Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका #1-6-3-3 (200) 55 तब बडे भाइ मुनी ने हृदय से (मनोमन) देवता से कहा कि- यह तो अज्ञ है, आपने इसको क्यों कष्ट पहुंचाया ? इसकी आंखे अब पुनः नयी बना दो... तब वह देवता बोले कि- जीव प्रदेश से मुक्त ऐसे यह अक्षिगोलक अब नये करने शक्य नहि है...इत्यादि कहकर और ऋषि का वचन अलंघनीय है; ऐसा मानकर उसी वख्त कीसी चांडालने मारे हुए बकरे के अक्षिगोलक लाकर उस छोटे भाइ मुनी की आंखे ठीक कर दी... इस प्रकार आज्ञा के सिवा धर्मानुष्ठान * करना “अपाय' है; ऐसा मानकर शिष्य सदा आचार्य के उपदेशानुसार हि धर्मानुष्ठान करें, और आचार्य भी सदा स्व परके उपकार करनेवाले होनेसे अपने शिष्यों को यथोक्तविधि से सम्यक् याने अच्छी प्रकार से पालन-रक्षण करें... इत्यादि.... ___ अब इस दृष्टांत का उपसंहार करते हुए कहते हैं कि- जिस प्रकार वह पक्षी का बच्चा मात-पिता से पाला जाता है, बस, उसी हि प्रकार से आचार्य भी शिष्यों को अनुक्रम से सूत्रार्थ पढावें एवं आसेवन (आचरण) की शिक्षा दें और समस्त कार्यों में सहिष्णु बनावें तथा संसार समुद्र को पार उतरने के लिये समर्थ बनावें... इति शब्द यहां अधिकार के समाप्ति का सूचक है, एवं “ब्रवीमि' पद का अर्थ पूर्ववत् जानीयेगा... वह इस प्रकार... पंचम गणधर श्री सुधर्मस्वामीजी अपने शिष्य श्री जंबूस्वामीजी को कहते हैं कि- समवसरण में बारह पर्षदाओं को श्री वर्धमानस्वामीजी ने जो पंचाचार कहा था, वह पंचाचार हे जंबू ! मैं तुम्हे कहता हुं... V सूत्रसार : __ आगमों में मोह कर्म को शेष सभी कर्मों से प्रबल माना है। जिस समय मोहनीय कर्म का उदय होता है, उस समय मुमुक्षु-साधु संयम-साधना पथसे भ्रमित होता है। इसी बात को बताते हुए, प्रस्तुत सूत्र में कहा गया है कि- मोह कर्म के उदय से साधक के मन में आर्त्तध्यान एवं रौद्रध्यान रूप चिन्ता-पीडा उत्पन्न हो सकती है। किंतु इस दुर्ध्यान को धर्मध्यान के द्वारा दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए। तथा अपने मन को विषय-वासना एवं पदार्थों की आसक्ति से हटाकर संयम में लगाना चाहिए। एवं अपने चिन्तन की धारा को रत्न-त्रय की साधना में मोड देना चाहिए। जिससे साधु का मन संयम में तथा ज्ञान एवं दर्शन की साधना में संलग्न हो सके। इस प्रकार वीतराग प्रभु की आज्ञा के अनुसार संयम में संलग्न रहनेवाला साधक कभी भी अपने पथ से भ्रमित नहि होता है। वह संयम संपन्न मुनि सभी प्राणियों के लिए आश्रयभूत होता है। जैसे समुद्र में भटकनेवाले प्राणियों की रक्षा द्वीप करता है, उन्हें आश्रय देता है, उसी प्रकार संयमशील साधक सभी प्राणियों की दया, रक्षा करता है। संयम सभी जीवों को अभय प्रदाता है। इससे बढकर संसार में कोई और आश्रय या शरण नहीं है। उत्तराध्ययन सूत्र में केशीश्रमण के एक प्रश्न का उत्तर देते हुए गौतम स्वामी ने भी यही कहा है कि “संसार सागर में भटकने वाले प्राणी के लिए धर्म-द्वीप ही सब से श्रेष्ठ आश्रय है, उत्तम शरण है।"