________________ 84 // 1-6-5-2(208) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन वह महामुनी क्रोध मान माया एवं लोभ का वमन करता है... अर्थात् त्याग करता है... यद्यपि यहां संसार में सभी प्राणीओं में क्रोध अल्पाधिक होता हि है... अथवा विषय कषायों के साथ क्रोध निश्चित होता हि है; अत: चार कषायों में सर्व प्रथम क्रोध कहा गया है... और मान भी क्रोध के साथ संबंध रखता है; अतः क्रोध के बाद मान का निर्देश कीया है... तथा लोभ के लिये प्राणी माया का सहारा लेता है; अत: मान के बाद और लोभ के पहले माया का निर्देश किया गया है और सभी दोषों का आश्रय एवं सभी दोषो में महान् दोष लोभ है; अतः लोभ का निर्देश सभी कषायों के अंत में किया गया है... अथवा क्षपक श्रेणी में कषायों के क्षय का यह क्रम है; इस कारण से भी सर्व प्रथम क्रोध और अंत मे लोभ का निर्देश कीया है... इस प्रकार वह मुनी क्रोधादि कषायों का विनाश करके मोहनीय कर्म को तोडता है... और मोहनीय कर्म का विनाश होने से संसार की परंपरा का भी अंत होता है अर्थात् प्राणी मोक्षपद पाता है; इत्यादि सभी बातें तीर्थंकरादि महर्षिओं ने कही है... यहां “इति" पद अधिकार की समाप्ति का सूचक है... “ब्रवीमि' पद का अर्थ पूर्व कहे गये अनुसार है... V. सूत्रसार : यह हम देख चुके हैं कि- उपदेश प्राणियों के हित के लिए दिया जाता है। अतः उपदेष्टा को सबसे पहले यह जानना आवश्यक है कि- परिषद् किस विचार क्री है; उसका स्तर कैसा है ? उसके स्तर एवं योग्यता को देखकर दिया गया उपदेश हितप्रद हो. सकता है। उससे उनका जीवन बदल सकता है। परन्तु, परिषद् की विचार स्थिति को समझे बिना दिया गया उपदेश वक्ता एवं श्रोता दोनों के लिए हानिप्रद हो सकता है। यदि कोई बात श्रोताओं के मन को चुभ गई तो उनमें उत्तेजना फैल जाएगी और उत्तेजना के वश वे वक्ता को भलाबुरा कह सकते हैं; या उस वक्ता पर प्रहार भी कर सकते हैं। इस प्रकार बिना सोचे-समझे अविवेक पूर्वक दिया गया उपदेश दोनों के लिए अहितकर हो सकता है। अतः प्रस्तुत सूत्र में यह कहा गया है कि- मुनि को व्याख्यान में ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए, जिससे स्व एवं पर को संक्लेश पहुंचे। अतः विवेकशील, संयमनिष्ठ मुनि प्राणी मात्र का शरणभूत हो सकता है। जैसे समुद्र में परिभ्रमित व्यक्ति के लिए द्वीप आश्रयदाता होता हैं, उसी तरह ज्ञान एवं आचार सम्पन्न मुनि भी प्राणीमात्र के लिए आधारभूत होता है और प्राणी जगत की रक्षा करता हुआ विचरता है। इससे स्पष्ट हो गया कि- मुनि किसी भी प्राणी को क्लेश पहुंचाने का कोई कार्य न करे। दूसरी बात यह है कि- संयमशील साधक ही दूसरों को सहायक हो सकता है। अतः मुमुक्षु पुरुष को संसार की परिस्थिति का परिज्ञान करके आरम्भ से निवृत्त रहना चाहिए।