Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-8-2-1(215) 117 -स भुक्ष्व वसत, हे आयुष्मन् ! श्रमण ! भिक्षो ! तं गृहपतिं समनसं सवयसं प्रत्याचक्षीत - हे आयुष्मन् ! गृहपते ! न खलु तव वचनं आद्रिये, न खलु तव वचनं परिजानामि, यः त्वं मम अर्थाय अशनं वा वस्त्रं वा प्राणिनः वा समारभ्य समुद्दिश्य क्रीतं प्रामित्यं आच्छिद्यं अनिसृष्टं अभ्याहृतं आहृत्य ददासि, आवसथं वा समुच्छृणोसि, सः विरतः हे आयुष्मन् ! गृहपते ! एतस्य अकरणतया // 215 // * III सूत्रार्थ : __. वह भिक्षु (मुनि) आहारादि या अन्य कार्य के लिए पराक्रम करे अर्थात् आवश्यकता होने पर वह खड़ा होवे, बैठे और शयन करे अथवा जब वह श्मशान में, शून्यागार में, पर्वत की गुफा में, वृक्ष के मूल में या ग्राम के बाहर अन्य किसी स्थान पर विचर रहा हो, उस समय उसके समीप जाकर यदि कोई गृहपति, इस प्रकार कहे कि- हे आयुष्मन् श्रमण ! मैं तुम्हारे लिए प्राण, भूत, जीव, सत्त्व आदि का उपा पानी, ख़ादिम-मिठाई आदि, स्वादिम-लवंग आदि, वस्त्र, पात्र, कम्बल और रजोहरण आदि बनवा देता हूं, या तुम्हारे उद्देश्य से मोल लेकर, उधार लेकर किसी से छीनकर या अन्य व्यक्ति की वस्तु को उसकी विना अनुमति के लाकर एवं अपने घर से लाकर तुम्हें देता हूं। मैं तुम्हारे लिए नया मकान-उपाश्रय बनवा देता हूं; या पुराने मकान का नवीन संस्कार करवा देता हूं। हे आयुष्मन श्रमण ! तुम अन्नादि पदार्थ खाओ और उस मकान में रहो। ऐसे वचन सुनकर वह भिक्षु गृहपति से कहे कि- हे आयुष्मन् गृहस्थ ! मैं तुम्हारे इस वचन को आदर नहीं दे सकता और मैं तुम्हारे इस वचन को उचित भी नही समझता हूं। क्योंकि- तू मेरे लिए प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व आदि का उपमर्दन करके आहारादि पदार्थ बनाएगा या मेरे उद्देश्य से मोल लेकर, उधार लेकर, किसी से छीनकर या अन्य व्यक्ति की वस्तु उसकी विना आज्ञा लेकर और घर से लाकर देगा अथवा तू नया मकान-उपाश्रय बनवा कर या पुरातन मकान का जीर्णोद्धार करवाकर देगा। परन्तु, हे आयुष्मन् गृहस्थ ! मैं आप के इन पदार्थों को स्वीकार नहीं कर सकता हूं। क्योंकि- मैं विरत हूं, आरम्भ समारम्भ का पूर्णतः त्याग कर चुका हूं, अतः मैं आप के उक्त प्रस्ताव का न आदर करता हूं और न उसे उचित समझता हूं। IV टीका-अनुवाद : सभी सावद्य याने पापाचरण न करने की प्रतिज्ञा स्वरूप मेरू पर्वत के उपर चढा हुआ, एवं भिक्षा के द्वारा देह निर्वाह करनेवाला साधु भिक्षा के लिये या अन्य संयमानुष्ठान के लिये पराक्रम करे, अर्थात् विहार करे, स्थिरता करे, या ध्यान मग्न होकर बैठे, अध्ययन-अध्यापन करे या विहार के श्रम से लैटे, आराम करें, कहां ? तो कहते हैं कि- श्मशान भूमी में, जो कि- स्मशान भूमी में लेटना (आराम करना) संभवित नहि है, अत: जहां जो हो शके वह