________________ श्री राजे धनी आहोरी-हिन्दी-टीका 卐१-८-४-५ (228) // 147 से ठंड लगने पर भी ठंडी का प्रतिकार न करे किंतु उस ठंडी को समभाव से सहन करे... यदि वह शीत-वेदना सहन न हो शके तब अथवा तो सीमंतनी याने पत्नी-महिला उपसर्ग कर रही हो तब विष भक्षण से या उबंधन याने गले में दोरी बांधकर लटकना इत्यादि से मरण प्राप्त करे, अथवा बहोत समय पर्यंत विभिन्न उपाय से उपार्जित संयम एवं तपश्चर्यावाले उन महामुनी के ध्यानभंग के लिये अपने हि ज्ञाति के लोक पत्नी सहित कीसी -पुरुष को अपवरक याने रूम-घर में बंध करके उस मुनी को संयम भ्रष्ट करने के लिये कामावेशवाली वह स्त्री उस साधु के साथ कामक्रीडा की प्रार्थना करे तब वह साधु उस घर में से बाहार निकलने का मार्ग न मीलने पर अपने आपके गले में फांसा लगाकर विहायोगमन अनशन करे अथवा विष का भक्षण करे, अथवा उपर से कुदकर गिर पडे इत्यादि... अथवा तो दीर्घकाल पर्यंत शीत आदि सहन न हो शके तब सुदर्शन की तरह प्राणो का त्याग करे... प्रश्न- वेहानसादि मरण को बालमरण कहा है न ? और यह बालमरण तो अनर्थकारी है, तो इस बालमरण को पाना उचित कैसे हो ? क्योंकि- आगमसूत्र में भी कहा है किबालमरण से मरने के द्वारा जीव अपने आपको अनंत बार नरक गति में जाने योग्य बनाता है... यावत् अनादि-अनंत इस संसार-अटवी में अपने आपको बार बार भटकने योग्य बनाता है... इत्यादि... उत्तर- जिनमत को माननेवाले ऐसे हमें यहां दोष नहि है... क्योंकि- जिनमत में एक मैथुनक्रीडा के सिवाय अन्य किसी का भी न तो एकांत से निषेध या न तो एकांत से विधान है... किंतु द्रव्य क्षेत्र काल एवं भाव के अनुसार प्रतिषेध भी कहा है और विधान भी है... कहा है कि- कालज्ञ साधु को उत्सर्ग मार्ग जब दोष स्वरूप दीखे तब उत्सर्ग का त्याग करके गुणकारी ऐसे अपवाद मार्ग का आलंबन उचित कहा गया है... जैसे कि- दीर्घकाल तक संयम का प्रतिपालन करके संलेखना-विधि से कालपर्याय होने पर भक्तपरिज्ञादि मरण गुण के लिये होता है... किंतु कालपर्याय न होने पर इस प्रकार के उपसर्गादि के समय में वेहानस और गार्द्धपृष्ठादि मरण भी कालपर्याय हि है... अतः जिस प्रकार कालपर्याय मरण गुणकारक है, उसी प्रकार वेहानसादि मरण भी गुणकारक होते हैं... क्योंकि- बहोत सारे काल-समय में वह साधु जितने कर्मो का क्षय करता है उतने हि कर्मो को वह साधु थोडे समय में भी क्षय कर शकता है, यह बात अब कहां हैं... किमात्र आनुपूर्वी याने अनुक्रम से भक्तपरिज्ञादि को करनेवाला हि नहि किंतु उपसर्गादि के संकट में वेहानसादि मरण पानेवाला साधु भी कर्मो का अंत-विनाश करके मोक्ष पद पाता है, अत: इस स्थिति में उस साधु को वेहानसादि मरण भी उत्सर्ग हो जाता है, क्योंकि- इस प्रकार