Book Title: Paramparagat Prakrit Vyakarana ki Samiksha
Author(s): K R Chandra
Publisher: Prakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परंपरागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी डॉ. के. आर. चन्द्र प्राकृत जैन विद्या विकास फंड अहमदाबाद १९९५ Education International Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्या विकास फड ग्रंथांक - ११ परंपरागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी डॉ. के. आर. चन्द्र भूतपूर्व अध्यक्ष प्राकृत–पालि विभाग भाषा साहित्य भवन गुजरात युनिवर्सिटी अहमदाबाद-३८००९ प्राकत जैन विद्या विकास फंड अहमदाबाद १९९५ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक डॉ. के. आर. चन्द्र मानद मंत्री प्राकृत जैन विद्या विकास फंड ३७५ सरस्वती नगर अहमदाबाद-३८००१५ प्रत : ५०० ई. स. १९९५ मूल्य : रू. ५०-०० मुद्रक गायत्री लेबर प्रिन्टर्स ४३/A शंकर मगर नवा वाडज अहमदाबाद-३८००१३ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय आनन्द का विषय है कि हमारी संस्था का ग्यारहवाँ ग्रंथ प्रकाशित हो रहा है । इस ग्रंथ का मुख्य विषय हैं परंपरागत प्राकृत भाषा के नियमों की समीक्षा और अर्धमागधी जैसी प्राचीन भाषा पर वे किस सीमा तक लागू होते हैं। आगे प्रस्तावना में इसे स्पष्ट किया गया है । इस प्रकार के विद्याकीय कार्यों में पं. श्री दलसुखभाई मालवणिया और डॉ. श्री ह. चु. भायाणी का निरन्तर जो मार्गदर्शन और सहयोग मिलता रहा हैं, उसके लिए मैं और हमारी संस्था उनकी अत्यन्त आभारी हैं । डॉ. भायाणी ने इस पुस्तक के विषय में जो अभिप्राय लिखा है उसका भी हम आभार मानते हैं । इस संस्था के उत्साही प्रमुख श्री बी. एम. बालर भी धन्यवाद के पात्र हैं जो संस्था के ऐसे कार्यों में हृदयपूर्वक सहयोग देते रहते हैं । विगत वर्षों में श्रेष्टी कस्तूरभाई लालभाई स्मारक निधि ने आर्थिक सहायता देकर हमारी संस्था को जो प्रोत्साहन दिया है उसका भी हम आभार मानते हैं । इस संस्था में कार्य करने वाली कु. शोभना आर शाह भी उसके सहयोग के लिए हमारे धन्यवाद की पात्र है । इस ग्रंथ के मुद्रण के लिए श्री पिताम्बरभाई जे. मिश्रा, गायत्री लेबर प्रिन्टर्स और मुद्रणालय के कार्यकर्ताओं का भी हम आभार मानते हैं । अहमदाबाद के. आर. चन्द्र मानद मंत्री Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना रंपरागत प्राकृत व्याकरण का तात्पर्य है व्याकरण संबंधी जो नियम परंपरा से प्राप्त हुए हैं उनकी समीक्षा की गयी है। उपलब्ध प्राकृत साहित्य और प्राकृत शिलालेखों में भाषाका जो स्वरूप मिलता है उसको ध्यान में लेते हुए व्याकरण के अमुक नियमों की समीक्षा की गयी है कि वे कहाँ तक उनपर लाग होते हैं। क्या ये नियम सभी प्राकृत भाषाओं पर समान रूप से लाग होते हैं और अर्धमागधी जैसी प्राचीन भाषा के लिए ये नियम कहाँ तक उपयुक्त हैं यह भी चर्चा की गयी है । उदाहरण के तौर पर ध्वनिपरिवर्तन के नियम(1) मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजनों का प्रायः लोप, दन्त्य नकार का ... णकार में परिवर्तन, मूर्धन्य ळकार का प्रयोग । (2) एक ही कारक की विभक्ति के लिए एक से अधिक प्रत्यय मिलते हैं। क्या वे विभिन्न काल की सभी प्राकृतों के लिए उपयुक्त हैं या नहीं। उनमें से कौन से प्राचीन प्राकृत भाषा के लिए और कौन से उत्तरवर्ती प्राकृत भाषा के लिए उपयुक्त ठहरते हैं । प्राचीन प्राकृत और उत्तरवर्ती प्राकृत भाषामें क्या अन्तर था उसकी व्याकरण ग्रन्थों में विशद एवं विस्तार के साथ चर्चा नहीं की गयी है। क्षेत्रीय प्राकृतों को भी एक दूसरे से अलग करके उन्हे सूक्ष्म रूप में नहीं समझाया गया है। कारण स्पष्ट है कि उस काल के व्याकरणकारों का उद्देश्य ही अलग था। उनका प्रयास भाषा का ऐतिहासिक या तुलनात्मक अध्ययन करने का महीं था, यह तो आधुनिक काल की उपज है। प्राचीन व्याकरणकारों द्वारा तो उपलब्ध प्राकृत साहित्य की कृतियों की भाषाओं Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का कुछ विशेष रूप समझाने के लिए व्यवहारिक दृष्टि से संस्कृत भाषा से उनकी विभिन्नता दर्शाने के हेतु से व्याकरण लिखे गये थे। इस समीक्षा में यह भी प्रयत्न किया गया है कि अर्धमागधी भाषा के व्याकरण की क्या क्या विशेषताएँ हो सकती हैं, उसके मुख्य लक्षण क्या हो सकते हैं । अध्याय नं. 14 में अर्धमागधी साहित्य के प्राचीन और उत्तरवर्ती रूप भी दिये गये हैं । अध्याय नं. 15 में विशेषावश्यक भाष्य के नये संस्करण के आधार से यह दर्शाया गया है कि ताडपत्रीय एक प्राचीन प्रति के मिल जाने से उसके पाठों में जो आमूल परिवर्तन आ गया वह अर्धमागधी आगम ग्रन्थों को भाषिक दृष्टि से पुनः सम्पादित करने के लिए एक दिशासचन बन रहा है और प्राचीन पाठों के आधार पर उनका पुन: सम्पादन किया जाना चाहिए । के. आर. चन्द्र Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ ग्रंथ संकेत आगमोदय आचा. आल्सडर्फ कॉवेल गाइगर आगमोदय समिति संस्करण आचारांगसूत्र देखो Ludwig. Alsdorf E.B. Cowell, प्राकृत प्रकाश W Geiger : Pali Literature and Language चर्णि डी. सी. सरकार नीति डोल्ची पिशल पुण्यवि. भ. ना. शा. मजैवि. मेहेंडले Select Inscriptions, Vol. I The Prakrit Grammarians Comparative Grammar of Prakrit Languages मुनि पुण्यविजयजी भरतनाट्यशास्त्र महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, संस्करण Historical Grammar of Inscriptional Prakrits प्राकृत प्रकाश शीलांकाचार्यकृतवृत्ति सूत्रकृतांग प्राकृत व्याकरण Kleine Sbrieften देखो नीति डोत्ची वररुचि सत्रकृ. हेमचन्द्र Ludwig Alsdorf Nitti Dolci Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका अध्याय शीर्षक १. भरतमुनि और प्राकृत भाषा की उत्पत्ति २. सामान्य प्राकृत भाषा में मध्यवर्ती त=द ३. प्राकृत में मध्यवर्ती प और व ४. मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजनों का प्रायः लोप ५. मध्यवर्ती उद्वृत्त स्वर के स्थान पर 'य' श्रुति की यथार्थता ६. अनुनासिक व्यंजन ङ् और ञका अनुस्वार में परिवर्तन ७ प्राचीन प्राकृत भाषा में आद्य नकार या णकार ८. प्राचीन प्राकृत भाषा में मध्यवर्ती नकार ९. प्राचीन प्राकृत भाषा में ज्ञन्न या ण्ण १०. प्राचीन प्राकृत भाषा में ण्य, न्न न्य और र्ण का न्न या ण्ण ११. - रिंस और म्हि सप्तमी एकवचन के प्राचीन विभक्ति प्रत्यय १२. कुछ अन्य विभक्ति - प्रत्यय १३. प्राकृत भाषाओं में मध्यवर्ती व्यंजन 'ळ' १४. अर्धमागधी के दो स्वरूप और उत्तरवर्ती : प्राचीन पृष्ठ १-८ ९-१५ १६-२१ २२- ३१ ३२-३७ ३८-४२ ४३-५० ५१-६८ ६९-७५ ७६-८१ ८२-८७ ८८-११३ ११५-१२२ १२३-१२९ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. मूल अर्धमागधी भाषा के यथा-स्थापन में विशेषावश्यक-भाष्य की जेसलमेरीय ताडपत्र की प्रति में भाषिक-दृष्टि से उपलब्ध प्राचीन पाठों द्वारा एक दिशा-सूचन १३०-१४६ अक्षरों की प्राचीन लेखन-पद्धति और नकार में णकार के भ्रम की संभावना १४७ कतिपय पूर्व-प्रकाशित इस ग्रंथ के अध्यायों के संदर्भ संदर्भ-ग्रंथ शुद्धि-पत्रक हमारे प्रकाशन F १५३ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. भरतमुनि और प्राकृत भाषा की उत्पत्ति प्राकृत भाषा की उत्पत्ति के बारे में दो मत हैं, एक के अनुसार प्राकृत संस्कृत से जन्मी और दूसरे के अनुसार संस्कृत प्राकृत से जन्मी । इसी के बारे में यहाँ थोड़ी सी चर्चा की जा रही है। वररुचि अपने प्राकृत व्याकरण में प्राकृत भाषा की उत्पत्ति के बारे में मौन हैं। चण्ड अपने प्राकृतलक्षणम् में कहते हैं-प्राकृत तीन प्रकार से सिद्ध-प्रसिद्ध है (१) संस्कृत योनिवाली अर्थात् तद्भव शब्द, (२) संस्कृतसमम अर्थात् तत्सम शब्द और (३) देशीप्रसिद्धम् अर्थात् देश्य शब्द । इन तीन प्रकार के शब्दों से युक्त प्राकृत भाषा बतायो गयी है । उन्होंने इसकी उत्पत्ति के बारे में कुछ नहीं कहा है । पू० आचार्य श्री हेमचन्द्र अपने प्राकृत व्याकरण में प्राकृत के विषय में कहते हैं--- १) तत्र भवं तत आगतं वा प्राकृतम, (२)... संस्कृतयोनेरेव तस्य लक्षणम् और (३) न देश्यस्य ( ८.१.१ ) अर्थात् ... (अ) देश्य के बारे में इधर कुछ नहीं कहा जा रहा है (३)। (ब) संस्कृत योनि वाले शब्दों के लक्षण दिये जा रहे हैं (२) । (स) इसमें जो शब्द(संस्कृत से ; बने वे और इसमें (संस्कृत में) से जो आये अर्थात् तद्भव और तत्सम शब्द भी हैं (१) । यहाँ तक तो उनकी परिभाषा चण्ड के समान ही लगती है परंतु जब उन्होंने यह कहा कि प्राकृत की प्रकृति संस्कृत है तब क्या समझना ? प्रकृतिः संस्कृतम् (८.१.१) विद्वानों की एक परम्परा इसका अर्थ यह करती है कि प्रकृति शब्द Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के. आर. चन्द्र और योनि शब्द से यह तात्पर्य लिया जाय कि प्राकृत की उत्पत्ति संस्कृत से हुई । यदि इस प्रकार मान भी लिया जाय तो वररुचि के प्राकृत व्याकरण में इस सम्बन्ध में अन्य प्राकृत भाषाओं के लिए जो कुछ कहा गया है उसका समाधान क्या होगा ? 'प्राकृतप्रकाश' के अध्याय १०, ११ और १२ में कहा गया है(१) पैशाची १०.१, प्रकृतिः शौरसेनी १०.२ (२) मागधी ११.१, प्रकृतिः शौरसेनी ११-२ (३) शौरसेनी १२.१, प्रकृतिः संस्कृतम् १२.