________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 卐 1 - 8 - 0 - 0 म 89 प्रथमश्रुतस्कन्धे अष्टममध्ययनम् >> विमोक्षाध्ययनम् // छट्ठा अध्ययन कहा... अब क्रम प्राप्त सातवा अध्ययन कहने का अवसर है; किंतु महापरिज्ञा नाम का सातवा अध्ययन विच्छेद हुआ है, अतः अब छट्टे अध्ययन के बाद आठवा अध्ययन कहते हैं... यहां परस्पर संबंध इस प्रकार है कि- छढे अध्ययन में शरीर, उपकरण, तीन गारव, उपसर्ग एवं सन्मान के विधूनन के द्वारा नि:संगतता कही है... किंतु वह नि:संगता तब सफल हो कि- जब मुनी अपने जीवन के अंतकाल में सम्यक् निर्याण याने समाधि में रहे... अतः इस आठवे अध्ययन में सम्यग् निर्याण का स्वरूप कहते हैं... अथवा नि:संगता से विहार करनेवाले साधओं को विविध प्रकार से परीषह एवं उपसर्ग समभाव से सहन करने चाहिये... इत्यादि बातें यहां कहेंगे... उनमें भी मरणांतिक उपसर्ग होवे तब भी साधु अदीन मनवाला होकर सम्यग् निर्याण (समाधि) भाव रखें... इस अर्थ को कहने के संबंध से आये हुए इस. आठवे अध्ययन के उपक्रमादि चार अनुयोग द्वार होते हैं... उनमें उपक्रम द्वार में अर्थाधिकार दो प्रकार से कहे गये है... 1. अध्ययनार्थाधिकार... जो पहले कह चुके हैं... 2. उद्देशार्थाधिकार... जो अब नियुक्तिकार कहेंगे... नि. 253-256 आठवे अध्ययन के आठ उद्देशक हैं उनमें क्रमश: पहले से लेकर आठवे उद्देशक का अर्थाधिकार इस प्रकार है... अमनोज्ञ याने तीन सौ त्रेसठ (363) प्रवादीओं का त्याग करना चाहिये... अर्थात् उनके आहार उपधि शय्या का और उनकी दृष्टि का त्याग करें... जैसे कि- चारित्र तप एवं विनयकर्म में पासत्थादि असमनोज्ञ हैं और यथाच्छंद तो पांचो आचार में असमनोज्ञ हैं... अतः उनका यथायोग्य त्याग करें... 2. दुसरे उद्देशक में-अकल्पनीय आधाकर्मादि का त्याग करना चाहिये... अथवा आधाकर्म दोषवाले आहार के लिये यदि कोइ गृहस्थ निमंत्रण करे, तब निषेध करें... इस स्थिति में जब दाता रुष्ट हो; तब उन्हे शास्त्र की बात समझाकर कहें कि- ऐसे आधाकर्मादि दोषवाले आहारादि दान में तुम्हें और मुझे कोई लाभ नहि होगा; किंतु मात्र पापकर्म का हि बंध होगा...