Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 36 1-6- 2 - 3 (196) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन तथा वे मुनी पुत्र एवं पत्नी आदि से होनेवाले सभी प्रकार के स्नेह-संबंध को या कामभोग की इच्छा को त्याग करके ऐसा चिंतन-विचार करतें हैं कि- "इस संसार में डूबते हुए मुझे बचानेवाला सर्वज्ञोपदिष्ट पंचाचारात्मक चारित्र धर्म के सिवा और कोइ नहि है; अत: इस संसार में मैं अकेला हि हुं अर्थात् मेरा कोइ नहि है और मैं भी अन्य किसी का नहि हुं"... इत्यादि एकत्व भावना से भावित अंत:करणवाला वह मुनी जिनेश्वर के प्रवचन याने शासन में पापाचरण का सर्वथा त्याग करके दशविध चक्रवाल साधु सामाचारी में प्रयत्न करनेवाला दीक्षित वह अणगार (मुनी) एकत्व भावना को भावित करता हुआ ऊणोदरी याने धर्मोपकरणों की भी इच्छाओं का संक्षेप करता हुआ संवरभाव में रहता है... . तथा द्रव्य से एवं भाव से मुंडित हुआ वह साधु संयमानुष्ठान में उद्यम करता हुआ अल्पवस्त्रवाला स्थविर कल्प या जिनकल्पिक बना हुआ संयम में उपयोगवाला एवं अंत-प्रांत .. (तुच्छ एवं असार) आहारादि को मात्र संयम-देह के निर्वाह के लिये हि वापरतें हैं, और वह भी भरपूर पेट नहि; किंतु ऊणोदरी याने अल्प आहार लेते हैं... इस प्रकार संयमाचरण में रहे हुए उन साधुओं को कोइक दुष्ट मनुष्य कठोर वचनों से आक्रोश-तिरस्कार करे, या दंडादि से मारे या बालों को उखेडकर खेंच निकाले तब वे सोचे कि- यह सभी कष्ट पूर्वकृत कर्मो के हि फल है ऐसा जानते हुए उन कष्टों को समभाव से सहन करें... एवं संयमाचरण में लीन-दृढ रहें... और ऐसा चिंतन करे कि- “पूर्व काल में कीये हुए अशुभ कर्मो का विनाश या तो प्रतिक्रमण से हो, या दुःखों को समभाव से सहन करने से हो या तो तपश्चर्या के द्वारा क्षय करने से आत्मा को कर्मो से मुक्ति मीलती है..." इत्यादि सोचे, विचारे, चिन्तन करें.. तथा कभी कोइ अज्ञानी मनुष्य कठोर वाणी से आक्रोश द्वारा तिरस्कार करता हुआ कहे कि- "हे कोकिल ! हे प्रव्रजित ! तुं भी मेरे सामने बोलता है;" इत्यादि... अथवा जकार या चकार वाली भाषा से या अन्य अस्पष्ट भाषा से निंदा- तिरस्कार करे... अथवा गलतजुठे भाव से कहे कि- “तुं चौर हैं, तुं परस्त्री गमन करनेवाला है..." इत्यादि शब्दों के द्वारा आक्रोश करे तथा हाथ-पैर के छेदन-भेदनादि के द्वारा कठोर स्पर्श जन्य कष्ट पहुंचावे तब वह साधु सोचे कि- “यह कष्ट, मेरे कीये हुए अशुभ कर्मो का हि फल है...” इत्यादि चिंतन करके उन कष्टों को समभाव से सहन करता हुआ संयमानुष्ठान में दृढ-लीन रहे... छद्मस्थ मुनी उदयागतकर्मानुसार उत्पन्न कष्ट-परीषह-उपसर्गों को पांच प्रकार की . विभावना के द्वारा प्रशमभाव से सहन करे, क्षमा करे, वह इस प्रकार१. यह पुरुष यक्षाविष्ट है... 2. यह पुरुष उन्मादवाला है,