२ इन सूत्रों के अनुसार 'प्रकृति' शब्द का अर्थ यही लिया जाय जो हेमचन्द्राचार्य के सूत्र के सम्बन्ध में लिया जाता है तो इसका अर्थ यह होगा कि संस्कृत में से उत्पन्न भाषा तो शौरसेनी है परंतु मागधी शौरसेनी में से उत्पन्न हुई और पैशाची भी शौरसेनी में से निकली । इन सबका पुनः यह अर्थ हुआ कि शौरसेनी भाषा मागधी और पैशाची की जनयित्री होने के कारण वह उनसे पूर्ववर्ती काल की भाषा है । ऐसा मानना प्राकृत भाषाओं के ऐतिहासिक विकास के क्रम की मान्यता के प्रतिकूल जाता है । जब शौरसेनी संस्कृत में से निकली तो प्राकृत (महाराष्ट्री। फिर किसमें से उत्पन्न हुई ? __ इस सन्दर्भ में यही मानना योग्य और उचित लगता है कि भिन्न भिन्न प्राकृत भाषाओं के लक्षण समझाने के लिए व्याकरणकारों द्वारा किसी एक को दूसरी भाषा का मात्र आधार बनाया गया है जहाँ पर उत्पत्ति-स्रोत या जन्म-योनि का सवाल नहीं है। किसी एक भाषा के लिए दूसरी भाषा Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी ३ में क्या क्या प्रतिरूप substitutes) हो सकते हैं उनका व्याकरण शास्त्र है न कि एक से दूसरी की उत्पत्ति का । यह तो मात्र समझाने के लिए एक पद्धति अपनायी गयी है जहाँ उत्पत्ति का सवाल ही नहीं है । इस सम्बन्ध में भरतमुनि का मन्तव्य भी जानना अनुचित नहीं होगा । उन्होंने प्राकृत की उत्पत्ति, प्रकृति या योनि के बारे में तो कुछ नहीं कहा है । वे लिखते हैं कि नाटकों में दो ही पाठ्य भाषायें हैं, एक संस्कृत और दूसरी प्राकृत (भ० ना० शा० १७.१) । वे आगे कहते हैं कि प्राकृत संस्कारगुण से वर्जित होती है । उसमें समान शब्द (तत्सम), विभ्रष्ट (तद्भव) और देशी शब्द होते हैं । यह परिवर्तन (विपर्यस्त) युक्त होती है (१७.३) । इस कथन के अनुसार एक भाषा संस्कारगुण वर्जित है (प्राकृत) अर्थात् दूसरी भाषा संस्कार गुण वाली है (संस्कृत) । इससे यह प्रश्न उठता है कि जिसको संस्कारयुक्त बनाया गया, जिसे संस्कार दिया गया वह भाषा कौन सी ? उत्तर होगा जो संस्कार रहित थी उसे संस्कारयुक्त बनाया गया अर्थात् प्रकृति को यानि प्राकृत को सुसंस्कृत बनाया गया । तब कौन सी भाषा पहले और कौन सी बाद में । स्पष्ट है कि जो प्रकृति की भाषा, स्वाभाविक लोकभाषा, जन-भाषा थी उसे ही संस्कार देकर सुसंस्कृत बनाया गया । यहाँ पर भाषा के किसी नाम विशेष से तात्पर्य नहीं है सिर्फ समझना इतना ही है कि असंस्कार वाली भाषा में से संस्कार वाली भाषा बनी। संसार की सभी भाषाओं पर यही नियम लागू होता है । शिष्ट Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के. आर, चन्द्र भाषा का उद्भव किसी एक लोक-भाषा से ही होता है और बाद में दोनों में परस्पर आदान-प्रदान होता रहता है। यदि संस्कृत ही प्राकृत की योनि हो तो फिर जो नियम पू० हेमचन्द्राचार्य ने बनाये हैं वे उल्टे साबित नहीं होते हैं क्या ? उदाहरणार्थ:(१) सूत्र-८.३.१५८ वृत्ति' 'अकारस्य स्थाने एकारो वा भवति । जैसे—हसइ का हसेइ, सुणउ का सुणेउ । फिर आगे वृत्ति में कहा गया है कि 'क्वचिदात्वमपि अर्थात् कहीं कहीं अ का आ हो जाता है: उदाहरणार्थ-सुणाउ (श्रुणातु) इससे यह फलित होता है कि सुणउ से सुणाउ हुआ । वास्तव में तो संस्कृत में जो 'आ' है उसके स्थान पर ही प्राकृत में अ और ए प्रचलित था । श्रुणातु-सुणाउ, सुणउ, सुणेउ । यहाँ पर पू० हेमचन्द्र ने समझाने की जो पद्धति अपनायी है उससे संस्कृत को प्राकृत की योनि मानकर स्रोत के रूप में उसका अर्थ ले तो उचित नहीं ठहरता है । अतः प्रकृति शब्द से उनका तात्पर्य 'जन्मदात्री' नहीं है परन्तु समझाने के लिए यह तो एक 'आधार' ही माना जाना चाहिए । (२) शौरसेनी में थ का ध होने के लिए स्त्र उन्होंने दिया है थो धः-८.४.२६७ फिर बाद में इह के ह और द्वि० पु० ब० व० के वर्तमान काल के प्रत्यय ह का ध होना बतलाया है । इह हचोः हस्य ८.४.२६८, उदाहरण-इध, होध Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी मार अधमागधी ५ यह तो संस्कृत 'भवथ' का 'होघ' है अर्थात् थ का ध बना है । इसको संस्कृत से न समझाकर प्राकृत से ही समझाया हैअर्थात् संस्कृत में से प्राकृत की उत्पत्ति की उनकी मान्यता होती तो क्या वे ऐसा करते ? (३) इह में से इध हुआ हो यह भी सही नहीं है मूल तो इध ही था उसमें से ही संस्कृत में इह बना है । इस सन्दर्भ में पू० आ० श्री हेमचन्द्राचार्य द्वारा प्रयुक्त 'प्रकृति' शब्द का अर्थ यही होता है कि प्राकृत भाषा को समझाने के लिए (अर्थात् तद्भव अंश के लिए) संस्कृत का आश्रय लिया जा रहा है, उसे आधार मानकर समझाया जा रहा है, इससे अलग ऐसा अर्थ नहीं कि संस्कृत प्राकृत की जननी है या उसमें से उसकी उत्पत्ति दूसरी दृष्टि से प्रकृति और योनि शब्द का उपयोग इसलिए भी किया होगा कि उनके द्वारा प्राकृत के लिए कोई स्वतंत्र व्याकरण ग्रंथ नही लिखा जा रहा था। उनके सिद्धहेमशब्दानुशासनम् ग्रन्थ में संस्कृत का व्याकरण सात अध्यायों में समझाये जाने के बाद आठवें अध्याय में प्राकृत व्याकरण का विषय लिया जा रहा था । अतः क्रमपूर्वक संस्कृत के विद्वानों को "प्राकृत भाषा" संबंधी नियम दिये जा रहे थे इसीलिए संस्कृत भाषा को आधार बनाया गया और इस दृष्टि से ही योनि और प्रकृति शब्दों का उपयोग किया गया। - इसके अलावा भरतमुनि ने प्राकृत को नाटकों में संस्कृत के समान ही दर्जा दिया है । उनके द्वारा यह कहा गया है कि नाटकों में दो ही पाठय भाषाएँ होती हैं । उनमें से संस्कृत के बारे में तो कह दिया अब प्राकृत के बारे में कहता हूँ--- Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के. आर. चन्द्र एवं तु संस्कृतं पाठ्यं मया प्रोक्तं समासतः / प्राकृतस्य तु पाठ्यस्य संप्रवक्ष्यामि लक्षणम् // भ.ना.शा. 17.1 जिसे अलग-अलग अवस्थाओं में अपनायी जानी चाहिए / विज्ञेयं प्राकृतं पाठय' नानावस्थान्तरात्मकं / भ.ना.शा. 17.2 यही प्राचीन स्थिति है जब संस्कृत के साथ प्राकृत भाषा को भी समान रूप में योग्य पद प्राप्त था / भरतमुनिने नाटकों में प्रयोज्य भाषा को संस्कार युक्त या संस्कार देने की जो बात कही है वह सिर्फ व्याकरणबद्ध करने की दृष्टि से कही है और इसी हेतु से उसके लिए नियम बनाये गये हैं / भविष्य में भी हरेक साहित्यिक भाषा के लिए ऐसी ही पद्धति अपनानी पडेगी / गयपद्यमय साहित्य जैसे कि ललित साहित्य, कथा साहित्य, काव्य साहित्य और अनेक शास्त्रीय ग्रंथों एवं नाटकों में जो प्राकृत भाषा मिलती है उसकी उत्पत्ति का कोई प्रश्न ही नहीं था और न कभी उसके पद या दर्जे का सवाल था / मूलतः यह तो तुलनात्मक दृष्टि से समझाने की बात थी अर्थात् एक भाषा के स्थान पर दूसरी भाषा के लिए कैसा दूसरा शब्द या कौन सा दूसरा रूप अर्थात् प्रतिरूप ( substitute ) अपनाया जाय उसी की एक कथा है, प्रथा है, पद्धति है या यों कहिए कि एक व्याकरण शास्त्र है। Therefore in the Nalyasastra there are instructions a ad guide-lines as regards the substitutes for stagedialects that are to be assigned to various types of characters in dramas. इन दो भाषाओं के आपसी सम्बन्ध को दृष्टान्तों द्वारा भी. Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी समझाया जा सकता है । एक भाषा बहती हुई महानदी के पानी के समान है जो स्थल स्थल पर और समय समय पर परिवर्तनशील होता रहता है, जिसमें छोटी छोटी नदियों से विविध जगहों का पानी भी आता रहता है और उसका पानी कभी एक समान नहीं रहता है, बदलता रहता है, रंग भी बदलता है, अन्दर की सामग्री भी बदलती है और उसका स्वरूप बदलता रहता है । उसी बहते पानी में से एक नाले (चेनल) के द्वारा एक सरोवर के रूप में पानी एकत्रित करके उसे संस्कार युक्त बनाया जाता है और बाद में वह अपना रूप नहीं बदलता है परंतु अधिक सुन्दर, शुद्ध और मनोहर भी होता है । समय समय पर और स्थल स्थल पर ऐसे जो सरोवर बनाये जाते रहते हैं वे व्याकरण साहित्यकी भाषाएँ बनती रहती हैं जबकि बहता हुआ पानी प्राकृत के रूप में चलता रहता है, बदलता रहता है, विकास (evolution) करता रहता है । दोनों भाषाओं को समझाने के लिए एक दसरा दृष्टान्त इस प्रकार दिया जा सकता है । एक राष्ट्र ऐसा जहाँ पर राजकुमारी ही राज्य करती है । अनेक बहिनों में से एक का चुनाव होता है। चुनाव के नियम हमेशा एक समान नहीं रहते, परिस्थिति और स्थल के अनुसार समय समय पर बदलते रहते हैं । अनेक बहिनों में से एक रानी बनती है और उसके राज्य के सभी लोग यहाँ तक कि उसकी बहिने भी उसकी प्रजा (यानि her subjects) कहलाती है । इसका अर्थ यह नहीं कि सारी प्रजा और उसकी बहिने उस रानी की पुत्रियाँ हैं या सन्ताने हैं । जो पुत्री रानी बन गयी उसका रहन-सहन, पोशाक, खान Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के. आर. चन्द्र पान, सजावट सब उच्च कोटि के रहते हैं । जबकि अन्य बहिनो' को ये सुविधाएँ नहीं मिलती हैं । रानी को हम संस्कार वाली भाषा कह सकते हैं जबकि उसकी बहिनो को संस्कार वर्जित कह सकते हैं । यही संस्कृत और प्राकृत का सम्बन्ध है । अतः किसी भी बोल-चाल की (प्राकृतिक भाषा का जन्म किसी भी संस्कार दी गयी भाषा से हो ही नहीं सकता । यदि कहना हो तो ऐसा कहो कि प्राकृतिक से संस्कारयुक्त वस्तु या भाषा बनती है । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. सामान्य प्राकृत भाषा में मध्यवर्ती त-द सामान्य प्राकृत भाषा के अन्तर्गत वररुचि के 'प्राकृत प्रकाश (E.B. Cowell, में मध्यवर्ती त-द का उल्लेख तीन प्रकार से मिलता है । [१] नियम कोई अन्य है परन्तु उदाहरण के रूप में दिए गए शब्दों में त के स्थान पर द मिलता है । [२] कुछ शब्दों में त का द होता है ऐसा नियम दिया गया है । [३] विभक्ति और कृदन्त प्रत्ययों में त का द मिलता है परन्तु वर्तमानकाल के - ति, ते, आज्ञार्थ -तु, हेत्वर्थक -तुं और सम्बन्धक भूतकृदन्त -तूण के स्थान पर कहीं पर भी उदाहरणों में या नियम में त के स्थान पर द नहीं मिलता है । [१] उदाहरणो में ___ सूत्र-उदृत्वादिषु-१.