Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 50 1 -6-3-3 (200) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन %3 की तरह तैर चुके हैं तथा मुक्त होनेवालों की तरह मुक्त हो चुके हैं; वे हि विरत हैं... अब . यहां यह प्रश्न होता है कि- क्या पूर्वोक्त विशेषण वाले मुनी को विषम कर्मो के उदय में अरति होती है या नहिं ? क्योकि- अचिंत्य सामर्थ्यवाले कर्मो से अभिभव याने पीडा तो हो शकती है न ? इस प्रश्न का उत्तर सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... v सूत्रसार : संसार में दो प्रकार का परिवर्द्धन होता है- 1. शरीर और २-भव भ्रमण। शरीर का परिवर्धन प्रकाम-गरिष्ठ एवं पौष्टिक भोजन पर आधारित है और भव भ्रमण का प्रवाह रागद्वेष एवं विषय-वासना के आसेवन से बढ़ता है। मुनि का जीवन त्याग का जीवन है। वह भोजन करता है, वस्त्र पहनता है, मकान में रहता है, फिर भी इनमें आसक्त नहीं रहता। क्योंकि- वह इन्हें केवल संयम पालन के साधन मानता है; अतः संयम-साधना को शुद्ध रखने के लिए वह साधु सदा-सर्वदा सात्विक भोजन एवं वस्त्रादि लेकर समभाव से संयम का पालन करता है और कभी समय पर यथाविधि शुद्ध-एषणीय आहार आदि उपलब्ध न होने पर भी वह किसी प्रकार की चिन्ता उद्वेग नहीं करता है। वह इन सभी परीषहों को समभाव पूर्वक सहन करता है। इस प्रकार अनेक परीषहों को सहन करने से उसके शरीर का मांस शुष्क हो जाता है। उसका शरीर कृश-दुबला-पतला हो जाता है; परन्तु सहन शक्ति धैर्य के साथ समभाव की धारा प्रवहमान रहने के कारण वह पूर्व बद्ध कर्मों को क्षय करके कर्म के बोझ से भी हलुआ हो जाता है। इससे वह जन्म-मरण की परम्परा को परिवर्द्धित करने वाले राग-द्वेष का क्षय करके अजर-अमर पद को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार वह द्रव्य और भाव दोनों प्रकार के संसार-परिवर्द्धन को समाप्त करके भव सागर से पार हो जाता है। इससे स्पष्ट हो गया कि- ज्ञान, दर्शन एवं चरित्र से संपन्न साधक समभाव पूर्वक परीषहों को सहन करने में समर्थ होता है। इससे उसकी संयम-साधना में तेजस्विता आती है और वह संसार परिभ्रमण को घटाता रहता है। इस प्रकार परीषहों को सहन करने से उसकी आत्मा का विकास होता है। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 3 // // 200 // 1-6-3-3 विरयं भिक्खं रीयंतं चिरराओसियं अरई तत्थ किं विधारए ? संधेमाणे समुट्ठिए, . जहा से दीवे असंदीणे, एवं से धम्मे आरियपदेसिए, ते अनवकंखमाणा पाणे अनइवाएमाणा जइया मेहाविणो पंडिया, एवं तेसिं भगवओ अणुट्ठाणे जहा से दियापोए,