Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 34 1 -6-2-3 (196) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन मोहोदय के कारण वे एकदम अकस्मात् पंचाचारात्मक संयम-पथ से भ्रमित हो जाते हैं... इस तरह वे विवेक विकल साधक पुन्योदय से प्राप्त चिन्तामणि (संयम) रत्न को फेंक देते हैं। वे संयम का त्याग कर असंयत हो जाते हैं। कुछ साधक महाव्रतों का त्याग कर देशव्रत में स्थिर होते हैं... कुछ साधक सम्यग् दर्शन-सम्यक्त्व में स्थिर रहते हैं... परन्तु, कुछ साधक सम्यगदर्शन श्रद्धा से भी भ्रमित होकर मिथ्यात्वभाव से विषय-कषाय में आसक्त होकर अनन्त काल तक संसार में परिभ्रमण करते हैं। वे भोगेच्छा की तृष्णा से संयम का परित्याग करते हैं और रात-दिन भोगों में आसक्त रहते हैं, फिर भी उनकी भोगेच्छा कभी भी पूरी नहीं होती। क्योंकि- इच्छा, तृष्णा एवं कामना अनन्त है, अपरिमित है और जीवन या आयु सीमित है। इसलिए भोगासक्त व्यक्ति सदा अतृप्त ही रहता है। मृत्यु के अन्तिम क्षण तक उसकी आकांक्षाएं, तृष्णाएं एवं वासनाएं अतृप्त .. ही रहती हैं और वह भोगोपभोग की तृष्णा में हि अपनी आयु को समाप्त कर देता है और उस कामभोग की वासना से आबद्ध कर्मों के अनुसार संसार में परिभ्रमण करता रहता है। अतः साधु को विषय-वासना के प्रवाह में नहीं बहना चाहिए और परीषहों के समय भी संयमभाव में दृढ एवं स्थिर रहना चाहिए; ऐसे साधु के जीवन का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 3 // // 196 // 1-6-2-3 अहेगे धम्ममायाय आयाणप्पभिइसु पणिहिए चरे, अप्पलीयमाणे दढे सव्वं गिद्धिं परिण्णाय, पणए महामुणी, अइअच्च सव्वओ संगं न महं अत्थित्ति इय एगो अहं अस्सिं जयमाणे इत्थ विरए अणगारे सव्वओ मुंडे रीयंते, जे अचेले परिवुसिए संचिक्खइ ओमोयरियाए से आकुट्टे वा हए वा लुंचिए वा पलियं पकत्थ अदुवा पकत्थ अतहेहिं सद्दफासेहिं इय संखाए एगयरे अण्णयरे अभिण्णाय तितिक्खमाणे परिव्वए, जे य हिरी जे य अहिरीमाणा // 196 // // संस्कृत-छाया : अथ एके धर्म आदाय आदानप्रभृतिषु प्रणिहिताः चरेयुः / अप्रलीयमानाः दृढाः सर्वां गृद्धिं परिज्ञाय एषः प्रणत: महामुनिः अतिगत्य सर्वतः सङ्गं, न मम अस्ति इति, इति एकः अहं अस्मिन् यतमानः अत्र विरत: अनगारः सर्वतः मुण्डः रीयमाणः यः अचेलः पर्युषितः संतिष्ठते अवमोदर्ये, स: आकृष्टः वा हतः वा लुञ्चितः वा, कर्म प्रकथ्य अथवा प्रकथ्य अतथ्यैः शब्दस्पर्शः इति सङ्ख्याय एकतरान् अन्यतरान् अभिज्ञाय तितिक्षमाणः परिव्रजेत् ये च ह्रीरूपाः ये च अह्रीमनसश्च // 196 //