Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-6- 3 - 3 (200) 53 भावद्वीप को पाकर परीतसंसारी याने लघुकर्मी जीव आश्वासन प्राप्त करतें हैं... तथा भावदीप ज्ञान है... वह भी यदि केवलज्ञान हो तो असंदीन भावदीप कहलाता है, और यदि श्रुतज्ञान हो तब वह संदीन भावदीप है... क्योंकि- इन दोनों प्रकार के भावदीप को पाकर प्राणी अवश्य आश्वासन पाते हैं... अथवा धर्माचरण के लिये तत्पर बने हुए उन साधुओं को कभी अरति का उपद्रव हो... तब वे असंदीन याने अक्षुब्ध याने अचल रहें... जैसे कि- समुद्र में असंदीन द्वीप जल में डूबता नहि है, और समुद्र के यात्री-जनों को आश्रय देकर आश्वास का हेतु बनता है, बस, उसी तरह तीर्थंकरों के कहे हुए कष, ताप एवं छेद परीक्षा से सुविशुद्ध धर्माचरणवाले वे साधु भी असंदीन भावद्वीप हैं... अथवा अन्य मतवालों के कुतर्को से पराभव नहि पाने वाले वे साधु असंदीन द्वीप की तरह प्राणीओं का रक्षण के लिये आश्वासभावद्वीप होतें हैं अब यहां यह प्रश्न उठता है कि- क्या तीर्थंकरों ने कहे हुए धर्म का सम्यग् अनुष्ठान करनेवाले साधु होतें हैं ? यदि "हां" तो वे कैसे होते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए सूत्रकार कहतें हैं कि- आत्मभाव के संधान के लिये उद्यमशील ऐसे वे साधु संयम में कभी अरति का उपद्रव हो तो भी थोडे हि समय में मोक्षपद पानेवाले वे कामभोगों की चाहना न करते हुए धर्माचरण में हि सम्यग् प्रकार से उद्यमशील होते हैं... तथा वे साधु प्राणीओं का वध नहि करतें, जूठ नहि बोलतें, अदत्त नहि लेते, अब्रह्म का सेवन नहिं करतें और परिग्रह को भी धारण नहि करतें... किंतु कुशलानुष्ठान में प्रवृत्त होने के कारण से सभी जीवों को वल्लभप्यारे होते हैं... तथा मेधावी याने मर्यादा में रहे हुए, पंडित याने पापाचरण का त्याग करके वस्तु-पदार्थों के स्वरूप को अच्छी तरह से जाननेवाले वे साधु धर्माचरण के लिये उद्यमशील होतें हैं..... तथा जो कोइ साधु तथा प्रकार के ज्ञान के अभाव में विवेक की विकलता के कारण से अभी भी पूर्वोक्त प्रकार से संयमाचरण में उद्यमशील एवं विवेकी नहि हुए हैं, उनको आचार्यादि गुरूजन जब तक विवेकी न बने तब तक हितशिक्षा दें... यह बात अब सूत्र के पदों से कहते हैं... जैसे कि- भगवान् श्री वर्धमानस्वामीजी ने कहे हुए धर्मानुष्ठान में सम्यक् प्रकार से उद्यम नहि करने वाले अपरिकर्मित मतीवाले याने अविवेकी ऐसे उन साधुओं का पालन-रक्षण करने के साथ सदुपदेश के द्वारा उनको परिकर्मित मतीवाले याने विवेकी बनावें... इस बात के समर्थन के लिये यहां एक दृष्टांत कहतें हैं... जैसे कि- पक्षी अपने बच्चों को जन्म देने के बाद अंडकावस्था से लेकर परिपक्व पांखो से उडकर अपने स्वयं की सुरक्षा कर न शके तब तक की सभी अवस्थाओं में पालन-रक्षण करता है, बस, ठीक इसी प्रकार आचार्य भी नवदीक्षित साधु को प्रव्रज्या प्रदान से लेकर सामाचारी का उपदेश देकर एवं सूत्रों