Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 120 1 - 8-2-2- (216) 9 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन न करे। वह अपनी साधु वृत्ति से उसे परिचित कराकर अपनी निर्दोष साधना में संलग्न रहे। श्मशान आदि में ठहरने के पाठ को वृत्तिकार ने जिनकल्पी एवं प्रतिमाधारी मुनि के लिए बताया है, स्थविरकल्पी के लिए नही। यद्यपि उत्तराध्ययन सूत्र में सभी साधुओं के लिए श्मशान आदि में ठहरने का उल्लेख मिलता है। कोई भी साधक आत्म चिन्तन के लिए ऐसे स्थान में ठहर सकता है। निषिद्या परीषह के वर्णन करते समय भी श्मशान आदि शून्य स्थान में ठहरने का सभी साधुओं के लिए उल्लेख किया गया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि- उपरोक्त निर्दोष स्थानों में स्थित साधु सदा निर्दोष वृत्ति से आहार-पानी आदि स्वीकार करके शुद्ध संयम का पालन करे। यदि कोई गृहस्थ स्नेह एवं भक्ति वश सदोष वस्तु तैयार कर दे तो साधु उसे स्वीकार न करे। साधु सदोष पदार्थों के विषय में गृहस्थ को किस तरह निषेध करे यह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र में कहतें हैं... I सूत्र // 2 // // 216 // 1-8-2-2 से भिक्खू परिक्कमिज वा जाव हुरत्था वा कहिंचि विहरमाणं तं भिक्खुं उवसंकमित्तु गाहावई आयगयाए पेहाए असणं वा वत्थं वा जाव आहटु चेएइ, आवसहं वा समुस्सिणाइ भिक्खू परिघासेडं, तं च भिक्खू जाणिज्जा सहसम्मइयाए परवागरणेणं अण्णेसिं वा सुच्चा-अयं खलु गाहावई मम अट्ठाए असणं वा वत्थं वा जाव आवसहं वा समुस्सिणाइ तं च भिक्खू पडिलेहाए आगमित्ता आणविजा आसेवणाए त्तिबेमि // 216 // // संस्कृत-छाया : सः भिक्षु उपसङ्क्रम्य वा यावत् अन्यत्र वा क्वचित् विहरन्तं तं भिक्षु उपसङ्क्रम्य गृहपतिः आत्मगतया प्रेक्षया अशनं वा वस्त्रं वा यावत् आहत्य ददाति, आवसथं वा समुच्छृिणोति भिक्षु परिघासयितुं, तं च भिक्षुः जानीयात् स्वसन्मत्या परव्याकरणेन वा अन्येभ्यो वा श्रुत्वा-अयं खलु गृहपतिः मम अर्थाय अशनं वा वस्त्रं वा यावत् आवसथं वा समुच्छृणोति, तं च भिक्षुः प्रत्युपेक्ष्य अवगम्य ज्ञापयेत् अनासेवनया इति ब्रवीमि // 216 // III सूत्रार्थ : वह भिक्षु श्मशानादि स्थानों में ध्यानादि साधना में पराक्रम करता हो या अन्य कारण से इन स्थानों में विचरता हो, उस समय यदि कोई गृहस्थ भिक्षु के पास आकर अपने मानसिक