Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका देकर उत्सर्ग से बारह (12) वर्ष पर्यंत संलेखना विधि के द्वारा संलेखना करके बाद में गच्छ की अनुज्ञा से या अपने पद के उपर स्थापित आचार्य की अनुमति से अभ्युद्यत-मरण के लिये अन्य आचार्य के पास जावे... इसी प्रकार उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणावच्छेदक या सामान्य साधु आचार्य की अनुज्ञा प्राप्त करके संलेखना विधि से संलेखना करके भक्तपरिज्ञादि मरण को स्वीकारते हैं... द्रव्य संलेखना के साथ भाव संलेखना भी करें... क्योंकि- मात्र द्रव्य संलेखना में तो दोषों की संभावना है... नि. 269 - यदि आचार्य कहे कि- "आप ! पुनः संलेखना करो" तब वह साधु कोपायमान (क्रुद्ध) हो... किंतु ऐसा नहि होना चाहिए क्योंकि- राजा की तीक्ष्ण आज्ञा भी बाद में शीतल (मंद) होती है; इसी प्रकार आचार्य की भी आज्ञा भीम-कांत गुणवाली जानीयेगा... तथा नागवल्ली पत्तों में संडा हुआ पान (पत्ता) शेष पत्तों के संरक्षण के लिये त्याग कीया जाता है... इसी प्रकार गुरुजी दोषों को दुर करने के लिये प्रथम घट्टना याने कदर्थना करें... यदि साधु उस कदर्थना को सहन करे... और कहे कि- आपका प्रसाद है... इत्यादि यह यहां गाथार्थ है... और भावार्थ कथानक से जानीयेगा.... ___ वह कथानक इस प्रकार है- कोइ एक साधु ने बारह वर्ष की संलेखना से अपने आपको संलेखित करके मरण के लिये तत्पर होकर अपने आचार्यजी को विनंती की तब आचार्यजी ने कहा कि- अभी और अधिक संलेखना करो... तब कोपायमान होकर साधु ने अपनी अस्थि (हड्डी) मात्र रही दुर अंगुली को तोडकर कहा कि- अब यहां क्या अशुद्धि है ? तब आचार्यजी अपने अभिप्राय को प्रगट करते हए कहते हैं कि- आपकी संलेखना द्रव्य से हइ है; भाव से संलेखना नहि हुइ है; अत: आप अशुद्ध हैं... क्योंकि- हमारे कहने मात्र से आप कोपायमान होकर अंगुली को तोड दी... यह ठीक नहि कीया... कषायों का शमन हि भाव संलेखना है; आपने तो कोप करके अपनी भाव-अशुद्धि प्रगट की है... इस विषय में एक दृष्टांत सुनीयेकिसी एक राजा की आंखें सदा निष्पंद थी, उन्होंने अपने वैद्य की सलाह ली और औषधोपचार करने पर भी जब ठीक नहि हुइ; तब बाहर से आये हुए आगंतुक वैद्य ने कहा कि- मैं आपकी आंखे ठीक करुं किंतु यदि आप एक मुहूर्त (दो घडी) पर्यंत पीडा (वेदना) सहन करोगे और औषधोपचार से होनेवाली पीडा से मुझे प्राणांत दंड न दें... राजाने भी उस वैद्य की बात मान ली... वैद्यने जब राजा की आंखों में अंजन लगाया, तब हो रही तीव्र वेदना-पीडा से राजा कहने लगा कि-"मेरी आंखे चली गई" ऐसा कहाकर जब राजा वैद्य को मारने को तैयार हुआ; तब याद आया कि- राजा से भी राजा का वचन (आज्ञा) तीक्ष्ण है, इत्यादि... राजा खुद हि पहले से वैद्य के साथ वचन बद्ध हुए थे कि- वैद्य को नहि मारेंगे... अत: राजा ने वैद्य को नहि मारा... एक मुहूर्त के बाद जब पीडा शांत हुइ और आंखे अच्छी हुइ; तब