________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 8 - 3 - 1 (220) 129 एवं धनादि परिग्रह से रहित होते हुए अपने शरीर पर भी ममत्व नहीं रखते हैं। वे महापुरुष संपूर्ण लोक में स्थित समस्त प्राणियों के दंड का परित्याग करके किसी भी प्रकार के पापकर्म का आचरण नहीं करते हैं। वे बाह्याभ्यन्तर ग्रन्थ-परिग्रह से रहित होने के कारण निर्ग्रन्थ कहे गए हैं। अत: जो साधक राग-द्वेष से रहित हैं और संयम एवं मोक्ष के ज्ञाता हैं, वे देवों के उपपात एवं च्यवन को जानकर कभी भी पापकर्म का आचरण नहीं करतें / IV टीका-अनुवाद : ' यहां उम्र के तीन विभाग कहे हैं... 1. युवान, 2. मध्यमवय: 3. वृद्ध... इन तीनों में मध्यमवय:वाले हि परिपक्वबुद्धिवाले होने के कारण से धर्माचरण के लिये योग्य कहे हैं... जैसे कि- मध्यम उम्रवाले कितनेक मनुष्य बोध पाकर धर्माचरण के लिये अच्छी तरह से समर्थ हो सकते हैं... यद्यपि प्रथम और अंतिम उम्रवाले भी धर्माचरण के लिये समर्थ हो शकतें हैं किंतु कोइ कोइ मात्र हि... जब कि- मध्यम उम्रवाले सभी समर्थ हो सकते हैं... क्योंकि- मध्यम उम्र में भोगसुखों का कुतूहल नहि रहता, इसलिये मध्यमवय हि धर्माचरण के लिये निर्दोष एवं समर्थ है इत्यादि... ... यहां बोध पानेवालों के तीन प्रकार है... 1. स्वयंबुद्ध 2. प्रत्येकबुद्ध 3. बुद्धबोधित... इन तीनों में से यहां बुद्धबोधित का अधिकार है... जैसे कि- गुरुजी की आज्ञा-मर्यादा में रहा हुआ साधु, पंडित याने तीर्थंकर आदि के हित की प्राप्ति एवं अहितकारी कार्यों का त्याग स्वरूप उपदेश वचन सुनकर एवं हृदय मे धारण करके समभाव में रहें... क्योंकि- आर्य याने तीर्थंकरादि महापुरुषों ने माध्यस्थ्य-भाव से हि श्रुत एवं चारित्र धर्म कहा है... जैसे कि- मध्यम उम्र में धर्मकथा सुनकर एवं हृदय में धर्म को धारण करके संयमाचरण के लिये तत्पर बने हुए वे मनुष्य काम-भोग की आकांक्षा को छोडकर मोक्षमार्ग में चलतें हैं... तथा जीवहिंसा नहि करतें एवं परिग्रह का भी त्याग करतें हैं... यहां प्रथम एवं पांचवे व्रत का ग्रहण कीया है, अत: बीच के मृषावादादि का भी त्याग करते हैं... याने वे साधुजन मृषावाद (झुठ) नहि बोलतें इत्यादि... ऐसे यह साधुजन अपने शरीर के उपर भी. ममत्व-भाव नहि रखतें, और संपूर्ण लोक में कोइ भी पदार्थ के उपर ममता नहि रखतें... तथा जीवों को जो पीडा दी जाय उसे दंड कहते हैं... अतः यह दंड परितापकारी है... इसलिये साधुजन जीवों के दंड का त्याग करके अट्ठारह प्रकार के पापों का भी त्याग करतें हैं... तथैव बाह्य एवं अभ्यंतर ग्रंथ याने परिग्रह साधुओं को नहि है अतः वे अग्रंथ है ऐसा तीर्थंकर एवं गणघरादि ने कहा है... तथा ओज याने राग-द्वेष रहित अद्वितीय, तथा