Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-6-1 - 5 (190) 19 % 3D परिभ्रमण के कारण एवं उससे मुक्त होने के साधन को जान लेता है। अत: ऐसा महापुरुष ही धर्म का यथार्थ उपदेश दे सकता है। इसी कारण जैनधर्म में तीर्थंकर एवं सर्वज्ञ भगवान की उपदेष्टा माना गया है। छद्मस्थ साधकों का उपदेश तीर्थंकर भगवान द्वारा प्ररूपित प्रवचन या आगम के आधार पर होता है, स्वतन्त्र रूप से नहीं। क्योंकि- सर्वज्ञ सभी पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को देखता है, इसलिए उनके उपदेश में कहीं भी विपरीतता नहीं आ पाती। उनमें राग-द्वेष का अभाव होने से उनका उपदेश प्राणी जगत के लिए हितप्रद एवं कल्याणकारी होता है। सर्वज्ञ पुरुष राग-द्वेष के विजेता है। अत: उनके उपदेश में भेद-भाव नहीं होता। त्यागीभिक्षु एवं भोगी-गृहस्थ हो, धनी या निर्धन हो, स्त्री या पुरुष हो, सभी जीवों को उपदेश सुनने का अधिकार है। जैन धर्म में मात्र गुणों को एवं आचरण को महत्त्व दिया गया है; प्रत्येक वर्ग, जाति एवं देश का व्यक्ति अपने आचरण को शुद्ध बनाकर अपनी आत्मा का विकास कर सकता है। अतः धर्म निष्ठा एवं जिज्ञासा की भावना लेकर सुनने वाला कोई भी मनुष्य-व्यक्ति अपनी आत्मा का विकास कर सकता है। इस प्रकार श्रद्धा-निष्ठ व्यक्ति वीतराग प्रभु का प्रवचन सुनकर अपने जीवन को आरम्भ-समारम्भ से निवृत्त करके तप, संयम एवं ज्ञान साधना में लगा देते हैं। अत: वे महापुरुष दंड से सर्वथा निवृत्त होकर श्रुतसम्पन्न बनकर त्याग पथ पर गतिशील होते हैं। परन्तु, सभी श्रोता एक समान नहीं होते हैं। कुछ, श्रद्धानिष्ठ प्राणी भगवान का प्रवचन सुनकर तप-संयम के द्वारा कर्म-बन्धन तोड़ने का प्रयत्न करते हैं और प्रतिक्षण निष्कर्म बनने की साधना में संलग्न रहते हैं। किन्तु, कुछ व्यक्ति मोह कर्म से इतने आवृत्त होते हैं कित्याग-वैराग्य के पथ पर भली-भांति चल नहीं सकते। वे मोहांध पुरुष विषय-भोग एवं पदार्थों की आसक्ति को त्याग नहीं सकते। जैसे शैवाल से आच्छादित सरोवर में स्थित कछुआ उक्त सरोवर से बाहिर निकलने का मार्ग जल्दी नहीं पा सकता। उसी प्रकार मोह कर्म से आवृत्त व्यक्ति संसार सागर से ऊपर नहीं उठ सकता, तप-त्याग की ओर अपने आप को नहीं बढ़ा सकता। तप संयम की साधना के लिए मोह कर्म का क्षय या क्षयोपशम करना आवश्यक इस प्रकार विषय-वासना में आसक्त व्यक्ति कर्म बन्धन एवं कर्म जन्य दुःखों से छुटकारा नहीं पा सकते। क्योंकि विषय-वासना एवं आरम्भ-समारम्भ में संलग्न रहने के कारण वे पाप कर्म का बन्ध करते हैं और परिणाम स्वरूप दुःख के प्रवाह में प्रवहमान रहते हैं। वे जन्म-मरण के दुःख एवं व्याधियों से संतप्त रहते हैं। सामान्यतया रोग-व्याधियों की कोई परिमित संख्या नहीं है। फिर भी प्रमुख रोग 16 प्रकार के माने गए है। उनका नाम निर्देश करते हुए सूत्रकार ने लिखा है