२९ अर्थात् ऋ का उ होने के उदाहरणों में उद्, विउदं, संवुदं, णिव्वुदं (ऋतुः, विवृतम् , संवृतम् , निवृतम् )। सूत्र-२.२-मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजनों के लोप के उदाहरणों में रअदं (रजतम्।। सर्वनामों में सूत्र-६.२० -५० ए० व० की विभक्ति के उदाहरणएदाहि, एदादो, एदादु । सूत्र-६.२२-तदेतदोः सः साव नपुंसके –एदे, एदं । सूत्र--६.२६-युष्मद् के प्र० ए० व० के उदाहरणो' मेंतं आगदो, तुमं आगदो । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के. आर. चंद्र सूत्र-६.२८-युष्मद् के प्र० ब० व० के उदाहरणों में -तुझे आगदा, तुम्हे आगदा । सूत्र--६.३५-युष्मद् के पंचमी ए० व० के उदाहरणों में -- तत्तो आगदो, तुमाहि आगदो । सूत्र-६.३६---युष्मद् के पंचमी ब० व. के उदाहरण में - तुम्हासुतो आगदो। निपात के उदाहरण में-सूत्र-९.५-पेक्ख इर तेण हदो । [२] कुछ शब्दों में त का द होने का नियम सूत्र-२.७, ऋत्वादिषु तो दः उदू, रअदं, आअदो, णिव्वुदी, आउदी, संवुदी, सुइदी, आइदी, हदो, संजदो, विउदं, संजादो, संपदि और पडिबद्दी । (ऋतुः, रजतम् , आगतः, निवृतिः, आवृतिः, संवृति:, सुकृतिः, आकृतिः, हतः, संयतः, विवृतम् , संयातः, संप्रति और प्रतिपत्तिः ) सूत्र-६.३२-युष्मद् के षष्ठी एकवचन और तृतीया एकवचन का 'ते'='दे' होता है । ते को, दे कअं; ते धणं; दे धणं । [३] कुदन्त प्रत्यय और विभक्ति [अ] सूत्र-४.२२, तलत्वयोर्दात्तणी [ यह भाववाचक प्रत्यय दा और तण का सूत्र है । ] पीणदा, मूढदा (पीणत्तणं, मूढत्तण) ब] सर्वनामों में पंचमी ए० व० की विभक्ति सूत्र-६.९, तो दो ङसेः -कदो, जदो, तदो । सूत्र –६.१०,-तद ओश्चः-तत्तो, तदो । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्घ मागधी ११ सूत्र-६.२०,-त्तो ङसे:-एदादो, एदादु, एदाहि । सूत्र-६.३५, डसौ (तत्तो, तइत्तो, तुमादो, तुमादु, तुमाहि) । अर्थात् पंचमी एकवचन की विभक्ति -तो के बदले में -दो का और भाववाचक प्रत्यय –ता के बदले में –दा का स्पष्ट उल्लेख है । पू. आचार्य श्री हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण के अनुसार त का द शौरोनी और मागधी भाषा में ही होता है । सामान्य प्राकृत के लिए वररुचि के सूत्र-२.७ का नियम उन्हें स्वीकार्थ नहीं था इसीलिए उन्होंने उसका निषेध किया सूत्र ८.१.२०९) है । वे कहते हैं –अत्र केचिद् ऋत्वादिषु द इत्यारब्धवन्तः स तु शौरसेनी मागधीविषय एव दृश्यते इति नोच्यते । प्राकृते हि - ऋतु:=रिऊ; उऊ; रजतम् = रययं और जितने भी तन्द वाले उदाहरण वररुचि के व्याकरण में मिलते हैं वे उनके द्वारा मध्यवर्ती त का लोप करके दिए गये हैं । उनके सूत्र नं० ८.३.८ में सर्वनामो की पं० ए० व० की विभक्ति में -दो और -दु का भी उल्लेख है ( ङसेस् तोदोदुहिहिन्तो लुकः) परन्तु वृत्ति में कह दिया कि 'दकार करणं भाषान्तरार्थम्' अर्थात् दकार वाली विभक्ति अन्य भाषाओं में प्रयुक्त होती है । उन्होंने सामान्य प्राकृत में त - द का निषेध किया और अन्य भाषा में ऐसे प्रयोग मिलते हैं यह भी स्पष्ट किया। फिर भी उन्होंने अपने अन्य सूत्रों के अन्तर्गत त के द वाले प्रयोग क्यों दिए ? उनके बारे में ऐसी ही स्पष्टता क्यों नहीं की गयी ? यह सुस्पष्ट नहीं है । सूत्र नं० ८.१.३७ 'अतो डो विसर्गस्य' के उदाहरण में 'कुतः कुदो' दिया गया है । जबकि त के द का निषेध बहुत बाद में आगे ८.१.२०९. सूत्र की वृत्ति में किया गया है। इसी प्रकार देखिए सूत्र नं० ८.२.१६० 'तो दो तसो वा' । सामान्य प्राकृत भाषा के लिए दिये गये Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के. आर. चंद्र इस सूत्र की वृत्ति में सबदो, एकदो, अन्नदो, कदो, जदो और इदो के उदाहरण आते हैं जबकि सूत्र न. ८.१.२०९ में पहले ही निषेध कर दिया गया था कि त का द प्राकृत में नहीं होता है । सूत्र. नं. ८.३.७१ -किम: कस्त्र – तसोश्च में भी कओ और कत्तो के साथ कदा का भी उदाहरण है। सूत्र नं. ८.३.६९ में एदिणा, एदेण के उदाहरण दिये गये हैं और ८.३.८ में पंचमी एक वचन के लिए -दो और-दु विभक्तियाँ दी गयी हैं जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है । त के द का निषेध करते हुए इसी सूत्र [८.१.२०९] की वृत्ति में यह भी कह दिया कि [८.४.४४७ के अनुसार कभी-कभी व्यत्यय भी होता है इसका अर्थ यह हुआ कि त का द नियमित नहीं 'परन्तु कभी कभी सामान्य प्राकृत में मिलता है। सूत्र नं० ८.१.१७७ की वृत्ति में भी कभी कभी क का ग और च का ज होना बतलाया गया है और वहां पर भी उन्हें 'व्यत्यय' (८.४.४४७) की कोटि में रखा गया है । तो क्या इसी सूत्र के अन्तर्गत त के क्वचित् द होने की चर्चा नहीं की जा सकती थी ? भाषा-शास्त्र की दृष्टि से यह प्रवृत्ति तो अघोष व्यंजनों के घोष बनने की है जो लोप की प्रवृत्ति से पूर्ववर्ती मानी जाती है । इस पूर्ववर्ती प्रवृत्ति का प्रभाव ही परवर्ती भाषा पर क्वचित् मिलता हो या किसी अंश में उसका समावेश इधर किया गया हो ऐसा प्रतीत होता है। . क का ग, च का ज और त का द ये सब अघोष के घोष बनने की प्रक्रियावाले हैं जो महाराष्ट्री प्राकृत के पूर्व की कुछ प्राकृतों की लाक्षणिकताएँ हैं । जब शौरसेनी और मागधी में त का द बनने का एक अलग सूत्र दे दिया और ८.४.४४७ में 'व्यत्यय' सर्वव्यापी बना दिया गया तो फिर सामान्य प्राकृत के लक्षण समझाते समय Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी १३ त-द के उल्लेख की क्या आवश्यकता थी और सामान्य प्राकृत में ही पं० ए० व० के विभक्ति प्रत्यय -दो और -दु देने की क्या जरूरत थी । उनका उल्लेख शौरसेनी में ही उचित था जैसा कि उन्होंने उस भाषा में सं० भू०० के लिए-दूण [८.४.२७१, २७२] और वर्त. काल. तृ० पु० ए०व० के प्रत्यय -दि, –दे [८.४.२७३, २७४, २७५] का उल्लेख किया है तथा पंचमी ए० व० की विभक्ति -दो और -दु का भी. उल्लेख [८.४.२७६] अलग से किया हा है । त-द वाले सूत्रों और उदाहरणों का सामान्य प्राकृत में समावेश करके. क्या उन्होंने एक प्राचीन परम्परा का ही अनुसरण नहीं किया है ? जिस प्रकार कग के प्रयोग अर्घगागधी में अधिक मिलते हैं उसी प्रकार तद के प्रयोग भी अर्धमागधी में रहे होंगे । अतः सामान्य प्राकृत में क-ग की तरह त-द का भी समावेश [भले ही 'व्यत्यय' के नियम से ] कर दिया गया है । अर्धमागधी में तःद के अघोष के. घोष बनने के और वैसे ही थ=ध के जो प्रयोग बच पाए हैं उनमें से कुछ इस प्रकार दिए जा सकते हैं। इसिभासियाई ग्रन्थ से : भविदव्वं [३.१]; पक्विदा [३८.२३ पाठान्तर ] तधेव [२५. पृ. ५३.१४];तधा[४५.२६]; कधं [२५ पृ० ५५.६], जधा [४०. पृ. ९१.१.४५.९; २५ पृ० ५५.१३,१५,१८] सव्वधा [३५.१२, ३८.२९,४५.२५] अर्धमागधी जैन-आगम-साहित्य की प्राचीन प्रतियों में और पाठान्तरों के रूप में भी मुद्रित प्रथों में ऐसे घोषीकरण के अनेक प्रयोग मिलते हैं । पू० जंबूविजयजी ने स्पष्ट कहा हैं कि मूल. सूत्र एवं चूर्णी की प्रतियों में मिल रहे जघा और तधा के स्थान पर जहा और तहा पाठ लिये गए हैं [आचारांग, भूमिका,. पृ० ४४, म० जै० वि० संस्करण] । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ के आर. चंद्र पालि भाषा में भी अत्र तत्र ऐसे घोषीकरण के कुछ प्रयोग मिलते हैंक ग-पटिंगिच्च (दीघनिकाय, धम्मपद-अट्ठकथा) मागन्दि (मज्झिम निकाय, जातकट्ठकथा) प्रो. गाइगर ने (३८) ये उदाहरण नहीं दिए हैं । तन्द-निय्यादेति (जातकट्ठकथा), पटियादेति (दीघनिकाय), रुदं (जातकट्ठकथा, विदस्थि (धम्मपदअट्ठकथा) थ ध--गधित, (प्रथित) (देखिए गाइग र] । शिलालेखों में मी ऐसे उदाहरण मिलते हैं । प्रो० मेहेण्डले (पृ० २७३) के अनुसार ई. स. पूर्व तीसरी शती में उत्तर, उत्तर-पश्चिम और दक्षिण में, ई० स० पूर्व दूसरी शती में पूर्व और पश्चिम में और ई० स० पूर्व प्रथम शती में उत्तर-पश्चिम और मध्यक्षेत्र में त = द कभी कभी मिलता है । उसी प्रकार थ=ध प्रथम बार पूर्व और दक्षिण मे ई० स० की दसरी शती में और मध्यक्षेत्र में ई० स० पूर्व की प्रथम शती में मिलता है । डॉ. आल्सडर्फ के अनुसार तो घोषीकरण की प्रवृत्ति पूर्वी भारत से ही अन्य क्षेत्रों में फैली है ।' जहाँ तक वररुचि का सवाल है उनके बारे में ऐसा कहना ही उचित होगा कि नाटकों में जो प्राकृत भाषा मिलती है उसमें त का द प्रचुर मात्रा में मिलता है अतः उन्होंने त-द को अपनी प्राकृत में भी स्थान दिया होगा । उपसंहार के रूप में ऐसा कहना अनुचित नहीं होगा कि प्राकृत की प्रारंभिक अथवा प्राचीन अवस्था में अमुक अमुक अघोष व्यंजनों के लिए घोष व्यंजनों का प्रयोग होता था । परंतु 1. Historical Grammar of Inscriptional Prakrits, Poona, 1948 2. Kleine Schriften, p 451 (1974 AD) Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी हेमचंद्राचार्य ने जब इस प्रवृत्ति का अर्थात् तद का निषेध कर दिया तब प्राचीन प्रतों में मिलने वाले ऐसे तन्द के प्रयोग प्राचीन प्राकृत में से निकल गए । श्रीमती नीति डोल्ची की यही मान्यता रही है । अर्धमागधी जैसी प्राचीन भाषा में से भी ऐसे प्रयोग निकल गये होंगे ऐसा मानना यहाँ पर अर्धमागधी आगम साहित्य' के विद्वानों के लिए अनुचित नहीं होगा । १५ 3. I rather believe that Hemacandra is responsible for normalization of the treatment of intervocalic -t-in posterior Mss. - Vide The Prakrit Grammarians, p. 159, f. n. 4 (1972). 4. भाचराङ्ग की प्रतों में से पाठान्तर के रूप मे त=द वाले प्रयोग :- अग्वादि ( खं, खे, सं, जे), अम्खादि (इ० ) 16.1.177; चेदेमि ( शीखं) 1.82,204; चेदेसि (खे. सं, ) 18.2 201; समुस्सिणादि (चू० ) 1.82205; उववादं (चू० ) 1.8.3 209; विमोहायदणं खं ) 1.8.7.228, [ पश्पादे (खे, खं. सं. जे. ) 1.9. 1.272; पादं (खे, खं, जै, इ, हे १, २, ३) 2.6.1.588, 590 इत्यादि, इत्यादि पात्र के स्थान पर पाठान्तर के रूप में पाद कितनी ही बार प्रयुक्त ] पाणादिवातातो (खे, खं, जै) 2 15 779 ध्यान देने की बात यह है कि आचार्य हेमचन्द्र ने त=द का निषेत्र करते हुए ऋतु के लिए उउ शब्द (८.१.२०९) दिया है ( वररुचि उदु शब्द देते हैं) परंतु स्वयं आचराङ्ग में ही 'उदु' शब्द का प्रयोग मिल रहा है- उदुसंधीसु, उदुपग्यि ट्टेसु और (शठ = तर उकुसु - खे, ख; उदुमु चू० ) 2 1.2.335. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. प्राकृत मे मध्यवती प और व प्राकृत व्याकरणकारों ने मध्यवर्ती पकार और वकार के सम्बन्ध में ध्वनि परिवर्तन के जो नियम दिये हैं वे शिलालेखों और साहित्य की भाषा में कहाँ तक औचित्य रखते हैं उसी का यहाँ अध्ययन किया जा रहा है । इस विश्लेषणात्मक अध्ययन से स्पष्ट होगा कि साहित्य और व्याकरण में कितना अन्तर है । मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजनों (टवर्ग के सिवाय) के प्रायः लोप के विषय में हेमचन्द्राचार्य का सूत्र इस प्रकार है :कगचजतदपयवां प्रायो लुक (८.१.१७७) इस सूत्र से स्पष्ट है कि अन्य अल्पप्राण व्यंजनों की तरह पकार का भी प्रायः लोप होता है । इस सूत्र के पश्चात् अन्य स्थल पर पकार के विषय में जा सूत्र दिया गया है वह इस प्रकार है पेो वः (८.१.२३१) इस सूत्र की वृत्ति में कहा गया है कि पकार का प्रायः वकार होता है । सूत्र की वृत्ति इस प्रकार है स्वरात्परस्यासंयुक्तस्यान दे : पस्य प्राय वा भवति । ये दोनों सूत्र क्या एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं ? इन दोनों का समाधान वृत्ति में इस प्रकार किया गया है एतेन पकारस्य प्राप्तयोर्लोपवकारयेार्यस्मिन्कृते श्रुतिसुखमुत्पद्यते स तत्र कार्यः । अर्थात् श्रुतिसुखानुसार लाप या व किया जा सकता है । इसका अर्थ तो यह हुआ कि दोनों सूत्रों में जिस प्रायः शब्द का Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी उपयोग किया गया है वह निरर्थक बन जाता है। व्याकरणकार क्या एक तरफ परंपरा का अनुसरण कर रहे हैं और दूसरी तरफ उसी में संशोधन कर रहे हैं क्या ? इन विधानों में स्पष्टता का अभाव दृष्टिगोचर हुए बिना नहीं रहता । ___ वररुचि के व्याकरण में भी यही दोष नजर आता है । उनके प्राकृतप्रकाश में पहले प्रायः लोप और पुनः प्रायः व होने का आदेश है । वृत्ति में फिर कहा गया है-जहां पर लोप नहीं हो वहां पर व बन जाता है कगचजतदपयवां प्रायो लोपः (२.२) पो वः (२.१५) वृत्तिः-प्रायोग्रहणाद्यत्र लोपो न भवति तत्रायं विधिः । त्रिविक्रम अपने प्राकृतशब्दानुशासनम् में हेमचन्द्र का ही शब्दशः अनुसरण करते हैं । (देखिए-सूत्र १.३.८,१.३.९ और १.३.५५ एवं अन्तिम सूत्र की वृत्ति) । मार्कण्डेय भी अपने प्राकृतसर्वस्व मे (सूत्र नं० २.२ और २.१४) ऐसा ही विधान करते हैं । उन्होंने हेमचंद्र और वररुचि की तरह काई समाधान नहीं किया है । इस दृष्टि से भरतनाटयशास्त्र का विधान कुछ अलग सा लगता है । उन्होंने अन्य मध्यवर्ती व्यंजनों के साथ में पकार का लोप नहीं रखा है परन्तु लोप के बदले में पकार के वकार में बदलने की बात अलग से उदाहरण देकर कही है । लेप के सूत्र में प का उल्लेख ही नहीं है वच्चन्ति कगतदयवा लोपमत्थं च से वहन्ति सरा (१७.७) फिर पकार के लिए अलग से सूचित किया है कि Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ आर. चन्द्र आपाणमावाणं भवति पकारेण वत्वयुक्तेन १७.१४) व्याकरणकारों के इन परस्पर विरोधी विधानों एवं भरतमुनि के आदेश को ध्यान में लेते हुए क्या ऐसा नहीं हो सकता था कि प्रायः लोप का जो सूत्र है उसमें पकार का समावेश नहीं करके उसके लिए ऐसा विधान बनाते कि पकार का लोप या उसका वकार वैकल्पिक है । शिलालेखीय एवं साहित्यिक प्रमाणों के आधार पर ऐसा नियम बनाना भी उचित नहीं ठहरता है । मेहेण्डले द्वारा किये गये अध्ययन का सार यह है कि शिलालेखों में मध्यवर्ती पकार का अधिकतर वकार पाया जाता है (देखिए पृ० २७३ से २७५) । पिशल महोदय (१८६) के अनुसार भी मध्यवर्ती प्रकार का लोप कभी कभी ही होता है । साहित्यिक उदाहरण भी यह तथ्य स्पष्ट करते हैं । विविध ग्रंथों की भाषा का विश्लेषण यहाँ पर उदाहरण के लिए प्रस्तुत किया जा रहा है (अ) साहित्य में मध्यवर्ती प का लोप या वकार ( ग्रन्थ का नाम ) यथावत् व लाप (i) सेतुबन्धम्, आश्वास २ १ २५ ३४ ३ (ii) गाथासप्तशती शतक ३ १ से ५० गाथा (iii) स्वप्नवासवदत्तम् अंक १, २, ३ (iv) इसिमासियाई' अध्याय २९, वर्द्धमान अध्याय ३१, पार्श्व १ २६ o २३ ११ ● वकार % ८० ९२ ७४ १०० ९१ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WW . परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी १९ (५) उत्तराध्ययन. अ. १३ [शार्पेण्टियर एवं पुण्यविजयजी के संस्करणानुसार] (आल्सडर्फ के अनुसार नौ प्राचीन पद्यों का विश्लेषण) १ १३ . ९३ (vi) विशेषावश्यक भाष्य (१०१ से २०० गाथाएं) (vii) पज्जोसवणा (कल्पसूत्र २३२ से २६१ संपा. पुण्यवि. १२ (viii) बृहत् कल्पसूत्र, अ. १ (घासीलालजी) (ix) सूत्रकृ० इत्थीपरिन्ना (क) आल्सडर्फ संस्करण १ ३२ ० (ख) म० ज० विद्यालय २ २९ ० ९४ (x) पण्णवणासूत्र (सूत्र नं. १ - ७४, १३९ - १४७) (xi) षट्खण्डागम सू. १.१-८१ ३ १९ ३ ७६ (ब) व के लोप का स्थिति मध्यवर्ती वकार का प्रायः लोप होता है ऐसा नियम दिया गया है वह भी उचित नहीं लगता है । पिशल महोदय (१८६) के अनुसार कभी कभी ही लोप होता है । मेहेण्डले के अनुसार (पृ० २७४-२७५) शिलालेखों में मध्यवर्ती वकार का लोप क्वचित् ही होता है । साहित्य में व का लोप लोप यथावत् प्रतिशत यथावत् (i) स्वप्नवासवदत्तम् (अंक१,२,३) ० ४६ (ii) गाथासप्तशती (३.१-५०) १० १२ । -(iii) सेतुबन्धम् (सर्ग २.१ से ४६) १५ ३७ .. GG ० ६१ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के. आर. चंद्र स्वप्नवासवदत्तम् जैसी प्राचीन कृति में व का लोप नहीं मिलता है । परन्तु परवर्ती महाराष्ट्री प्राकृत कृतियों गाथासप्तशती और सेतुबन्ध में व का लोप मिल रहा है । क्या इसी कारण वररुचि कोव के लोप का सूत्र में उल्लेख करना पड़ा और परवर्ती सम्पादकों पर वररुचि का प्रभाव पड़ा नीचे दिये जा रहे अर्धमागधी और शौरसेनी के प्राचीन ग्रन्थों की भाषा का विश्लेषण भी यही साबित करता है कि उनमें वकार लोप नहीं मिल रहा है । का प्रायः लोप यथावत् प्रतिशत यथावत् (iv) इसिमासियाई (क) अ० २९ वर्धमान (ख) अ० ३१ पार्श्व (v) सूत्रकृ० इत्थीपरिन्ना (क) आल्सडर्फ (ख) जंबूविजयजी (vi) उत्तराध्ययन, अ. १३ ० ० ० (vii) पण्णत्रणा सूत्र (१ से ७४,१३९ से १४७) (viii) षट् खण्डागम अ० १.१ ८१ (ix) बृहत् कल्पसूत्र अ. १ (घासीला.) २ (x) विशेषाव. भाष्य १०१-२०० ८ (xi) पज्जोसवणासूत्र २३२-२६१ १४ ५० २७ २९ 60 १०० १००. १०० १०० १०० ५३ ७५ २० ९१ ७५ ९१ ६८ ९१ साहित्य में उपलब्ध प्रयोगों से स्पष्ट हो रहा है कि मध्यवर्ती पकार का प्रायः लोप नहीं मिलता है । उसका मुख्यत: वकार ही होता है । जैन और जैनेतर दोनों ही साहित्य में कम से कम ७२ १००. ९४ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी २१ प्रतिशत और अधिक से अधिक ९१ से १०० प्रतिशत प का व मिलता है । तब फिर व्याकरणकारों ने मध्यवर्ती पकार के विषय में प्रायः लोप का नियम कैसे बनाया होगा । मध्यवर्ती वकार के प्रायः लोप का नियम तो बिलकुल उचित नहीं ठहरता है । कहना पडेगा कि पकार और वकार के विषय में प्राकृत व्याकरणकारों के नियम शिलालेखीय एवं साहित्यिक प्रमाणों के विपरीत जाते हैं । कम से कम प्राचीनतम साहित्य की प्राकृत भाषा पर यह नियम लागू नहीं होता है अतः अर्धमागधी . भाषा पर भी ये नियम लाग नहीं होते हैं । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. मध्यवती अल्पप्राण व्यंजनों का प्रायः लोप वररुचि और हेमचन्द्र दोनों ही व्याकरणकार मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजनों के बारे में एकमत हैं । उनके सूत्रों के अनुसार क,ग, च,ज, त,द,प,य और व का प्रायः लोप होता है । वररुचि का सूत्र है-- कगचजतदपयवां प्रायो लोपः (२.२) । हेमचन्द्र का सूत्र है कगचजतदपयवां प्रायो लुक (४.१.१७७) । इसके साथ-साथ प का प्रायः व भी होता है ऐसा सूत्र भी दोनों ने दिया है पो वः (२.१५); वकारादेशो भवति-भामह । पो वः (८.१.२३१); पस्य प्रायो वा भवति-(हेमचन्द्र की वृत्ति) शौरसेनी और मागधी में त और थ के लिए घोषीकरण का नियम दिया गया है तकारस्य दकारो भवति, थस्य धो वा भवति । (हेम. सूत्र-८.४.२६०, २६७) । तथयौर्दधौ (वररुचि-१२.३) वररुचि ने तो सामान्य प्राकृत में भी त का द होता है ऐसा नियम और उदाहरण भी दिये हैं जबकि हेमचन्द्र इसे सामान्य प्राकृत में मान्य नहीं रखते हैं । ऋत्वादिषु तो दः । (वररुचि-२.७) । हेमचन्द्र का मत है कि Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी केचिद् ऋत्वादिषु द इत्यारब्धवन्तः स तु शौरसेनीमागधीविषय एव दृश्यते इति नोच्यते वृत्ति (८.