________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका #1-6-4-6 (206) 71 होनेवाली जीव हिंसा से विरत होकर पांच महाव्रतों का स्वीकार करते हैं तथा पांचो इंद्रियों को पंचाचार के द्वारा संयमित करतें हैं... यहां नागार्जुनीय-मतवाले सूत्र इस प्रकार कहतें हैं कि- हम अणगार श्रमण बनेंगे... अकिंचन एवं पुत्र परिवार की ममता छोडकर अहिंसक बनेंगे... पांच महाव्रत, इंद्रियों का दमन तथा परदत्तभोजी होकर पाप कर्म नहि करेंगे... इत्यादि सोच-विचार करके संसार का परित्याग कर संयमी साधु बनतें हैं... किंतु हे शिष्य ! देखो ! बाद में जब अशुभ कर्म का उदय होता है; तब वे साधुजन शृगाल के समान दीनता को धारण करतें हैं; एवं त्याग कीये हुए कामभोग के सुखों की कामना (इच्छा) करते हैं... तथा संयमाचरण रूप पर्वत पर चढने के बाद पापकर्मो के उदय से संसार रूप खाइ (गर्ता) में गिर पडतें हैं... और वशा याने स्त्री अर्थात् पांचो इंद्रियों के विषयों की आशंसा में कषायों से पीडित होते हैं... इस स्थिति में वे अनेक प्रकार के अशुभ कर्मो का बंध करते हैं... अन्यत्र भी कहा है कि- हे भगवन् ! श्रोत्रंद्रिय के विषयों से पीडित प्राणी कितनी कर्म प्रकृतियां बांधते है ? हे गौतम ! आयुष्य को छोडकर सात कर्म प्रकृतियां बांधतें हैं; यावत् इस अपार संसार में परिभ्रमणा करते हैं... हे भगवन् ! क्रोध परवंश हुआ प्राणी कितने कर्म बांधतें हैं ? हे गौतम ! क्रोध करनेवाले प्राणी भी आयुष्य को छोडकर सात कर्म बांधतें हैं, यावत् इस संसार में परिभ्रमणा करते हैं... इसी प्रकार मान आदि के विषय में भी समझीयेगा... तथा परीषह एवं उपसर्ग आने पर कातर याने डरपोक होतें हैं, भयभ्रांत होतें हैं... अथवा कातर याने विषय भोगों के लोलुप होतें हैं... इस परिस्थिति में वे साधु व्रतों को तोडकर महाव्रतों का विनाश करतें हैं, और कहतें हैं कि- इस काल में कौन ऐसा है; जो अट्ठारह हजार शीलांग रथ को वहन कर शके ? इत्यादि सोचकर द्रव्यलिंग याने साधुवेश एवं भावलिंग याने व्रतपरिणाम का त्याग करके जीवहिंसा स्वरूप विराधना के द्वारा विराधक होते हैं... - अब संयमाचरण का त्याग करने के बाद भग्न प्रतिज्ञावाले कितनेक मनुष्य थोडे समय में या अंतर्मुहूर्त में मरण पाते हैं, और कितनेक मनुष्य निंदा के पात्र बनतें हैं... जैसे किदेखो ! स्मशान के लकडे के समान यह मनुष्य भोगों का अभिलाषी होता हुआ जा रहा है... यहां बैठा हुआ है इत्यादि... अतः यह विश्वास के पात्र नहि है... इसीलिये कोइ भी इसका विश्वास न करें; इत्यादि प्रकार से अपने पक्ष के लोगों से या अन्य पक्ष के लोगों से अपयश का अपकीर्ति का पात्र बनता है... अन्यत्र भी कहा है कि- परलोक के विरूद्ध आचरण करनेवालों को दूरसे हि त्याग करें... क्योंकि- जो मनुष्य अपने आपको नहि संभाल शकता वह दुसरों का हित कैसे करेगा ? इत्यादि... अथवा सूत्र के शब्दों से हि कहतें हैं कि- देखो ! यह मनुष्य श्रमण-साधु होने के