Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 821 -6-5 - 2 (208) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आदि महापुरुषों ने कहा है। यह बात हे जंबू ! मैं तुम्हें कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : वह मुमुक्षु साधु पूर्वापर संबंध से धर्म को या पुरुष को देख-विचार कर जिस पुरुष को जो धर्म कहना चाहिये, वह हि आगम सूत्र की मर्यादा में रहकर सम्यग्दर्शनादि के विभिन्न क्रियानुष्ठान का उपदेश दे... और यह ध्यान-उपयोग रखे कि- अपने खुद के आत्मा की आशातना न हो तथा सामने रहे हुए आत्मा की भी आशातना न हो... अपने आपके आत्मा की आशातना के द्रव्य एवं भाव भेद से दो प्रकार है... उनमें द्रव्य से आशातना याने - आहार में कालातिक्रम होने से शरीर में पीडा हो... इत्यादि तथा भाव-आशातना याने धर्मोपदेश देते हुए, शरीर को पीडा न हो, अंगोपांग का भंग याने तुटना न हो इस बात का ध्यान रखें... तथा श्रोताओं की आशातना निंदा न करें... क्योंकि- निंदा करने से कोयापमान हुए वे श्रोताजन आहार-उपकरण आदि न देने के द्वारा या शरीर को कष्ट-(उपद्रव) पहुंचाने के लिये प्रयास करे... अत: आशातना न हो, इस प्रकार धर्मोपदेश दें... तथा अन्य जीवों की भी आशातना न करें... इस प्रकार यह मुनी अपने आपके आत्मा की आशातना न करे एवं अन्य जीवों की भी आशातना न करे... एवं अन्य जीवों की आशातना करनेवालों की अनुमोदना भी न करें... अर्थात् अन्य प्राणी, भूत, जीव, एवं सत्त्व याने किसी भी जीव को बाधा-पीडा न हो, उस प्रकार धर्म का उपदेश दे... जैसे कि- लौकिक, कुपावचनिक एवं पासत्था आदि के दान की प्रशंसा करे या अवट याने कूवे, तालाब आदि कार्यों की प्रशंसा करे तो पृथ्वीकायादि के वध की अनुमोदना होवे... और यदि इन कार्यों को दूषित करे तब अंतराय करने के कारण से वे लोग ताडन, तर्जन, यावत् केद की सजा करे... अन्यत्र भी कहा है कि- जो साधु लौकिक कार्यों की प्रशंसा करते हैं; वे प्राणीओं के वध की अनुमोदना करते हैं तथा यदि उन कार्यों का निषेध करतें हैं; तब वे वृत्तिच्छेद के दोष से दूषित होते हैं... .. इस कारण से लौकिक दान एवं कूवे, तालाब आदि के विधि या प्रतिषेध को छोडकर यथावस्थित आगम सूत्रानुसार हि शुद्ध दान-धर्म का उपदेश दें... और निर्दोष (निरवद्य) धर्मानुष्ठान का स्वरूप कहें... इस प्रकार दोनों दोष का परिहार याने त्याग होता है तथा वह साधु जीवों को विश्वासपात्र बनता है... यहां द्वीप का दृष्टांत कहतें हैं... जिस प्रकार समुद्र में डूबते हुए मनुष्यप्राणी को स्थिर द्वीप शरण-आधार होता है, इसी प्रकार वह महामुनी-साधु जीवों की रक्षा . याने अहिंसा के उपदेश के द्वारा मरनेवाले एवं मारनेवालों के आर्त्तध्यान एवं रौद्र ध्यान स्वरूप अध्यवसायों को निवारण करके शुभ विचारवाले बनाकर सच्चे अर्थ में शरण्य होते हैं... जैसे