Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 40 1 -6-2-4 (197)" श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन तीर्थंकर परमात्मा कहते हैं कि- “पंचाचारात्मक धर्माचरण को आज्ञानुसार हि पालें..." अथवा धर्मानुष्ठान करनेवाला साधु यह सोचे कि- धर्म हि एक मात्र मेरा है, धर्म के अलावा अन्य सब कुछ पराये है; अतः मैं तीर्थंकर प्रभु की आज्ञानुसार हि अच्छे प्रकार के सभी धर्मानुष्ठान आचरता हु (करता हुं...) ___ यहां जिनशासन में साधुओं को यह अनंतरोक्त उत्कृष्टवाद-सिद्धांत कहा गया है तथा यहां कर्मो के धूनन का उपाय स्वरूप संयमाचरण में जो साधु लीन है; वह आठों प्रकार के कर्मो का क्षय करता हुआ धर्माचरण करता है, तथा कर्मो की मूल प्रकृतियां एवं उत्तर प्रकृतियों को जानकर वह साधु संयम जीवन के पर्याय के उन कर्मो का पंचाचार के द्वारा क्षय करता अब यहां सभी कर्मो के विधूनन (क्षय) के लिये तपश्चर्या हि समर्थ है... तप के दो भेद है... 1. बाह्य तप और 2. अभ्यंतर तप... प्रथम यहां बाह्य तप के अनुसंधान में कहतें हैं कि- यहां प्रवचन याने जिनशासन में लघुकर्मी कितनेक साधुओं को एकाकिविहारप्रतिमा स्वरूप एकचर्या होती है; उसमें विविध प्रकार के अभिग्रह एवं विशेष प्रकार की तपश्चर्याएं होती है... उनमें भी प्राभृतिका का स्वरूप कहतें हैं... जैसे कि- सामान्य अन्य साधुओं से अत्यधिक विशेष प्रकार की एकाकिविहार- प्रतिमा में यह कल्प है कि- अज्ञात एवं अंतप्रांत निर्धन कुल-घरों में शुद्ध-एषणा याने एषणा के दश दोष रहित आहारादि से या सर्वेषणा याने उद्गम- आदि उत्पादन-एषणा एवं ग्रासैषणा (16 दोष+ 16 दोष+ 10 दोष+ 5 दोष = 47 दोष ) से परिशुद्ध विधि से संयमानुष्ठान में लीन रहते हैं... यद्यपि ऐसे जिनकल्पिक साधु अनेक होते हैं तो भी यहां सूत्र में विवक्षा से एकवचन का प्रयोग कीया गया है... ___ अत: कहते हैं कि- वह मेधावी जिनकल्पिक साधु जिनकल्प की मर्यादा में रहकर संयम में उद्यम करता है... तथा अज्ञात घरों से प्राप्त आहारादि सुगंधवाले (अच्छे) हो या दुर्गंधवाले (सामान्य-तुच्छ) हो, तो भी उनमें राग.या द्वेष न करे... तथा एकाकिविहार के कल्प अनुसार पितृवन याने स्मशान में जब प्रतिमा स्वीकार कर के रहते हैं, तब "भैरव" याने भीषण-भयानक भूत-पिशाचादि के शब्द हो, या भैरव याने सिंह वाघ सर्प आदि दीप्त जिह्वावाले हिंसक प्राणी अन्य जीवों को कष्ट देतें हो तब, अथवा हे श्रमण ! वे भयानक प्राणी जब आपको हि कष्ट पहुंचावे तब भी धीर वीर गंभीर होकर उन कष्टों को प्रशमभाव से सहन कीजीयेगा इत्यादि... “इति" पद यहां अधिकार की समाप्ति का सूचक है और “ब्रवीमि" पद का अर्थ पूर्ववत् जानीयेगा... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में साधक को उपदेश दिया गया है कि- वह सदा सहिष्णु बना रहे। वह