Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 8 - 5 - 2 (230) 153 - गया हे कि- दो वस्त्र एवं एक पात्र रखने वाला मुनि शीत आदि का परीषह उत्पन्न होने पर भी तीसरे वस्त्र की यचना न करे। वस्त्र संबंधी पूरा वर्णन पूर्व सूत्र की तरह किया गया है। यदि कभी वह अभिग्रह निष्ठ मुनि अस्वस्थ हो जाए और घरों में आहार आदि के लिए जाने की शक्ति न रहे तब वह भिक्षु ऐसा कहे कि- मैं इस समय एक घर से दूसरे घर में भिक्षा के लिए नहीं जा सकता। उस समय उसके वचनों को सुनकर कोई सद्गृहस्थ अपने घर से साधु के लिए भीजन बनाकर साधु के स्थान में लाकर उसे दे, तब वह साधु उसे स्पष्ट शब्दों में कहे कि- मुझे ऐसा आहार ग्रहण करना नहीं कल्पता है। साधु के लिए आरम्भ करके बनाया गया आहार तथा अभ्याहत याने साधु के लिए उसके स्थान पर लाया हुआ आहार संयमी साधु को लेना नहीं कल्पता। क्योंकि- इसमें अनेक जीवों की हिंसा होती है इसलिए साधु अस्वस्थ अवस्था में भी ऐसा सदोष आहार स्वीकार न करे परन्तु समभाव पूर्वक रोग एवं भूख के परीषह को सहन करे। . इसके अतिरिक्त अभिग्रह निष्ठ मुनि के अन्य कर्तव्यों का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 2 // // 230 // 1-8-5-2 जस्स णं भिक्खुस्स अयं पगप्पे-अहं च खलु पडिण्णत्तो अपडिण्णत्तेहिं गिलाणो अगिलाणेहिं अभिकंख साहम्मिएहिं कीरमाणं वेयावडियं साइज्जिस्सामि, अहं वावि खलु अप्पडिण्णत्तो पडिण्णत्तस्स अगिलाणो गिलाणस्स अभिकंख साहम्मियस्स कुज्जा वेयावडियं करणाए आह? परिणं अणुक्खिस्सामि, आहडं च साइज्जिस्सामि 1, आहट्ट परिणं आणक्खिस्सामि, आहडं च नो साइज्जिस्सामि 2, आह? परिण्णं नो आणक्खिस्सामि, आहडं च साइज्जिस्सामि 3, आह? परिण्णं नो आणक्खिस्सामि, आहडं च नो साइज्जिस्सामि 4, एवं से अहाकिट्टयमेव धम्म समभिजाणमाणे संते विरए सुसमाहियलेसे तत्थावि तस्स कालपरियाए से तत्थ विअंतकारए, इच्चेयं विमोहायणं हियं सुहं खमं णिस्सेसं आणुगामियं त्ति बेमि // 230 // // संस्कृत-छाया : यस्य भिक्षोः अयं प्रकल्पः - अहं च खलु प्रतिज्ञातः अप्रतिज्ञप्तैः, ग्लान: अग्लानैः अभिकाक्ष्य साधर्मिकैः क्रियमाणं वैयावृत्त्यं स्वादयिष्यामि, अहं चाऽपि खलु अप्रतिज्ञप्तः प्रतिज्ञप्तस्य अग्लान: ग्लानस्य अभिकाक्ष्य साधर्मिकस्य कुर्याम् वैयावृत्त्यं करणाय आहृत्य प्रतिज्ञां अन्वेषयिष्यामि आहृतं च स्वादयिष्यामि 1, आहृत्य प्रतिज्ञा अन्वीक्षिष्ये आहतं च न स्वादयिष्यामि 2, आहृत्य प्रतिज्ञां न अन्वीक्षिष्ये आहृतं च