Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 136 // 1-8-3 - 4 (223) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन का आचार-विचार कहते हैं... V सूत्रसार : शरीर में कंपन विकारों के वेग से होता है। विकार भी द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार के होते हैं। शीत एवं ज्वर आदि द्रव्य विकार हैं, जिनके कारण शरीर में कंपन होता है। काम, क्रोध, मोह आदि भाव विकार हैं और जब इनका वेग होता है, उस समय भी शरीर कांपने लगता है। इस तरह भले ही सर्दी से, ज्वर से या काम आदि से शरीर में कम्पन हो, वह कंपन विकारजन्य ही कहलाता है। परन्तु, द्रव्य विकारों से उत्पन्न कम्पन जीवन के लिए अहितकर नहीं है। किंतु भाव विकारों के वेग से उत्पन्न कम्पन जीवन का सर्वनाश भी कर सकता है / इसलिए साधक को भाव विकारों के आवेग से सदा दूर रहना चाहिए। कुछ मनुष्यों का स्वभाव होता है कि- वे प्रत्येक मनुष्य की चेष्टा को अपनी चेष्टा के अनुरूप देखते या समझते हैं। उन्हें काम-भोगों के आवेग से कम्पन पैदा होता है तो वे दूसरे व्यक्ति को कांपते हुए देखकर उसे भी काम-विकार से पीडित समझने लगते हैं। ऐसे व्यक्ति के सन्देह को अवश्य दूर करना चाहिए। इत्यादि यही बात प्रस्तुत सूत्र में बताई गई है। __कोई साधु किसी गृहस्थ के घर भिक्षा को गया। सर्दी की अधिकता के कारण उसके शरीर को कांपते हुए देखकर यदि कोई गृहस्थ पूछ बैठे कि- क्या आपको काम-वासना का वेग सता रहा है ? तो मुनि स्पष्ट शब्दों में कहे कि- मैं वासना से प्रताडित नहीं हूं। परन्तु, सर्दी की अधिकता के कारण कांप रहा है। यह सुनकर यदि गृहस्थ कहे कि- तुम अग्नि ताप लो। यदि तुम हमारे चुल्हे के पास जाना नहीं चाहते हो, तो हम ताप का साधम यहां लाकर दे दें। उस समय मुनि कहे कि- हे देवानुप्रिय ! मुझे अग्नि तापना नहीं कल्पता है। क्योंकिवह सजीव है, इसलिए अग्नि को तापने से तेजस्कायिक जीवों की हिंसा होती है। इस तरह वह समस्त शंकाओं का निराकरण करके विशुद्ध भावों के साथ संयम साधना में संलग्न रहे। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें। // इति अष्टमाध्ययने तृतीयः उद्देशकः समाप्तः // 卐卐॥ : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शत्रुजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद्