Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 卐१-८-3-3 (222) 133 का निग्रह करता है और राग-द्वेष का छेदन करने वाला है और वह निश्चित रूप से संयम साधना में संलग्न रहता है। IV टीका-अनुवाद : ओजः याने एक रागादि रहित वह केवलज्ञानी प्रभु क्षुत्-पिपासादि परीषह होने पर दया याने अहिंसा का हि पालन करतें हैं, परीषहों आने पर दया याने अहिंसा का खंडन नहि करतें तथा जो छद्मस्थ साधु लघुकर्मा है वह नारकादि गति के कारण स्वरूप कर्म को कहनेवाले शास्त्र को जानते हैं अथवा तो संनिधान याने कर्म के शस्त्र-संयम को जानते हैं, वे हि भिक्षु याने साधु कालज्ञ याने उचित और अनुचित अवसर को जानतें हैं... यह सभी सूत्र लोकविजय नामने अध्ययन के पांचवे उद्देशक की व्याख्या की तरह जानीयेगा... तथा बलज्ञ याने बल को जाननेवाले, मात्रज्ञ याने मात्रा-प्रमाण को जाननेवाले क्षणज्ञ याने अवसर को जाननेवाले, विनयज्ञ याने विनय-विवेक को जाननेवाले एवं समय याने शास्त्र को जाननेवाले होतें हैं अत: परिग्रह-उपकरणों में ममत्व न करते हुए कालावसर के अनुसार पंचाचार में उद्यम करनेवाला साधु दोनों प्रकार से याने बाह्य एवं अभ्यंतर कर्मो के बंधनों को छेदता है... ऐसे प्रकार के हि साधुजन संयमानुष्ठान में निश्चित विचरतें हैं... - संयमानुष्ठान में विचरते हुए उन साधुओं को जो गुण-लाभ होता है वह अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे.... V सूत्रसार : - ___ साधना का क्षेत्र परीषहों से घेरा हुआ है। साधु वृत्ति में परीषहों का उत्पन्न होना आश्चर्य जनक नहीं है, अपितु परीषहों का उत्पन्न न होना आश्चर्य का कारण हो सकता है। अतः साधक परीषहों के उत्पन्न होने पर दया भाव का परित्याग नहीं करता है। वह जीवों की दया एवं रक्षा करने में सदा संलग्न रहता है। दया संयम का मूल है, इसलिए यहां सूत्रकार ने दया शब्द का प्रयोग किया है। क्योंकि- दयाहीन व्यक्ति संयम का परिपालन नहीं कर सकता है। इसलिए प्राणान्त कष्ट उपस्थित होने पर भी साधक दयाभाव का परित्याग नहीं करता है। अर्थात् अहिंसादि महाव्रतों में हि स्थिर रहता है...' ऐसे संयम का पालन वही कर सकता है, जो कि- कर्मशास्त्र का परिज्ञाता है और संयम विधि का पूर्ण ज्ञाता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि- मुनि को कर्म बन्ध के कारण एवं उसके क्षय करने के साधन पंचाचार का परिज्ञान होना चाहिए और यह परिज्ञान आगमों के अध्ययन, स्वाध्याय एवं चिन्तन से ही हो सकता है। स्वाध्याय एवं चिन्तन-मनन में संलग्न रहने वाला साधक ही उपयुक्त समय एवं आहार आदि की मात्रा-परिमाण का ज्ञाता हो सकता