत्य करेगा, तो मैं उसे स्वीकार करूंगा। जब मैं निरोग-रोगरहित अवस्था में होऊंगा तब मैं भी कर्म निजर्रा के लिए समानधर्म वाले अन्य रोगी साधु की वैयावृत्य करूंगा। इस प्रकार मुनि अपने आचार का पालन करता हुआ अवसर आने पर भक्तपरिज्ञा नाम की मृत्यु के द्वारा अपने प्राणों का त्याग करदे, परन्तु अपने आचार को खण्डित न करे। कोई साधु यह प्रतिज्ञा करता है कि- मैं साधुओं के लिए आहारादि लाऊंगा और उनका लाया हुआ आहारादि ग्रहण भी करूंगा। कोई यह प्रतिज्ञा करता है कि- मैं अन्य साधु को आहारादि लाकर दूंगा परन्तु अन्य का लाया हुआ ग्रहण नहीं करूंगा। कोई साधु यह प्रतिज्ञा करता है कि- मैं अन्य साधुओं को आहार लाकर नहीं दूंगा, किन्तु अन्य का साया हुआ ग्रहण करुंगा। कोई साधु यह प्रतिज्ञा करता है कि- मैं न तो अन्य साधु को आहारादि लाकर दंगा और न उनका लाया हआ आहार वापरुंगा. खाऊंगा. इस प्रकार भगवान द्वारा प्ररूपित धर्म को सम्यक्तया जानता हुआ उसका यथार्थरूप से परिपालन करे। क्योंकि- भगवान के कहे हुए धर्म का यथाविधि पालन करने वाले शान्त, विरत एवं अच्छी लेश्या से युक्त साधु हि भक्तपरिज्ञा अनशन के लिये योग्य कहे गये हैं... यह भक्तपरिज्ञा मोह नष्ट करने का उत्तम साधन है, यह समाधिमरण हितकारी, सुखकारी, क्षेमकारी और कल्याणकारी होने से भवान्तर में जिनशासन की प्राप्ति सुलभ होती है। इस प्रकार मैं तुम्हें कहता हूं... IF टीका-अनुवाद : परिहारविशुद्धिकल्पवाले या यथालंदिक साधु का प्रकल्प याने आचार मर्यादा इस प्रकार है... जैसे कि- अन्य साधुओं ने प्रतिज्ञा की है कि- हम इस ग्लान साधु की वैयावच्च करेंगे... इस स्थिति में वह ग्लान साधु उनकी वैयावच्च-सेवा का स्वीकार करे... क्योंकि- वह ग्लान साधु सोचे कि- मैं ग्लान हुं अतः वातादि दोषो के कारण से उग्र तपश्चर्या करने में मैं असमर्थ