________________ 142 ॥१-८-४-२(२२५)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन % 3D IV टीका-अनुवाद : यदि वे वस्त्र आनेवाले वर्ष के हेमंत ऋतु पर्यंत रहे ऐसे हो तो साधु उभय टंक उन वस्त्रों का पडिलेहण करते हुए अपनी पास रखे... किंतु यदि वे वस्त्र जीर्ण जैसे या जीर्ण हो तो उन वस्त्रों का साधु त्याग करे... परठ दे... वह इस प्रकार- जब साधु देखे कि- अब हेमंत ऋतु पूर्ण हो चुकी है, और ग्रीष्मकाल आ चुका है... अतः शीतकी पीडा अब नहि है... और यह वस्त्र भी चारों और से जीर्ण हो चूके हैं... इत्यादि जानकर साधु उन वस्त्रों का त्याग करे... यदि सभी वस्त्र जीर्ण न हुए हो तो जो वस्त्र जीर्ण हुआ हो उसका त्याग करें... और त्याग करके वह साधु नि:संग होकर विचरे... किंतु यदि शीतकाल बीत जानेके बाद भी क्षेत्र, काल, पुरुष एवं गुण की दृष्टि से शीत की पीडा हो रही हो तब साधु क्या करें ? यह बात अब कहतें हैं... . शीतकाल बीत जाने पर साधु वस्त्रों का त्याग करें... अथवा क्षेत्र आदि के कारण से हिमकणवाले शीत वायु का संचार हो तब अपने आत्मा की तुलना के लिये एवं शीत की परीक्षा के लिये साधु कभी वस्त्र पहने और कभी वस्त्र न पहनें, किंतु अपने पास रखे... परंतु शीत के कारण से साधु उन वस्त्रों का त्याग न करें... अथवा अवमचेलक याने तीन में से एक वस्त्र का त्याग करके दो वस्त्रों को धारण करे... अथवा धीरे धीरे शीत दूर होने पर दुसरे वस्त्र का भी त्याग करे... तब साधु मात्र एक हि वस्त्र को धारण करें... अथवा संपूर्ण शीत दूर होने पर साधु उस एक वस्त्र का भी त्याग करके अचेलक हि रहे... वह जिनकल्पिक साधु जघन्य से रजोहरण एवं महुपत्ती मात्र उपधिवाले होतें हैं.... वे जिनकल्पवाले साधु एक एक वस्त्र का त्याग क्यों करतें हैं ? वह अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : वस्त्र की उपयोगिता शीत एवं लज्जा निवारण के लिए है। यदि शीतकाल समाप्त हो गया है और वस्त्र भी बिल्कुल जीर्ण-शीर्ण हो गया है, तो वह पूर्व सूत्र में कथित अभिग्रह निष्ठ मुनि उन वस्त्रों का त्याग करके एक वस्त्र रखे। यदि कुछ सर्दी अवशेष है, तो वह दो वस्त्र रखे और सर्दी के समाप्त होने पर केवल लज्जा निवारण करने के लिए और लोगों की निन्दा एवं तिरस्कार से बचने के लिए वह एक वस्त्र रखे। यदि वह लज्जा आदि पर विजय पाने में समर्थ है, तो वह पूर्णतया वस्त्र का त्याग कर दे, परन्तु मुखवत्रिका एवं रजोहरण अवश्य रखे। क्योंकि- ये दोनों जीव रक्षा के साधन एवं जैन साधु के चिन्ह है।