१.२०९) । आ. हेमचन्द्र ने लोप के नियम के अन्तर्गत कहीं कहीं पर च का ज और क का ग होना भी अर्थात् अघोष व्यंजनों का घोष होना भी सामान्य प्राकृत में ही बतलाया है । २३ प्राकृत भाषा के प्रारम्भिक काल में मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजनों के प्रायः लोप की प्रवृत्ति नियमित नहीं हो सकती जैसा कि दोनों व्याकरणकार समझाते हैं । 'भरत नाट्य - शास्त्र' के अनुसार भी क,ग, त, द, य और व का ही लोप बतलाया गया है बच्चन्ति कगतदयवा लोपम् (१७.७) । इनमें च ज और प का समावेश नहीं होता है परन्तु प का व में बदलने का अलग से उदाहरण दिया गया हैआपाणमावाणं भवति पकारेण वत्वयुक्तेन । (१७.१४) । बाद में च के बदले में य (य श्रुति) होने के भी उदाहरण दिये गये हैं प्रचलाचिराचलादिषु भवति चकारोपि तु यकार : ( ( ७.१४ ) मध्यवर्ती ज के लोप का उल्लेख ही नहीं है । वररुचि और हेमचन्द्र द्वारा आदिष्ट सभी अल्पप्राण व्यंजनों का लोप प्रायः होता हो ऐसा 'भरत नाटय-शास्त्र' से फलित नहीं होता है । इसी सन्दर्भ में चण्ड के 'प्राकृत लक्षणम्' का मत जानना भी उपयोगी होगा । उनके सूत्र इस प्रकार हैं प्रथमद्वितीययो द्वितीयचतुर्थी ( ३.११) । प्रथमस्य तृतीयः (३.१२) । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के. आर. चंद्र . . अर्थात् अल्पप्राण का महाप्राण और अघोष का घोष होता है । इन सूत्रों के पश्चात् फिर कहा गया है कतृतीययोः स्वरे (३.३६) । अर्थात् मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजनों का लोप होता है । चण्ड ने पहले महाप्राण और घोष बनने की बात कही और तत्पश्चात् लोप के बारे में कहा । हेमचन्द्र और वररुचिने पहले लोप की बात कही फिर घोष बनने की बात कही । व्याकरणकारों के इन अलग अलग प्रकार के नियमों और उनके क्रम में एकरूपता न होने से फलित होता है कि सभी अल्पप्राण व्यंजनों का लोप एक साथ नहीं किन्तु धीरे-धीरे क्रमशः प्रचलन में आया होगा। सर्वप्रथम तो घोषीकरण की सामान्य प्रवृत्ति थी । नीति डोल्ची भी इसी मत की पुष्टि करती है ।। __ मागधी और शौरसेनी प्राकृत भाषाएँ महाराष्ट्री प्राकृत से पूर्ववर्ती अवस्था की भाषाएँ हैं अत: उनमें (त, थ = द, ध के सिवाय) अल्पप्राण व्यंजनों का प्रायः लोपं होना कहां तक उचित माना जाना चाहिए। पैशाची प्राकृत भी महाराष्टी से पूर्वकाल की भाषा है । उसमें अल्पप्राण व्यंजनों का लोप नहीं है । उसी प्रकार मागधी और शौरसेनी में प्रायः लोप वाला नियम प्राकृत भाषाओं के ऐतिहासिक विकास की दृष्टि से उचित नहीं ठहरता । वररुचि के अनुसार तो मध्यवर्ती त का द प्राकृत में ही होता था परन्तु हेमचन्द्र ने इसका निषेध करके त के लोप को भी सामान्य बना दिया जैसा कि ऊपर उल्लेख हो चुका है । शिलालेखों में घोष और लोप की स्थिति मेहेण्डले द्वारा किये गये शिलालेखीय भाषा के विश्लेषण के Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी २५ अनुसार अंघोष व्यंजनों का घोष ई० स० के पहले से ही (अशोक के समय से ही) प्रारम्भ हो जाता है जबकि उनका लोप ई० स० के पश्चात् गति पकड़ता है । सभी अल्पप्राण व्यंजनों का लोप एक साथ प्रारम्भ नहीं होता है परन्तु समय की गति के साथ बढता है । व्यंजनों के लोप की पूर्वापरता को ध्यान में रखा जाय तो सबसे पहले मध्यवर्ती य,व और द का लोप होता है । उसके पश्चात् ज, प,क,च और त का, उसके बाद ग की बारी आती है । इन सब में पहले य श्रुति को स्थान मिलता है जबकि उवृत्त स्वर का यथावत् रहना अर्थात् शुद्ध लेप की प्रवृत्ति परवर्ती हो ऐसा प्रमाणित होता है (देखिए, मेहेण्डले, पृ २७१-२७४) । शिलालेखीय भाषा में ध्वनि-परिवर्तन (मध्यवर्ती व्यंजनों के घोष, अघोष और लोप) का चित्र इस प्रकार है । घोषीकरण (i) क का ग : ई.स. पूर्व तीसरी शताब्दी में पूर्वी क्षेत्र से फैला च का ज : ई.स. पूर्व तीसरी शताब्दी में पूर्वी क्षेत्र से फैला प का व : ई.स. पूर्व तीसरी शताब्दी में पूर्व और दक्षिण से फैला । त का द' : ई.स. पूर्व तीसरी शताब्दी में उत्तर-पश्चिम और उत्तर से फैला । (ii) थ का ध : ई.स. पूर्व दूसरी शताब्दी में पूर्वी क्षेत्र से फैला ख का घ : ई.स. पूर्व प्रथम शताब्दी में मध्यक्षेत्र से फैला Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के. आर. चन्द्र घोषीकरण की प्रवृत्ति स्पष्ट तौर से ई०स० के पूर्व ही प्रारम्भ हो जाती है और वह भी पूर्वी क्षेत्र से ही अन्य क्षेत्रों में फैलती है. अर्थात् मागधी भाषा का जो प्रदेश माना जाता है वहीं से प्रारम्भ होती है और अन्य क्षेत्रों में फैलती है ।। शिलालेखों में य श्रुति इस प्रकार मिलती है । क की : तीसरी शती ई०स० पूर्व पूर्वी क्षेत्र में पहली शती ई०स० पूर्व पश्चिम में दूसरी शती ई०स० पूर्व दक्षिण में ग की : (i) तीसरी शती ई०स० पूर्व पूर्व,पश्चिम, उत्तर-पश्चिम (ii) प्रथम शताब्दी ई०स० से यह प्रवृत्ति बन्द। . च की : पहली शती ई०स० पूर्व उत्तर-पश्चिम में पहली शती ई०स० मध्य क्षेत्र व दक्षिण में ज की : तीसरी शती ई०स० पूर्व उत्तर-पश्चिम में दूसरी शती ई० स० पूर्व पश्चिम में त की : दूसरी शती ई०स० पूर्व मध्य क्षेत्र में पहली शती ई०स० पूर्व पश्चिम में द की : दूसरी शती ई०स० पूर्व पश्चिम में पहली शती ई० स० पूर्व मध्य क्षेत्र में पहली शती ई०स० पूर्व दक्षिण में अर्थात् य श्रुति इस प्रकार मिलती है :(i) क,ग,ज की तीसरी शती ई०स० पूर्व से । (ii) त,द की दूसरी शती ई० स० पूर्व से । (iii) च की पहली शती ई०स० पूर्व से । मध्यवर्ती व्यंजनों के लोप की प्रवृत्ति (उद्वृत्त स्वर को यथावत् Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी २७. रखना) ई०स० के पश्चात् ही बल पकड़ती है और वह भी पूर्वीक्षेत्र में नहीं, परन्तु अन्य क्षेत्रों (उत्तर-पश्चिम, पश्चिम और दक्षिण) में : पायी जाती है जिसका विवरण इस प्रकार दिया जा सकता हैमध्यवर्ती व्यंजनों के लोप की प्रवृत्ति का प्रसार (i) य का ई०स० पूर्व तीसरी शताब्दी में उत्तर-पश्चिम से अन्य जगह । (ii) व ई०स० पूर्व तीसरी शताब्दी में पश्चिम से अन्य जगह (iii) द का ई०स० पूर्व २५० में पश्चिम से अन्य जगह (iv) ज का ई० स० पूर्व दूसरी शताब्दी में पश्चिम से अन्य जगह (v) प का ई०स० पूर्व प्रथम शताब्दी में उत्तर-पश्चिम से अन्य जगह । (vi) क का ई०स० प्रथम शताब्दी में पश्चिम, उत्तर-पश्चिम और दक्षिण से अन्य जगह । (vii) च का ई० स० प्रथम शताब्दी में उत्तर-पश्चिम, दक्षिण __ और मध्य क्षेत्र से अन्य जगह । (viii) त का ई०स० प्रथम शताब्दी में पश्चिम से अन्य जगह (ix) ग का ई०स० दूसरी शताब्दी मे उत्तर-पश्चिम से अन्य जगह । मेहेण्डले ने अपने उपसंहारों में मध्यवर्ती ध और भ के स्थान पर ह बनने के बारे में कुछ भी नहीं कहा है (पृ० २७१-२७४)। मात्र धातु /भू का 'हो' बनना और तृतीय पुरुष ब० व० की गिभक्ति . भि का सर्वत्र –हि मिलना-इ-ही प्रवृत्तियों का उल्लेख किया गया हैं । अर्थात् अन्य स्थिति में मध्यवर्ती ध और भ का ह में परिवर्तन होने : का उल्लेख करने योग्य सामग्री नहा' है । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..२८ के. आर. चन्द्र शिलालेखीय भाषा के इस विश्लेषण से यही प्रमाणित हो रहा है कि मध्यवर्ती व्यंजनों का घोषीकरण प्राचीन है जबकि लोप उसके • बाद की प्रवृत्ति है । लेाप की प्रवृत्ति का प्रचलन उत्तर-पश्चिम और पश्चिम (अर्थात् विन्ध्य का दक्षिणी भाग भी) में सबसे पहले हुआ और पंजतर, कलवान तथा तक्षशिला के प्रथम शताब्दी के शिलालेखों में तो मध्यवर्ती व्यंजनों का लोप ३० से ३४ प्रतिशत मिलता है । . शारिपुत्र-प्रकरणम् की तुलना में स्वप्नवासवदत्तम् , विक्रमोर्वशीयम् और मृच्छकटिकम्-इन विभिन्न काल के तीन नाटकों में मध्यवर्ती व्यंजनों के घोष बनने की और फिर लोप होने की प्रवृत्ति क्रमश: बढती ही जाती है । आचारांग (म.जै.वि. संस्करण) के प्रथम अध्ययन की भाषा के ध्वन्यात्मक परिवर्तन संबंधी विश्लेषण से पता चलता है कि उसमें मध्यवर्ती ग यथावत् मिलता है, क का लोप मात्र ३५% है और घोषीकरण ६५% है, द का लोप मात्र २०% है, त का लोप भी .३०% है और प का प्रायः व मिलता है। पउमचरियं में मध्यवर्ती प का लेप ७% और प का व ७५% मिलता है । वसुदेवहिंडी में प का व ७१% और लोप ०% मिलता है । आल्सडर्फ द्वारा सम्पादित सूत्रकृतांग के इत्थीपरिन्ना' नामक अध्याय में के का लोप मात्र २२% ही है और क का ग ६५% मिलता है । इसमें मध्यवर्ती ग का लोप १३०/० मिलता है । प को व में परिवर्तन ९५% मिलता है और व का लोप मात्र २४ मिलता है । ऐसी अवस्था में व्याकरणकारों का प्रायः लोप का नियम किस : प्रकार लाग होगा ? कम से कम प्राचीन ग्रन्थों की भाषा पर यह Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी २९ नियम लाग नहीं किया जा सकता है । अतः व्याकरणकारों द्वारा आदिष्ट (मध्यवर्ती व्यंजनों के लोप एवं घोषीकरण के) नियमों में एकरूपता के अभाव से तथा शिलालेखीय प्रमाणों से (कि प्रारम्भ में घोषीकरण और तत्पश्चात् लोप की प्रवृत्ति का विकास हुआ) और प्राचीन साहित्य एवं नाटकों की भाषा इन सभी प्रकार के आधारों से ई०स० पूर्व की तीसरी शताब्दी से प्रथम शताब्दी ई०स० पूर्व तक की प्राकृत भाषा का क्या स्वरूप रहा होगा यह जाना जा सकता है। ऐसी अवस्था में अर्धमागधी आगमों के उन अंशों का जो प्राचीन माने गये हैं, याकोबी महोदय ने तीसरी शताब्दी ई०स० पूर्व से पश्चात् कालीन नहीं माता है-उन उन अंशों में मध्यवर्ती व्यंजनों का प्रायः लोप कहाँ तक उचित माना जाएगा ? अतः ऐसे अंशों का. सम्पादन उपलब्ध सामग्री के आधार पर प्राकृत भाषा के प्राचीन भाषाकीय तत्त्वों का तारतम्य ध्यान में रखकर किया जाना अनिवार्य बन जाता है । इस तथ्य (अर्थात् मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजनों का प्रायः लोप प्राचीन प्राकृत साहित्य में उचित नहीं ठहरता) की पुष्टि उत्तराध्यन के १३वें अध्याय की उन गाथाओं से भी होती है जिन्हें आल्सडर्फ ने प्राचीनतम' बताया है । ये गाथाएं इस प्रकार हैं६, १०, ११, १२, १५, १८, २६, २७ और ३० । इन नौ. गाथाओं का भाषाकीय विश्लेषण इस प्रकार है --(इनमें मध्यवर्ती त. और द के परिवर्तन को छोड़ दिया गया है)। शाण्टियर संस्करण पुण्यविजयजी संस्करण यथावत् घोष लोप यथावत् घोष लोप ० Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ३० के. आर. चन्द्र 5 ० ० १ १३ १ ० १३ . . F ० ० | Gc - ० ० २५ १७ ७ .