Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
View full book text
________________ 52 1 -6- 3 - 3 (200) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन न होवे... क्योंकि- वे साधु प्रतिक्षण विशुद्ध विशुद्धतर चरण-परिणामवाले होकर मोहनीय कर्म के उदय को रोक दे, या निष्फल करे... इस प्रकार से वे लघुकर्मी होतें हैं... और उत्तरोत्तर अध्यवसायों की विशुद्धि से संयम स्थानो के विशुद्ध कंडकों को धारण करते हुए यथाख्यात चारित्र के अभिमुख होतें हैं, अतः उन्हें संयम में अरति नहि हो शकती... इतना हि नहिं; किंतु वे अन्य जीवों को भी अरति से बचातें हैं, प्राणों का रक्षण करते हैं... इस बात की पुष्टि के लिये "द्वीप' का दृष्टांत कहतें हैं... जिस भूमी के दोनों (चारों) तरफ जल हो उसे द्वीप कहते हैं, वह द्वीप द्रव्य एवं भाव के भेद से दो प्रकार का होता है... उनमें द्रव्य द्वीप याने आश्वासन-द्वीप... जहां मनुष्य (प्राणी) आश्वासन-विश्राम ले शके, वह आश्वास-द्वीप... जैसे कि- बडी नदी या समुद्र के बीच उंचा प्रदेश (पर्वतादि) कि- जहां नौका तुट जाने पर मनुष्य आदि प्राणी वहां विश्रामआश्वासन पा शकतें हैं... किंतु वह आश्वास-द्वीप पुनः दो प्रकार से होता है..... 1. संदीन आश्वास द्वीप कि- जो पक्ष या महिने के बात विनष्ट हो जाता है, या जल में डूब जाता है जैसे कि- बर्फ की बडी शिला या छोटी उंचाइवाला पर्वत... . 2. असंदीन आश्वास द्वीप... जैसे कि- सिंहलद्वीप आदि... क्यों कि- समुद्र में यात्रा करनेवाले सांयात्रिक उन असंदीन द्वीपों को पाकर आश्वासन पाते हैं... विश्राम लेतें है... इसी प्रकार भाव द्वीप स्वरूप वह साधु महात्मा अन्य प्राणी-मनुष्यों को आश्वासन-आधार देते हैं... अथवा "दीव" याने दीप = प्रकाश-दीपक... वह भी संदीन एवं असंदीन भेद से दो प्रकार का है... उनमें सूर्य, चंद्र, मणी रत्न आदि असंदीन हैं... और इससे विपरीत बिजली उल्का आदि संदीन हैं... अर्थात् प्राप्त इंधनानुसार मर्यादित समय रहनेवाला दीपक संदीन दीप है और चिरकाल रहनेवाले सूर्य-चंद्रादि असंदीन दीप हैं... जैसे कि- दीवादांडी समुद्र में जल की उंडाइ एवं पर्वतादि के खडकों का संकेत करके समुद्र-यात्रीओं को सुरक्षा प्रदान करती है... इसी प्रकार ज्ञान के संधान याने केवलज्ञान के लिये उद्यमशील साधु परीषह एवं उपसर्गो से क्षोभ नहिं पातें; अत: वे असंदीन भाव द्वीपदीप हैं... क्योंकि- वे अपने आत्महित के साथ साथ विशिष्ट प्रकार के धर्मोपदेश के द्वारा अन्य जीवों को उपकारक होतें हैं... इत्यादि... कितनेक आचार्य भाव द्वीप या भावदीप का स्वरूप अन्य प्रकार से कहते हैं... जैसे . कि- भावद्वीप सम्यक्त्व है... और वह यदि औपशमिक या क्षायोपशमिक हो तो संदीन भाव द्वीप है, किंतु यदि वह सम्यक्त्व क्षायिक हो; तब असंदीन है... अतः इन दोनो प्रकार के