________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-8-3 -2 (221) // 131 II. संस्कृत-छाया : ___ आहारोपचयाः देहाः परीषह-प्रभञ्जिनः पश्यत एके सर्वेन्द्रियैः परिग्लायमानैः // 221 // III सूत्रार्थ : हे शिष्य ! तू देख, यह आहार से परिपुष्ट हुआ शरीर परीषहों के उत्पन्न होने पर विनाश को प्राप्त होता है। अत: कुछ साधु भी परीषहों के उत्पन्न होने पर सब तरह से ग्लानिभाव या विनाश-भाव को प्राप्त होते हैं। IV टीका-अनुवाद : आहारादि से पुष्ट होनेवाला शरीर, आहार-पानी के अभाव में क्षीण होता है अर्थात् जीव देह का त्याग करता है... तथा परीषहों से भी शरीर का नाश होता है... जैसे किआहारादि से पुष्ट कीया हुआ शरीर ठंडी-गरमी इत्यादि परीषहो में या वात-पित्त एवं कफ के क्षोभ से देखिये ! कि- कितनेक मनुष्य क्लिबता याने परवशता को पाये हुए हैं... जैसे कि- भुख से पीडित प्राणी न कुछ देख शकता है, न सुन शकता है और न तो कुछ सुंघ शकता है इत्यादि... देखिये ! केवलज्ञानी का शरीर भी आहारादि के बिना ग्लानिभाव को प्राप्त करता है तो फिर अन्य सामान्य जीवों की तो बात हि क्या करना ? अर्थात् सभी जीवों के शरीरदेह प्रकृति से भंगुर हि है... प्रश्न- . जिन्हे केवलज्ञान प्रगट नहि हुआ है वे छद्मस्थ प्राणी (मनुष्य) अकृतार्थ होने के कारण से उनको क्षुत्-वेदनीय कर्म होने से आहार लेना चाहिये और दया आदि व्रतों का पालन करे किंतु जो केवलज्ञानी हैं वे तो निश्चित हि मोक्ष-पद पानेवाले हैं तो फिर वे क्यों शरीर धारण करतें हैं ? और शरीर को धारण करने के लिये क्यों आहार लेते हैं ? उत्तर- केवलज्ञानी को भी चार अघाती कर्म होतें हैं अत: वे सर्वथा कृतार्थ नहि है, अतः सर्व प्रकार से कृतार्थ होने के लिये हि शरीर को धारण करतें हैं और शरीर को धारण करने के लिये आहार की आवश्यकता रहती है क्योंकि- उन्हें भी क्षुवेदनीय कर्म होता है और वेदनीय कर्म के कारण से हि केवलज्ञानीओं को ग्यारह (11) परीषह होते हैं, इस कारण से हि केवलज्ञानीओं को भी आहार लेना होता है... तथा आहार के अभाव में छद्मस्थ जीवों को शरीर में एवं इंद्रियों में ग्लानता याने मंदता होती है ऐसा यहां कहा है...