Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 14 // 1-6-1-5 (190) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन उदके उदकचरा: आकाशगामिनः प्राणिनः, अन्यान् प्राणिनः क्लेशयन्ति / पश्य लोके महद्भयम् // 190 // III सूत्रार्थ : हे शिष्यो ! तुम कर्म विपाक के यथावस्थित स्वरूप को मुझ से सुनो ! संसार में द्रव्यचक्षु रहित या भावचक्षु रहित जीव कहे गये हैं, वे उन रोगादि अवस्थाओं में दुःखों का अनुभव कर रहे हैं। नरकादि गतियों में एक बार या अनेक बार विविध प्रकार के दुःख का अनुभव करते हैं। यह अनन्तरोक्त बात-उपदेश-तीर्थकरों ने प्रतिपादन किया है। द्वीन्द्रियादि जीव या रसको जाननेवाले संज्ञी जीव तथा अप्काय जलरूप जीव, जल में रहनेवाले त्रस जीव और आकाश में उडनेवाले पक्षी, संसार में जितने जीव है, उनमें बलवान निर्बलों को पीडितदुःखित करते हैं। हे शिष्यो ! तुम संसार के दुःखों से उत्पन्न हुए महाभय को देखो अथवा हे शिष्य ! तू संसार रूप महाभय को देख। IV टीका-अनुवाद : उन कर्मो का विपाक (फल) जैसा है; वैसा हि यथावस्थित स्वरूप जो मैं कहुं वह आप सुनीयेगा... जैसे कि- इस संसार में नारक तिर्यंच मनुष्य एवं देव स्वरूप चार गतियां हैं... वहां नरकंगति में चार लाख (4,00,000) योनीयां हैं, एवं पच्चीस लाख (25,00,000) कुलकोटी है... और उत्कृष्ट आयुष्य तैंतीस (33) सागरोपम प्रमाण कहा गया है... तथा वेदना (दुःख-पीडा) कि- जो परमाधामी देवों के द्वारा, परस्पर एक दुसरों को दुःख पहुंचाने के द्वारा एवं स्वाभाविक हि क्षेत्र से होनेवाले दुःखों का वर्णन तो वाणी से कभी भी पूर्ण रूप से कहा न जा शके उतनी तीव्र वेदना-पीडा नारकों को नरक गतिमें होती है... यद्यपि कोइ सज्जन नारकी के अंशमात्र दुःखों के स्वरूप को कहना चाहे तो भी वह दुःख वाणी कहा नहि जा शकता, तो भी विषम कर्मो के विपाक (दुःख) को जानने से भवभीरु (मुमुक्षु) जीवों को संसार से वैराग्य हो, इस दृष्टि से छह (6) श्लोकों के द्वारा टीकाकार महर्षि श्री शीलांकाचार्यजी म. नारकों के दुःखों का वर्णन करतें हैं... नरक भूमी में नारक जीवों के कान का कटना, आंखो को उखेडना, हाथ-पैर कटना, हृदय जलाना, नासिका का छेदन इत्यादि कष्ट-दुःख प्रतिक्षण होता है, तथा तीक्ष्ण त्रिशूल से शरीर का भेदन एवं भयानक कंक-पक्षीओं के विकराल मुख से चारों और से भक्षण होना इत्यादि... // 1 // ___ तथा तीक्ष्ण तरवार, चमकते हुए भाले, एवं विषम कुहाडे के समूहों से तथा फरसी त्रिशूल मुद्गर तोमर वांसले और मुसंढीओं के द्वारा चारों और से तालु, मस्तक का छेदन,