Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका #1-8 - 3 - 4 (223) 135 को थोंडा या अधिक गर्म करे या गर्म करने का प्रयत्न करे, तो भिक्षु उस गृहपति को इस - प्रकार प्रतिबोधित करे कि- यह अग्नि मेरे लिए अनासेव्य है अर्थात् मुझे अग्नि का सेवन करना नहीं कल्पता है। अतः मैं इसका सेवन नहीं करुंगा हूं। इस प्रकार हे जंबू ! मैं तुम्हें कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : अंत-पांत नीरस-विरस आहारादि के कारण से निस्तेज और निष्किंचन भिक्षु याने साधु को उष्मावाली यौवनावस्था बीतने पर साधु के शरीर को उपयुक्त वस्त्रादि के अभाव से कांपता हु।। देखकर कोइक गृहस्थ कि- जो ऐश्वर्य की उष्मावाला तथा कस्तुरी के साथ केशर के लेप से लिप्त देहवाला तथा अंबर अगुरु घनसार आदि धूप से धूपित वस्त्रादि पहने हुए शरीरवाला तथा प्रौढ स्त्रीओं के परिवार से घेरा हुआ सोचे कि- क्या यह मुनी अप्सरांओ से भी अधिक रूप सौंदर्यवाली मेरी स्त्रीओं को देखकर काम-मदन के वश होकर कांपता है या ठंड के कारण से ? इत्यादि संशय करता हआ और अपनी कुलीनता को प्रगट करता हआ प्रतिषेध प्रकार से प्रश्न करे कि- हे श्रमण ! क्या आपको ग्रामधर्म याने इंद्रियों के विषय-विकार अधिक पीडा नहि करता ? इस प्रकार गृहस्थ के कहने पर साधु गृहस्थ का मनोगत अभिप्राय जानकर विचारे कि- “इस गृहस्थ को स्त्रीओं को देखने से होनेवाले कामविकार के विचार से साधु के उपर जुठी शंका हुइ है अतः मैं इस जुठी शंका को दूर करूं' ऐसा सोचकर साधु कहे कि- हे आयुष्मन् गृहपति ! मुझे ग्रामधर्म याने इंद्रियों के विकार पीडित नहि करतें... किंतु जो आप मेरा शरीर कांपता हुआ देखते हो वह शीतस्पर्श याने ठंडी के कारण से हि जानीयेगा... परंतु और कोइ.मानसिक विकार से नहि... क्योंकि- मेरा शरीर इस अतिशय ठंडी को सहन नहि कर शकता... इत्यादि... साधु के वचन को सुनकर भक्ति एवं करुणा हृदयवाला वह गृहस्थ कहे कि- आप प्रज्वलित अग्नि का सेवन क्यों नहि करतें ? तब मुनी कहे कि- हे गृहपति ! हम साधुओं को अग्नि जलाना कल्पता नहि है, और अग्नि से शरीर को तपाना भी नहि कल्पता... तथा अन्य लोगों के कहने पर भी हमे अग्नि से ताप लेना कल्पता नहि है, और अन्य लोगों को अग्नि जलाने के लिये भी कहना हमे कल्पता नहि है... इत्यादि साधु के वचन को सुनकर कदाचित् वह गृहस्थ साधु के प्रति भक्ति-करुणा से स्वयं हि अग्नि जलाकर साधु के शरीर को ठंडी से बचने के लिये आतापना दे तब वह साधु स्वयं हि अपनी सन्मति से या अन्य साधु के कहने से या अन्य कहिं शास्त्र से साधु के आचार को सुनकर उस गृहस्थ को कहे कि- “हे गृहपति ! हम को इस प्रकार आतापना लेना कल्पता नहि है... किंतु आपने तो साधु के प्रति भक्ति और अनुकंपा से बहोत सारा पुण्य उपार्जन कीया है" इत्यादि प्रकार से साधु गृहस्थ को समझावें... इति शब्द यहां अधिकार की समाप्ति का सूचक है और ब्रवीमि शब्द पूर्ववत् अर्थात् पंचम गणधर श्री सुधर्मास्वामीजी अपने शिष्य जंबूस्वामीजी को यह साधु