________________ 148 1 -8-4 - 5 (२२८)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन के अपवाद स्वरूप वेहानसादि मरण से भी अनंत जीव सिद्ध हुए हैं और अनंत जीव सिद्ध बनेंगे... अब इस सूत्र का उपसंहार करते हुए कहते हैं कि- यह वेहानसादि मरण राग-द्वेष एवं मोह के अभाव में हितकर है... और अपाय याने उपद्रव का परिहार होने से जन्मांतर में भी सुख का हेतु-कारण होने से सुखकर है... तथा प्राप्तकाल होने से यह वेहानसादि मरण युक्ति युक्त हि है... लथा सकल कर्मो के क्षय का कारण होने से भी यह वेहानसादि मरण निःश्रेयस भी है... तथा आनुगामिक याने इस प्रकार के वेहानसादि मरण में शुभ भाव होने से पुन्यबंध याने पुन्यानुबंधि पुन्य की प्राप्ति भी होती है... इत्यादि... v सूत्रसार : साधना के मार्ग में अनेक परीषह उत्पन्न होते हैं, उन पर विजय पाने का प्रयत्न करना साधु का परम कर्त्तव्य है। परन्तु अनुकूल या प्रतिकूल परीषहों से घबरा कर संयम का त्याग करना उसके लिए श्रेयस्कर नहीं है। अपने व्रतों से विचलित होने वाला साधक अपने जीवन का विनाश करता है और भव भ्रमण को बढाता है। अतः ऐसी स्थिति आने पर विषादि खाकर या अनशन करके मर जाना उसके लिए अच्छा है, परन्तु संयम पथ का त्याग करना अच्छा नहीं है। जिस समय राजमती को गुफा के एकान्त स्थान में देखकर रहनेमि विचलित हो उठता है और उससे विषय-भोग भोगने की प्रार्थना करता है, उस समय राजमती उसे सद्बोध देते हए यही बात कहती है कि- हे मुनि ! तुझे धिक्कार है कि- तू वमन किए-त्यागे हए भोगों की पुन:इच्छा करता है। ऐसे इस जीवन की अपेक्षा से तो तुम्हें मर जाना श्रेयस्कर है। जैन आगमों में आत्महत्या करने का निषेध किया गया है। विष खाकर या फांसी लगा कर मरने वाले को बाल-अज्ञानी कहा गया है। परन्तु, विवेक एवं ज्ञान पूर्वक धर्म एवं संयम की सुरक्षा के लिए वैहानसादि मरण का स्वीकार पाप नहीं, बल्कि धर्म है। वह मृत्यु आत्मा का विकास करते वाली है। प्रस्तुत सूत्र अपवाद स्वरूप है। धर्म संकट के समय ही साधक को विषपान करने या गले में फंदा डालकर मरने की आज्ञा दी गई है। आगम में कहा गया है कि- भगवान ने उक्त दो प्रकार से मरने की आज्ञा नहीं दी है, परन्तु विशेष परिस्थिति में उस का निषेध भी नहीं किया है। इसी अपेक्षा से प्रस्तुत उद्देशक में संयम को सुरक्षित रखने के लिए मृत्यु को स्ीकार करने की आज्ञा दी है। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें।