Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 6 - 3 - 3 (200) 51 एवं ते सिस्सा दिया य राओ य अणुपुव्वेण वाइय तिबेमि // 200 // // संस्कृत-छाया : विरतं भिक्षु रीयमाणं चिररात्रोषितं अरतिः तत्र किं विधारयेत् ? सन्दधानः समुत्थितः, यथा सः द्वीपः असन्दीनः एवं सः धर्मः आर्यप्रदेशितः ते अनवकाङ्क्षमाणाः प्राणिनः अनतिपातयन्तः दयिता: मेधाविनः पण्डिताः, एवं तेषां भगवतः अनुष्ठाने, यथा सः द्विज-पोतः, एनं ते शिष्याः दिवा वा रात्रौ वा अनुपूर्वेण वाचिताः इति ब्रवीमि // 200 // // सूत्रार्थ : सावध व्यापार से निवृत्त और संयम मार्ग में विचरते हुए मिक्षु-जो चिर काल से संयम में अवस्थित है, उन को भी क्या अरति उत्पन्न हो सकती है ? हां, कर्म की विचित्रता के कारण उन्हें भी संयम में अरति हो सकती है। परन्तु, संयम निष्ठ मुनि को अरति उत्पन्न नही होती है, क्योंकि- उत्कृष्ट संयम में आत्मा को जोड़ने वाला, सम्यक् प्रकार से संयम में यत्नशील मुनि असन्दीन (कभी भी जल में नहीं डूबने वाले) द्वीप की तरह सभी जीवों का रक्षक होता है, इसी प्रकार यह तीर्थंकर प्रणीत धर्म भी द्वीप तुल्य होने से जीवों का रक्षक है। तथा वह साधु भोगेच्छा से रहित होता है एवं प्राणियों के प्राणों का उत्पीड़िन नहीं करता तथा जगत प्रिय-वल्लभ, मेधावी और पंडित है। परन्तु; जो साधु जिनागमोपविष्ट धर्म में स्थिर चित्तवाले नहीं हैं, ऐसे साधकों को भी आचार्यादि गुरुजन दिन और रात्रि में अनुलोम वाचनादि के द्वारा रत्नत्रय का यथार्थ बोध करवा कर संसार समुद्र से तैरने के योग्य बनाते हैं। इस प्रकार मैं तुम्हें कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : असंयम से विरत एवं भिक्षणशील साधु, असंयम के स्थानों से निकलकर प्रशस्त स्थानो में गुणो के उत्कर्ष के साथ दिन-रात संयमाचरण में हि रहनेवाले साधु को क्या ? संयमानुष्ठान में कभी अरति याने उद्विग्नता होवे ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं किहां ! कभी कभी ऐसा भी हो शकता है, क्योंकि- इंद्रियां अविनीत हैं तथा मोहशक्ति भी अचिन्त्य है और कर्मो की परिणति भी विचित्र है, अतः ऐसी विषम स्थिति में असंभव क्या है ? अर्थात् साधु को अरति हो शकती है... अन्यत्र भी कहा है कि- गाढ़ चिकने एवं वज्र के समान निबिड निकाचित कर्मो का उदय ज्ञानीओं को भी मार्ग से विचलित कर शकता है... ____अथवा तो पूर्वोक्त सूत्र पदों का अर्थ इस प्रकार करे... क्या ऐसे पूर्वोक्त स्वरूपवाले साधुओं को संयम में अरति होती है ? अर्थात् संयत विरत साधुओं को संयमानुष्ठान में अरति