Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-6-5 - 2 (208) 81 वज्झमाणाणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं, जहा से दीवे असंदीणे, एवं से भवइ सरणं महामुणी, एवं से अट्ठिए ठियप्पा अणिहे अचले चले अबहिल्लेसे परिव्वए संक्खाय पेसलं धम्मं दिट्ठिमं परिणिव्वुडे, तम्हा संगंति पासह गंथेहिं गढिया नरा विसण्णा कामक्कंता तम्हा लूहाओ नो परिवित्तसिज्जा, जस्सिमे आरंभा सव्वओ सव्वप्पयाए सुपरिणाया भवंति जेसिमे लूसिणो नो परिवित्तसंति, से वंता कोहं च माणं च मायं च लोभं च. एस नुट्टे वियाहिए त्तिबेमि // 208 // संस्कृत-छाया : अनुविचिन्त्य भिक्षुः धर्ममाचक्षाण: न आत्मानं आशातयेत्, न परं आशातयेत्, न अन्यान् प्राणिनः भूतान् जीवान् सत्त्वान् आशातयेत्, स: अनाशातकः अनाशातयन् वध्यमानानां प्राणिनां भूतानां जीवानां सत्त्वानां, यथा सः द्वीपः असन्दीनः, एवं स: भवति शरणं महामुनिः, एवं स: उत्थितः स्थितात्मा अस्निहः अचलः अबहिर्लेश्य: परिव्रजेत्, सङ्ख्याय पेशलं धर्मं दृष्टिमान् परिनिर्वृतः, तस्मात् सङ्गं पश्यत, ग्रन्थैः ग्रथिता; नराः विषण्णा: कामाक्रान्ताः, तस्मात् रूक्षात् न परिवित्रसेत् / यस्य इमे आरम्भाः सर्वतः सर्वात्मकतया सुपरिज्ञाताः भवन्ति, येषु इमे लूषिणः न परिवित्रसन्ति, स: वान्त्वा क्रोधं च मानं च मायां च लोभं च एषः तुट्टः (अपसृतः) व्याख्यातः इति ब्रवीमि // 208 // III सूत्रार्थ : हे आर्य ! तू विचार कर के देख कि- धर्म कथा करते समय मुनि अपनी आत्मा तथा . अन्य सुनने वाले श्रोताओं की आशातना-अवहेलना न करे और प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों की भी आशातना न करे। आशातना नही करने वाला मुनि आशातना न करता हुआ, दुःखों से पीडित प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों को द्वीप की तरह आश्रयभूत होता है, अर्थात् संसार समुद्र में डूबते हुए एवं व्यथित प्राणियों को आश्रय देता है। इस तरह ज्ञानादि में स्थित, स्नेहरागभाव से रहित संयम-निष्ठ मुनि परीषहों के समय अविचिलत एवं अप्रतिबन्ध विहारी और संयमानुसार शुद्ध अध्यवसायों में स्थित रहता हुआ संयम में प्रवृत्ति करे। कषायों के क्षयोपशम से धर्म के यथार्थ स्वरूप को जानकर ज्ञान संपन्न मुनि शान्त भाव से आत्म चिन्तन में संलग्न रहता है। हे शिष्यो ! तुम यह देखो कि- जो व्यक्ति सांसारिक पदार्थों में एवं काम भोगों में आसक्त हैं; या काम-भागों ने जिन्हें आक्रान्त-बना रखा है, वह शान्ति नहीं पा सकता है। इसलिए बुद्धिमान साधु-पुरुष, संयमानुष्ठान से भयभीत नहीं होते हैं। जो इन आरम्भादि से सुपरिज्ञात-सुपरिचित होते हैं, वे ही शान्ति को प्राप्त करते हैं। अतः वह संयमी भिक्षु क्रोध, मान, माया और लोभ का त्याग करके इस संसार सागर से पार हो सकता है। यह बात तीर्थंकर