२६ १७ ५ कुल लोप १४% कुल लोप १०५०/० (i) क का घोष अधिक क का घोष अधिक (ii) ग का लोप अल्प ग का लोप बिलकुल नहीं • (iii) प का लोप नहीं प का लोप नहीं परंतु व परंतु व में परिवर्तन में परिवर्तन (iv) व का लोप नहीं व का लोप नहीं इसी विश्लेषण को अन्य प्रकार से यहाँ पर प्रस्तुत किया जाता है (प्रतिशत के रूप में) घोष यथावत् क २८ ५७ ग ११ - प० य" ० व ध्वनि-परिवर्तन की इस स्थिति को देखते हुए प्राकृत साहित्य के प्राचीनतम माने जाने वाले अंशों की भाषा पर वररुचि और . ० ० 600 ० ० | Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी ३१ हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरणों के प्रायः लोप के नियम लाग नहीं होते हैं । इस दृष्टि से अर्धमागधी आगम ग्रन्थों का पुनः सम्पादन अनिवार्य सा बन जाता है । 1. The Prakrit Grammarians, L. Nitti, Dolci, p. 210, Motilal Banarasidas, 1972 2. Ibid, p. 159 3. आल्सडर्फ के अनुसार (मेहेण्डले के निष्कर्ष का निराकरण करते हुए) अघोष का घोष बनना जिसमें त-द का भी समावेश होता है यह पूर्वी क्षेत्र की ही विशेषता रही है-Kleine Schriften, p. 451, Wiesbaden (1974, A.D.). 4. देखिए आगे-"विशेषावश्यक भाष्य के पाठान्तरों, उत्कीर्ण प्राचीन अभि. लेखों और इसिभासियाई की भाषा के परिप्रेक्ष्य में प्राचीन आगम ग्रन्थों का सम्पादन" 5. देखिए मेरा लेख-''Study of Prakrits in Classsical Dramas : Their Stages in Some Early Dramas", Vidya, Guj. Univ., Aug. 1980, pp. 45-60 6. Ludwig Alsdot : Kleine seriften, 1974 A.D., pp. 197-200 7. Ibid. pp. 186--192 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. मध्यवर्ती उद्वृत्त स्वर के स्थान पर ___ 'य' श्रुति की यथार्थता आचार्य श्री हेमचन्द्र ने अपने प्राकृत व्याकरण में ऐसा नियम दिया है कि मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजनों का लोप होने पर 'अ' और 'आ' शेष रहने पर यदि वे 'अ' और 'आ' के बाद में आये हो तो और कभी कभी अन्य स्वरों के बाद आये हो तो भी उन 'अ' और 'आ' की लघु प्रयत्न के कारण 'य' श्रुति हो जाती है । उनका सूत्र और वृत्ति इस प्रकार हैअवर्णो य श्रुतिः ८.१.१८० कगचजेत्यादिना लुकि सति शेषः अवर्णः अवर्णात्परो लघुप्रयत्नतरयश्रुतिर्भवति ।। नयर, रसायलो, पयावई, पायालं । क्वचिद् भवति (अर्थात् शेष 'अ', 'आ' के पहले 'अ' या 'आ' नहीं होने पर भी) पियइ (पिबति) और सरिया (सरिता ८.१.१५) । व्याकरणकार चण्ड के 'प्राकृत लक्षण' में भी 'य' श्रुति का सूत्र दिया गया है परन्तु हेमचन्द्र की तरह इतना स्पष्ट नहीं है-- ... यत्वमवणे ३.३७ ___ ककारवर्गतृतीययोरवणे परे यत्वं भवति । काका:-काया, नागा:= नाया । वररुचि इस प्रवृत्ति के बारे में मौन है । तो क्या ऐसा माना जाय कि इस 'य' श्रति की प्रवृत्ति वररुचि के बाद में प्रारम्भ हुई या वररुचि ने जिस प्राकृत भाषा का व्याकरण लिखा है उसमें या उनके समय में 'य' श्रुति का प्रचलन ही नहीं था और यह प्रवृत्ति बाद में प्रचलित हुई । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी ३१ आश्चर्य की बात तो यह है कि इस मन्तव्य के विरुद्ध भरतनाट्यशास्त्र में 'म' अति का आंशिक रूप से प्रत्यक्ष रूप में अनुमोदन मिलता है । उसमें निम्न प्रकार का निदेश हैप्रचलाचिराचलादिषु भवति चकारोपि मु यकार: १७. १६ अर्थात् मध्यवर्ती 'च' का 'य' भी होता है । अब लोक-प्रवृत्ति को भी देख लें कि उसमें 'य' अति का प्रचलन था या नहीं और 'य' भुति के नियम का मात्र जैन लेखम परम्परा में ही जो पालन किया गया है यह कहाँ तक उचित है ? पालि साहित्य में लो मध्यवर्ती अलाप्राण व्यंजनों के लोप की प्रवृत्ति है ही नहीं फिर भी उसमें भी कहीं कहीं पर 'य' श्रुति मिलती है जो लोक-प्रवृत्ति के प्रभाव के नमूने मिल रहे हो ऐसा मालूम होता है । गाइगर महोदय' (३६) ने कुछ उदाहरण इस प्रकार दिये हैं जो प्राचीनतम पालि साहित्य में भी मिलते हैं निय(निज)-सुत्तनिपात, आवेणिय (आवेणिक) - विनयपिटक, अपरगोयान (अपरगोदान)-बोधिवंश, खायित (खादित)-जातक । इस 'य' श्रुति का प्रचलन प्राचीन काल से ही था यह शिलालेखों से भी सिद्ध होता है । डॉ. एम. ए. मेहेंडले का इसके बारे में निम्न प्रकार का निष्कर्ष है सम्राट अशोकके पूर्वी क्षेत्र के शिलालेखों में मध्यवती 'क' और 'ग' का कभी कभी लोप होने पर शेष रहे उस 'अ' का जो 'अ' और 'इ' के पश्चात् आता है कभी कभी "य' में बदलने के कुछ उदाहरण प्राप्त हो रहे हैं। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के. आर. चन्द्र ____ यह निष्कर्ष हेमचन्द्र के नियम के साथ पूर्णतः साम्य रखता है । वे आगे कहते हैं कि इसी प्रकार उत्तर-पश्चिम के शिलालेखों में 'आ' और 'ओ' के पश्चात् आने वाले 'ज' का लोप होने पर शेष रहे 'अ' के 'य' में बदलने के कुछ उदाहरण मिलते हैं । अशोक से परवती ई. स. की चौथी शताब्दी तक के भारत के सभी क्षेत्रों में प्राप्त हो रहे शिलालेखों में मध्यवर्ती अल्पप्राण के लोप के बाद उद्वृत्त स्वर की 'य' श्रुति होने के कितने ही उदाहरण मिलते हैं और यथावत् उद्वृत्त स्वर भी मिलते हैं । . शिलालेखों में प्राप्त हो रहे 'य' श्रुति के उदाहरण इस प्रकार दिये जा सकते हैं - (अ) अशोक के शिलालेख अनावुतिय (अनायुक्तिक)- धौली पृथक्, जौगड पृथक् । --उपय (-उपग)-धौली, कालसी, शाह., मान., गिर. । अधातिय (अर्धत्रिक)--लघु शिलालेख । कम्बोय (कम्बोज), रय (राजन्), समय (समाज)-शाहबाजगढं । (ब) खरोष्ठी शिलालेख (i) सहयर (सहचर) K१४', महरय (महराज) K१३'-प्रथम शती ई. स. पूर्व (ii) संवत्सरय (संवत्सरक) K३'-प्रथमशताब्दी ई. स. (iii) अव्यय 'च' का भी 'य' K८६३-द्वितीय शती ई.स.(K८६, - काबुल के पास वर्दक के कलशलेख (Vase Inscp.) से । (iv) महरय (महाराज) K१३', पूय (पूजा) KP, K८०4, K८८ (प्रथम शताब्दी ई. स. पूर्व से तृतीय शताब्दी ई. स. तक) Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण को समीक्षा और अर्धमागधी ज्ञातव्य हो कि प्रो. मेहेंडले द्वारा दिये गये उदाहरणों में (१.२९८२९९) 'य' श्रुति के उदाहरणों के साथ साथ उदाहरणों की मात्रा अधिक है । उद्वृत्त स्वरों के व्याकरणकार वररुचि ने प्राकृत भाषा के जो लक्षण दिये हैं उनके आधार से वे दक्षिण प्रदेश (महाराष्ट्र, विन्ध्यगिरि के दक्षिण का प्रदेश) के निवासी थे ऐसी संभावना हो सकती है - यह एक अनुमान मात्र है । वे दक्षिण प्रदेश के हो और दक्षिण में 'य' श्रुति की यह प्रवृत्ति विद्यमान न हो ऐसी शंका की जा सकती है । परन्तु दक्षिण के शिलालेखों में प्रथम शताब्दी ई. स. पूर्व से ही इस प्रवृत्ति के उदाहरण मिलते हैं (* देखिए आगे पृ. ४५ और अध्याय ८ का अन्तिमपैरा ) । (i) अय - सोपारय ( शूर्पारक ) L १११९ नानाघाट II आय- नाय (नाग) L १०७८, भाजा इय-सामिय (स्वामिक) L१०१६३, नासिक IV उय - पुयथ (पूजार्थ) L १०००३, कण्हेरी ओय - महाभोय ( महाभोज) L१०७३, कुडा (ii) आया - राया (राजा) L १११३, नानाघाट I उया वेण्या (त्रिष्णुका ) L १०६०, कुडा ३५ (iii) अयि-पवयितिका ( प्रव्रजितिका) L १०४१, कुडा पवयित ( प्रत्रजित ) L ११२५, नासिक IV एवं कण्हेरी आयि - मायिला (भ्राजिला ) L १०५०, कार्ले I इयि - वाणियिय ( वाणिजिय- वाणिज्य) L १०५५, कुडा एयि - वेयिका (वेदिका) L १०८९, I Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के. आर. चन्द्र (iv) आयू-पायून (पादोन) L ११३३. नासिक H यही नहीं परन्तु चतुर्थ शताब्दी के मैसूर राज्य के बेलारी जिल्ले के शिवस्कंदवर्मा के हीरहडगल्लि के ताम्रपत्र में भी 'य' श्रति का प्रयोग मिलता है । भारद्दायो (भारद्वाजः), भारदाय (भारद्वाज), अकूर-योल्लक(अकूर-- चोल्लक)। अर्थात् ऐसा अनुमान नहीं लगाया जा सकता कि दक्षिण में यह प्रवृत्ति नहीं थी । इस परिप्रेक्ष्य में वररुचि द्वारा 'य' श्रति का उल्लेख नहीं किया जाना उनके व्याकरण का एक आश्चर्य ही है । शिलालेखों में जो उदाहरण मिलते हैं उनमें सभी स्वरों के पश्चात् आने वाले प्रायः सभी उद्वृत्त स्वरों के स्थान पर 'य' श्रति मिलती है । पिशल महोदय का भी मत है कि जैनों द्वारा लिखी गयी हस्तप्रतों में भी यही स्थिति है परन्तु जैनेतर रचनाओं की हस्तप्रतों में यह 'य' श्रुति नहीं अपनायी मयी है । उनका कहना है की लेखन का सही तरीका यह है कि सभी स्करों के बाद उद्वृत्त स्वर अ और आ के स्थान पर 'य' श्रुति का उपयोग होना चाहिए (पिशल १८७) । आधुनिक भाषाओं में भी यह 'य' श्रुति कितने ही शब्दों में पायी जाती है। हिन्दी : गया, किया, दिया, पिया, अंधियारा, बहिनिया, सियार (शृगाल), सीयाराम (सीताराम), जीयदान, अमिय, पियर । गुजराती : पियर, सीयाल (शृगाल), मायरु, दियर, गयो, शीयालो, होय । बंगाली : शयर (शकर), मोया (मोदक)। मराठी : पाय (पाद)। अन्य शब्द : धनपतराय, रायबहादुर, कायर । वास्तव में उच्चारण की सरलता और लघु-प्रयत्न का सिद्धांत ही Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी ३७ इस 'य' श्रुति में लागू होता है जो एक स्वाभाविक नियम है जिसके लिए व्याकरणकारों का अनुमोदन हो या न हो, परन्तु सभी जैनेतर प्राकृत संस्करणों में 'य' श्रति का नहीं मिलना वास्तविकता के अनुरूप नहीं है । 