Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-8-1-4 (213) // 111 धर्म की प्राप्ति में गांव या अरण्य निमित्त नहि है, किंतु जीव एवं अजीव का परिज्ञान एवं अनुष्ठान हि धर्म के आलंबन कहे हैं... अत: “माहण” परमात्माने कहे हुओ धर्म को जानो... तथा मनन याने मति अर्थात् सभी पदार्थों के परिज्ञान को मति कहते हैं, ऐसे मतिवाले अर्थात् केवलज्ञानी परमात्माने यह धर्म कहा है... तथा याम याने व्रत... तीन याम याने प्राणातिपात विरमण, मृषावादविरमण और परिग्रह विरमण... अदत्तादान एवं मैथुन का परिग्रह में हि समावेश होने से तीन व्रत कहे हैं... अथवा याम याने वय (उम्र) विशेष... वह इस प्रकार- आठ वर्ष से लेकर तीस वर्ष तक की उम्र यह पहला याम... तथा तीस से लेकर साठ (60) वर्ष पर्यंत दुसरा याम... और साठ वर्ष से उपर की उम्र तीसरा याम... यहां अतिबाल याने जन्म से लेकर आठ साल की उम्रवाले एवं अतिवृद्ध याने अपने कार्य में असमर्थ वृद्ध-उम्रवालों का ग्रहण नहि कीया है... अथवा संसार की परिभ्रमणा का जिससे विराम हो; वह याम याने सम्यग्दर्शन-ज्ञान एवं चारित्र स्वरूप रत्नत्रय... त्रियाम कहे गये है... अतः यह तीन अवस्था या ज्ञानादि तीन में जो आर्य पुरुष समझ के साथ पापकार्यों का त्याग करने में उद्यम करतें हैं; वे क्रोधादि के अभाव से पापाचरण में शीतल हुए हैं अर्थात् पापाचरण में मंद रुचिवाले हुए हैं; इसलिये वे अनिदान याने भौतिक भोगोपभोगों की कामना स्वरूप नियाणा नहि कहतें.. ___ भोगोपभोग की कामना स्वरूप नियाणा कौन नहि करतें, यह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V. सूत्रसार : . यह हम देख चुके हैं कि- स्याद्वाद की भाषा में संशय को पनपने का अवकाश ही नहीं मिलता है। अतः स्याद्वाद की भाषा में व्यक्त किया गया सिद्धान्त ही सत्य है। यह सिद्धान्त राग-द्वेष विजेता सर्वज्ञ पुरुषों द्वारा प्ररूपित है। इसलिए जिनमत में परस्पर विरोधि बातें नहीं मिलती है और यह जिनमत समस्त प्रणियों के लिए हितकर भी है। वीतराग भगवान के वचनों में यह विशेषता है कि- वे वस्तु के यथार्थ स्वरूप को प्रकट करते हैं, और किसी भी व्यक्ति का तिरस्कार नहीं करते। उनके उपासक, श्रमण मुनि भी वाद-विवाद के समय असत्य तर्को का खण्डन कर के सत्य सिद्धांत को स्थापित करते हैं, परन्तु यदि कहीं वाद-विवाद में संघर्ष की सम्भावना हो या वितण्डावाद उत्पन्न होता हो; तो वे उसमें भाग नहीं लेते। वे स्पष्ट कह देते हैं कि- यदि तुम्हारे मन में पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को समझने की जिज्ञासा हो तो शान्ति से तर्क-वितर्क के द्वारा हम चर्चा कर सकते हैं और तुम्हारे संशय का निराकरण कर सकते हैं। परन्तु, हम इस वितण्डावाद में भाग नहीं लेंगे। क्योंकि- हम सावध प्रवृत्ति का त्याग कर चुके हैं और विवाद में सावध प्रवृत्ति होती है। इसलिए हम इस विवाद से दूर ही रहेंगे।