Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 6 - 3 - 1(11) 45 अथवा छोटे वस्त्र में अन्य टुकडा जोडकर वस्त्र को बडा बनाउंगा... अथवा वस्त्र बडा (लंबा) होगा तो टुकडा अलग निकालुंगा... और ऐसा करने के बाद उसे पहनुंगा तथा ओढुंगा... इत्यादि प्रकार से आर्तध्यान होवे; तब विशेष प्रकार से पंचाचारात्मक धर्माचरण में तत्पर होकर साधु आर्तध्यान से अपने चित्त को कलुषित न होने दें... - अथवा जिनकल्पिक साधु के अभिप्राय से इस सूत्र की इस प्रकार व्याख्या कीजीयेगा... जैसे कि- अचेल याने वस्त्र रहित तथा अच्छिद्र हाथवाले होने से पाणिपात्र याने सात प्रकार के पात्र के उपकरण से रहित अर्थात् अभिग्रह के अनुसार तीन वस्त्र एवं सात पात्रोपकरणो से रहित मात्र रजोहरण एवं मुहपत्ती स्वरूप दो उपकरणवाले उस अचेल साधु को “वस्त्र जीर्ण हुए है" इत्यादि वस्त्र विषयक आर्तध्यान नहि होता है... क्योंकि- धर्मी (वस्त्र) के अभाव में धर्म (आर्तध्यान) का अभाव होता है, तथा अचेल होने के कारण से अन्य नये वस्त्र की याचना करुंगा इत्यादि आर्तध्यान भी न हो... किंतु जो जिनकल्पिक साधु छिद्रहाथवाले हैं; वे पात्र के सात उपकरणवाले होतें हैं और तीन वस्त्रों में से अन्यतर कोइ भी वस्त्रवाले हो, तब वह मुनी वस्त्र जीर्ण होने पर आर्त्तध्यान न करें, तथा यथाकृत या अल्प परिकर्मवाले वस्त्र लेनेवाले होने से सूइ-धागे का भी अन्वेषण न करें... इत्यादि... तथा तृण-शय्या पर शयन करनेवाले अचेल साधु को कभी तृण के कठोर स्पर्श से शरीर में पीडा हो, तब अदीनमनवाला होकर उन कठोर स्पर्शों को सहन करें... तथा शीत स्पर्श हो या दंशमशक-स्पर्श हो तो भी उन्हें समभाव से सहन करें... बाइस (22) परीषहोंमें से अविरूद्ध ऐसे दंशमशक तृणस्पर्शादि जो भी परीषह होवे उन्हे समभाव से सहन करें... तथा शीत-उष्णादि परीषहों में से जो जो परस्पर विरुद्ध है, उनमें से कोई भी एक हो, अन्य न हो... यहां परीषह शब्द का बहुवचन में प्रयोग कीया गया है, अत: कोइ भी एक परीषह भी तीव्र, मंद, मध्यम आदि अनेक अवस्थावाला होता है... ऐसा जानीयेगा... तथा विरूप याने मन को प्रतिकूल स्वरूपवाले तृणादि के कठोर स्पर्शों में अचेल या अल्प वस्त्रवाला मुनी आर्तध्यान न करते हुए धर्मध्यान में दृढ होकर उन कठोर स्पर्शों को समभाव से सहन करें, और सोचे कि- परीषहों को समभाव से सहन करने से आत्मा के अशुभ कर्मो का विनाश होता है, अर्थात् द्रव्य से उपकरणलाघव एवं भाव से कर्मलाघवता को जानता हुआ वह साधु उन परीषहों को एवं उपसर्गों को समभाव से सहन करता है... यहां नागार्जुनीय-मतवाले आचार्य करतें हैं कि- साधु कर्मक्षय स्वरूप भावलाघवता के लिये उपकरण लाघव एवं तपश्चर्या करता है... तथा उपकरणलाघवता से कर्मलाघवता एवं कर्मलाघवता से उपकरणलाघवता को जानकर तृणादि स्पर्शों को सहन करनेवाले साधु को कायक्लेश स्वरूप बाह्य तप का लाभ