1. Pali Literature and Language, Geiger, Eng. Trans. by B. K. Ghosh, Delhi-1968, pp. 81-82 2. Historical Grammar of Inscriptional Prakrits : M. A. Mehen. ___dale, Poona, 1948, pp. 271-276 3. Prof. Satya Ranjan Banerjee is also of the same opinion. He says that something like 'Ya Sruti' is noticed by Pāṇini in one of his sūtras. He further surmises---The above survey shows that "Ya' śruti is a natural and logical consequence in language and in Prakrit this is reflected after the elision of some intervocalic consonants--'vide his article : 'Ya-sruti in Prakrit' published in the Jain Journal Calcutta, Vol. XXVI, No. 3, Jan. 1992, pp. 166 and 168. Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. अनुनासिक व्यंजन ङू और ञ् का अनुस्वार में परिवतर्न आचार्य श्री हेमचन्द्र अपने प्राकृत व्याकरण के प्रारम्भ में ही प्रथम पाद के प्रथम सूत्र की वृत्ति में ऐसा कहते हैं कि अनुनासिक व्यंजन ङ् और ज् अपने वर्ग के व्यंजनों के साथ संयुक्त रूप में प्रयुक्त होते ही हैं वृत्तिङ स्ववर्ग्यसंयुक्तौ भवत एव (८.१.१) परन्तु पुनः सूत्र नं २५ में ऐसा आदेश है कि ङ्, ञ्, णू और व्यंजन आने पर उनका अनुस्वार हो जाता है । यथा न् के पश्चात् सूत्र - डाणनो व्यञ्जने (८.१.२५ ) वृत्ति - ङाणन इत्येतेषां स्थाने व्यञ्जने परे अनुस्वारो भवति । उदाहरण- पङ्क्तिः = पंती, पराङ्मुखः परं मुहो, कञ्चुकः-कंचुओ, लाञ्छनम् = लंछणं, षण्मुखः = छंमुहो, उत्कण्ठा = उक्कंठा, सन्ध्या संझा, विन्ध्यः = विझो । इनमें दो प्रकार के उदाहरण हैं - एक स्ववर्ग के और दूसरे परवर्ग के । कंचुओ, लंछणं, संझा, विझो और उक्कंठा स्ववर्ग के हैं । जबकि परंमुहो और छंमुहो परवर्ग के हैं परन्तु साथवाला परवर्ग का व्यंजन भी अनुनासिक ही है । इससे यह फलित होता है कि अनुनासिक व्यंजन यदि किसी भी व्यंजन के साथ संयुक्त रूप में आता है तो उसका अनुस्वार हो जाता है अर्थात् स्ववर्ग के साथ आने पर भी अनुस्वारमें बदल जाता है । इसका अर्थ यह हुआ कि पहले जो कहा गया कि अपने अपने वर्ग Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी ३९ के साथ व्यंजन रूप में प्रयुक्त होता है-उसी के विपरीत यह कहा जा रहा है । ... हेमचन्द्र पुनः ऐसा कहते हैं कि अनुस्वार के पश्चात् वर्गीय - व्यंजन आने पर उसका विकल्प से अनुनासिक होता है । उदाहरणार्थ.... पङ्को--पंको, कञ्चुओ-कंचुओ, कण्टओ-कंटओ, अन्तरं-अंतरं, कम्पइ कंपइ । परन्तु अनुस्वार के पश्चात् स या ह आने पर अनुस्वार ही रहता है, जैसे--संसओ, संहरइ । यथा-- सूत्र-वर्गेन्त्यो वा (८.१.३०) वृत्ति-अनुस्वारस्य वर्गे परे प्रत्यासत्तेस्तस्यैव वर्गस्यात्यो वा भवति । वर्ग इति किम् । संसओ, संहरइ । वे पुनः कहते हैं-- नित्यमिच्छन्त्यन्ये ।। अर्थात् एक परम्परा ऐसी थी जो अनुनासिक व्यञ्जन का स्वर्ग के व्यञ्जन के साथ संयुक्त रूप में प्रयोग नित्य मानती थी । जब हेमचन्द्र के इन तीन प्रकारान्तर के विधानों का मन्थन करते हैं तो यह निष्कर्ष निकलता है कि पहले पहल उन्होंने संयुक्त व्यंजनों में ङ् और अ (अन्य अनुनासिकों की तरह) का प्रयोग मान्य रखा । तत्पश्चात् अनुस्वार का विधान किया और अन्त में अनुस्वार या अनुनासिक दोनों का प्रयोग वैकल्पिक बताया । । इस विषय में वैयाकारण वररुचि का एक ही विधान रहा है जो श्री हेमचन्द्र के अंतिम विधान के साथ मेल रखता है । यथा सूत्र-ययि वर्गान्तः (४.१७) वृत्ति-ययि परतो बिन्दुस्तद्वर्गान्तो वा भवति । उदाहरण- सङ्का, सङ्खो, संका, संखो Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के. आर. चन्द्र वररुचि इन दोनों प्रकार के प्रयोगों को वैकल्पिक मानते हैं जबकि आचार्य हेमचन्द्र पहले अनुनासिक के प्रयोग को मान्य स्खते हैं और बाद में उसे वैकल्पिक बना देते हैं और साथ ही साथ यह भा कहते हैं कि अन्य व्याकरणकार. अनुनासिक व्यंजन के प्रयोग को नित्य मानते हैं। - इसः सबका सार यही निकलता है कि प्राचीनता की दृष्टि से अनुनासिक (ङ् और ञ् का भी) का ही स्वर्ण के व्यंजन के साथ संयुगात रूप में प्रयोग होता था परन्तु बाद में वैकल्पिक रूप में अनुस्वार का प्रयोग होने लगा । प्राचीन. प्राकृतों के बाद अर्वाचीन प्राकृतों में से होकर आधुनिक भाषाओं में अनुस्वार के प्रयोग की ही प्रधानता रही है और उसी का प्रभाव प्राकृत की हस्तप्रतों पर भी पड़ा और धीरे धीरे ङ और ञ के बदले में सिर्फ अनुस्वार का ही प्रचलन बढता गया है । परन्तु स्वयं आचार्य श्री हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण में ङ् और न के सजातीय व्यंजन के साथ संयुक्त रूप वाले प्रयोग ही प्रायः मिलते हैं । धात्वादेश, शौरसेनी, मागधी और अपभ्रंश के उदाहरणों में भी यही स्थिति है । संयुक्त व्यंजन के रूप में प्रयुक्त ङ् के स्थान पर लगभग ६% और ब् के स्थान पर लगभग १३% ही अनुस्वार के प्रयोग हैं । दोनों का सम्मिलित प्रयोग लगभग नौ प्रतिशत ही होता है । पं. श्री बेचरदासजी ने अपने हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण-- ग्रन्थ में (गुजराती) अनेक स्थलों पर अनुनासिक के बदलेमें अनुस्वार के प्रयोग की छूट रखी है। परन्तु पिशल महोदय के प्राकृत व्याकरण में प्राकृत साहित्य से दिये गये उदाहरणों में, शुबिंग महोदय द्वारा Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी - सम्पादित जैन आगमग्रन्थों में, याकोबी महोदय के पउमचरियं में और वाल्सडर्फ महोदय द्वारा सम्पादित इत्थीपरिरमा नाम के अध्याय में संयुक्तरूप में प्रयुक्त कवर्ग और चर्चा के अनुनासिकों का ही प्रायः प्रयोग मिलता है, जो प्राचीन पद्धति का अनुकरण है । पालि भाषा में तो सजातीय व्यंजन के साथ ङ् और ञ् के ही प्रयोग मिलते हैं । पालि की तरह अर्धमागधी भाषा भी प्राचीन भाषा रही है परन्तु आगम-ग्रन्थों के कई आधुनिक भारतीय संस्करणों में अनुस्वार का प्रचलन कर दिया गया है, जो स्पष्टतः किसी न किसी तरह पाइय-सद महण्णवो की पद्धति, आधुनिक भाषाओं और परवर्ती • हस्तप्रतों की लेखन-पद्धति से प्रभावित है । स्पष्ट है कि बदलती हुई इस पद्धति का प्रभाव प्राचीन प्राकृत साहित्य की अर्वाचीन हस्तप्रतों पर भी पड़े बिना नहीं रह सका । आचार्य श्री हेमचन्द्र द्वारा दिये गये कुछ उदाहरण, जिनमें अनुस्वार के स्थान पर अनुनासिक का प्रयोग है, इस प्रकार दिये जा सकते हैंकञ्चुइआ (४.२६३), हजे (४.२८१) कञ्चुइया (४.३०२), हजे (४.३०२) शौरसेनी मागधी अपभ्रंश वकु (४.३३०), अड्गु (४.३३२) मुञ्जन्ति (४.३३५) उच्छङ्गि (४.३३६) हेमचन्द्र के निम्न सूत्रों एवं उदाहरणों में अनुस्वार के बदले ४१ अनुनासिक का प्रयोग है शुल्के जोवा (८.२.११) सुन, सुक्कं (पं. श्री बेचरभाई के अनुसार सुंग पृ. १०७) शाङ्गात्पूर्वात् (८.२.१००) सारङ्ग । पिशल द्वारा जैनेतर साहित्य से दिये गये उदाहरणों में अनुनासिक व्यंजन के प्रयोग -: Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૨ के. आर. चन्द्र अङ्गार (हाल), भुञ्जसु (हाल), पउञ्ज (कपूरमञ्जरी) । . गाथासप्तशती एवं सेतुबन्ध की तरह ही भास के नाटकों में भी इन दोनों अनुनासिकों के प्रयोग मिलते हैं जब वे सजातीय वर्ण के साथ प्रयुक्त हुए हैं । . अन्त में ऐसा कहना अनुचित नहीं होगा कि इ. और ञ् के बदले में अनुस्वार का प्रयोग परवर्ती काल का है । अतः प्राचीन साहित्य में प्राचीन प्रयोग ही यथावत् रखने हो तो अर्धमागधी के ग्रन्थों के सम्पादन में और बू के प्रयोगों को अनुस्वार में नहीं बदलना चाहिए और याकोबी, शुबिग तथा आल्सडर्फ महोदय की पद्धति का अनुकरण किया जाना चाहिए । - आचाराङ्ग के आगमोदयसमिति के संस्करण में कवर्ग और चवर्ग के अनुनासिक व्यंजनों का सजातीय व्यंजनों के साथ प्रयोग इस प्रकार मिलते हैं-- संवाय ९.१.१३, भुञ्जित्था ९.१.१८,१९, भुजे ९.४ ७ पलालपुजेसु ९.२.२, संलुञ्चमाणा ९.३.६ इत्यादि । इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि यही पुरानी पद्धति है । समय के प्रभाव से हस्तप्रतों में से अनुनासिक व्यंजन ङ् और ज के प्रयोग निकल गये । प्रतियां भी तो दसवीं-ग्यारवीं शताब्दी के बाद की ही मिलती हैं अत: उनमें ऐसे प्रयोग नहीं मिलना स्वाभाविक है। परंतु प्राचीन भाषा की प्राचीन कृतियों के सम्पादम में प्राचीन पद्धति अपनायी जानी चाहिए । 1. सिद्धहेमशब्दानुशासन, लघुवृत्ति, खण्ड-3, ॐध्याय-8 (प्राकृत व्याकरण), युनि..... ग्रन्थ-निर्माण बोर्ड, अहमदाबाद, 1978 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ प्राचीन प्राकृत भाषा में आद्य नकार या णकार नमो अरहतानं नमो सवसिधानं -(हाथीगुफा शिलालेख) जैन धर्म मे पंच परमेष्ठि को सर्वोत्कृष्ट स्थान दिया गया है और उनसे सम्बन्धित ही नमस्कार मन्त्र प्रचलित है और हर जैन प्रातःकाल में इसी मन्त्र का पाठ करता है । प्रचलित मन्त्र के प्रथम दो पद इस प्रकार के हैं --- नमो अरिहंताण नमो सिद्धाणं ___ अथवा एवं अथवा णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं यहाँ पर हमारा प्रस्तुत विषय यह है कि शब्दों के प्रारम्भ में दन्त्य 'न' कार के बदले में मूर्धन्य 'ण' कार का प्रयोग प्राचीनतम प्राकृत भाषी (अर्धमागधी) ग्रन्थों में प्रचलित था या नहीं और उस साहित्य के आधुनिक संस्करणों में उसे जिस प्रकार प्रचलित किया गया है वह कहाँ तक उचित है ? सर्वप्रथम ऊपर जो दो पद दिये गये हैं वे कलिंगाधिपति महाराजा खारवेल के हाथीगुफा शिलालेख से उद्धृत हैं । खारवेल का समय प्रथम और/या द्वितीय शताब्दी ई.पू. माना जाता है । राजा खारवेल निग्रंथ भक्त थे । वे ही मगध देश के राजा वृहस्पतिमित्र को अपने चरणों में नमाकर ३५० वर्ष पूर्व नन्दराजा द्वारा हड़प की गयी जिन प्रतिमा को वापिस अपने यहाँ लाये थे । स्पष्ट है कि वे निम्र थ धर्म के दृढ भक्त थे। उन्हीं के शिलालेख में नमस्कार Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के. आर. चन्द्र मन्त्र के ये दो पद अंकित हैं और यह मानने में कोई आपत्ति नहीं होगी कि यह मन्त्र अपने मूल रूप में 'नमो' से ही प्रारंभ होता : था न कि णमो' से और मध्यवर्ती 'न' कार भी अपरिवर्तित था । यह तो भारत के पूर्व देश की बात हुई जहाँ पर जैन धर्म भगवान् • महावीर के समय में बहुत फूला फला । उसी प्रकार मथुरा (यानि शूरसेन प्रदेश, जिससे शौरसेनी प्राकृत ' का नामकरण हुआ) के प्रथम शती ई. सन् के राजा शोडास के लेख में भगवान् महावीर को नमस्कार करके लेख अंकित किया गया है • जिसका पाठ इस प्रकार है नम अरहता वधमानस (नमः अर्हते वर्धमानाय) हेमचन्द्राचार्य ने भी शौरसेनी प्राकृत के लक्षण समझाते समय आर्ष भाषा के अव्यय णं का उदाहरण देते समय 'नम:' के लिये 'नमो' का उल्लेख किया है। उदाहरण- नमोत्थु णं (८.४.२८३)। जैन धर्म पूर्व से पच्छिम की ओर फैलता है और शरसेन प्रदेश में आने पर भी 'नम' का 'नम' ही रहा, उसमें 'न' का 'ण' नहीं हुआ । आवश्यकसूत्र' में प्रथम बार मिलनेवाला नमस्कार मन्त्र भी 'न' से शुरू होता है :- नमो अरहंताणं । सम्राट अशोक के शिलालेखों में लगभग १२५ शब्द (जिनका कितनी ही बार प्रयोग हुआ है) 'न' कार से ही प्रारम्भ होते हैं । मात्र एक बार ही एक शब्द 'न' के बदले में 'ण' से प्रारम्भ होता है । वह शब्द है _ 'णि झ [पे] त [वि] ये' जो जौगढ़ के प्रथम पृथक् शिलालेख Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और मधमागधी में मिलता है । विद्वानों के अनुसार यह पाठ भी शंका से मुक्त नहीं है । इसी शब्द के अन्य प्रयोग अशोक के अन्य शिलालेखों में ग्यारह बार और मिलते हैं, जिनमें शब्द के प्रारम्भ में 'नि' का प्रयोग ही हुआ है । पूर्वी भारत के खारवेल के शिलालेख में भी एक बार भी प्रारम्भिक . 'न' का 'ण' नही मिलता है । शब्दों में प्रयुक्त प्रारम्भिक 'न' के , कुछ शिलालेखीय और भी उदाहरण चतुर्थ शताब्दी तक के दिये जा सकते हैं, यथा निसिलं (बी, बड़ली) अजमेर, ई. स. पू. द्वितीय शताब्दी । नमो (विजय सातकर्णी, नागार्जुनीकोण्ड) ई. स. तृतीय शती ।। 'न' कार को 'ण' में बदलने की प्रवृत्ति दक्षिण भारत से प्रारम्भ हुई हो ऐसा माना जाता है । फिर भी दक्षिण में भी चतुर्थ शताब्दी के कितने ही प्रयोग ऐसे मिलते हैं जिनमें 'न' कार भी मिलता है। शिलालेखों में जो प्रवृत्ति मिलती है उसका सार प्रो० मेहेंडले (पृ. 256) के अनुसार इस प्रकार है __ प्रारम्भिक 'न' का 'ण' अशोक के समय में सिर्फ दक्षिण में कोपबाल के लेख में कभी कभी मिलता है । तत्पश्चात् मध्य भारत में दूसरी शताब्दी ईस्वी सन् पूर्व से और (दक्षिण भारत के) पश्चिमी क्षेत्र में (पूना इत्यादि) प्रथम शताब्दी में पाया जाता है। निश्चयात्मक उदाहरण प्रथम शताब्दी. से. उत्तर-पश्चिम में पाये जाते हैं। पुनः मध्य भारत में चतुर्थ शताब्दी से पाये जाते हैं । शिलालेखों में शब्द के प्रारम्भ में नकार के स्थान पर णकार के . प्रयोग प्रारंभ हो जाने पर भी कुछ प्रयोग प्रारंभिक नकारवाले भी मिलते हैं। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के. आर. चन्द्र (i) वेसनगर और भिलसा के लेखों में (द्वि. शती ई. स. पूर्व)-नेति (ii) ई. स. चतुर्थ शती (अ) वीरपुरुषदत्त-स्तंभ-लेख, नागार्जुनी-कोण्ड, नागवसु, नागसिरि, (ब) गुणपदेय ताम्रपत्र, गुण्टुर- निवत्तणा, नारायण और (स) शिवस्कंदवर्मन का ताम्रपत्र, हीरहडगल्लि, बेलारी-नेयिके, नंदिजस, नागनंदि , निगह, नराधम, निवतणं, नो (नः) । नकार को 'ण' में बदलने की मूल प्रवृत्ति दक्षिण की ही रही है जो बाद में अन्य क्षेत्रों में फैली है । प्राकृत व्याकरणकारों का नियम : वररुचि के प्राकृत-प्रकाश के अनुसार प्रारम्भ और मध्य में सर्वत्र नकार का णकार होता है. नो णः सर्वत्र-२.५२ सूत्र और वृत्ति । भरतनाट्यशास्त्रानुसार भी सर्वत्र णकार होता है । यथा-- सर्वत्र च प्रयोगे भवति नकारोऽपि च णकारः ॥ १७.१३ ।। परन्तु हेमचन्द्र इस नियम से सहमत नहीं हैं। , आदि नकार के लिए उनका सूत्र है-- वादौ (८.१.२२९) ____ वृत्ति............नस्य णो वा भवति । अर्थात् वे आद्य नकार का ण में परिवर्तन वैकल्पिक मानते हैं और उनके द्वारा णरो, नरो; गई, नई; णेइ, नेइ-दोनों प्रकार के उदाहरण दिये गये हैं। णकार सम्बन्धित सूत्रों के अन्तर्गत वररुचि ने जो उदाहरण दिये हैं और पूरे व्याकरण में अन्य नियमों के अन्तर्गत जो उदाहरण Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी मिलते हैं उन सब में प्रारम्भिक नकार के बदले णकार ही मिलता है । परन्तु हेमचन्द्र द्वारा दिये गये उदाहरणों की कथा कुछ और ही है। उन्होंने शब्द के प्रारम्भ में न के लिए वैकल्पिक णकार का परंपरागत नियम तो अपनाया परन्तु चौथे पाद में दिये गये धात्वादेशों को छोड़कर जितने भी उदाहरण अपने व्याकरण में प्राकृत भाषा के अन्तर्गत दिये हैं उनमें प्रारम्भिक नकार के लिए प्रयुक्त नकार और णकार का अनुपात ८:१ है अर्थात् नौ प्रयोगों में से एक शब्द में ही णकार है । धात्वादेशों में भी शब्दों के प्रारंभ में नकार के लिए नकार ३४ बार और णकार ५५ बार" मिलता है और उनका अनुपात २:३ का है । हेमचन्द्र के अपभ्रंश व्याकरण ८.४.३३२-४१२) में भी शब्द के प्रारम्भ में नकार के लिए प्राय: 'न' ही मिलता है। डॉ. पी. एल. वैद्य और पं. बेचरभाई दोशी4 के हेमचन्द्र के प्राकृत-व्याकरण के संस्करण में यही स्थिति है । डा. भायाणी ने आरम्भ में कुछ पदों में णकार अपनाया है परन्तु बाद के सभी पदों में नकार ही रखा है । प्राकृत भाषा की प्राचीन रचनाओं के अमुक संस्करणों में भी यही स्थिति है । मुनि पुण्यविजयजी द्वारा सम्पादित (म. ज. वि. संस्करण) उत्तराध्ययन, दशवैकालिक और आवश्यकसूत्र में प्रायः नकार का ही प्रयोग मिलेगा। वसुदेवहिंडी का जो संस्करण छपा है उसमें भी प्रारम्भिक नकार का प्रायः नकार ही मिलता है, जो हेमचन्द्र से करीब ६०० से ८०० वर्ष पुरानी कृति है । डॉ. याकोबी द्वारा सम्पादित घउमचारियं-विमलरि में भी यही स्थिति है । श्री एम.वी. पटवर्धन . द्वारा सम्पादित वज्जालगं में भी प्रारंभिक न का प्रायः न ही मिलता.. है । आचार्य जिनविजय मुनि द्वारा सम्पादित नम्मयासुन्दरीकहा में प्रारंभिक न की प्रायः यही स्थिति है। नम्मयासुन्दरीकहा १२ वीं शती Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ के. आर. चन्द्र की रचना है, जो हेमचन्द्राचार्य के समय के बहुत नजदीक की है. अर्थात् प्रारंभिक न का ण प्रायः नहीं मिलता है । शिलालेखों और. मुद्रित संस्करणों के इस परिप्रेक्ष्य में प्रो. नीति डोल्बी का निम्न अभिप्राय कितमा वास्तविक लगता है : उनका कहना है कि वररुचि का नकार का सर्वत्र णकार बनाने का नियम पिशल को मान्य हो परन्तु जुल्श ब्लोख को यह नियम मान्य नहीं है । प्राकृत के अन्य व्याकरणों और उनकी कारिकाओं के आधार पर से उनका ऐसा मत है कि वररुचि के अनुसार प्रारम्भिक न का ण कुछ शब्दों तक ही सीमित था परन्तु बाद में "नादौ" का सूत्र “वादी" बन गया और आगे चलकर “वादो" भी निकल गया और सर्वत्र 'न' का 'ण' हो गया जो किसी न किसी प्रकार की भूल से ऐसा हुआ है । ध्यान देने की बात यह है कि स्वयं हेमचन्द्राचार्य द्वारा दिये गये शौरसेनी और मागधी के उदाहरणों में कितने ही शब्दों में प्रारंभ में नकार मिलता है (८.४.२६०-३०२) (i) शौरसेनी–निच्चिन्दो, नाडयं, नेदि, नियविधिणो (H) मागधी-नले, नमिल, मिस्फलं, नलिन्दाणं अव्ययों के उदाहरण- न (२९९), नु (३०२). उनके अनुसार शौरसेनी में अव्यय ननु का णं होता है (८.४.२८३) । प्रो. नीति डोल्ची को भी शंका है कि सर्वत्र नकार का णकार (वररुचि के अनुसार) होता होगा। उनके अनुसार प्रारंभिक अवस्था में मात्र नूनं जैसे अव्यय के लिए पूर्ण का प्रयोग होता होगा । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्घमागधी १९ इस पूरी समीक्षा से ऐसा निष्कर्ष निकलता है कि प्राचीन प्राकृत भाषा में प्रारंभिक 'न' का 'ण' नहीं होता था और यह तो बाद की प्रवृत्ति है । इस दृष्टि से प्राचीन अर्धमागधी आगम ग्रन्थों के सम्पादन में प्रारम्भिक 'न' का 'न' ही रखा जाना चाहिए और सम्पादकों ने जो अलग अलग पद्धति अपनायी हैं उसे सुधारने की आवश्यकता प्रतीत होती है । __ अर्धमागधी आगम साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ आचरांग है और उसके संस्करणों को देखे तो स्पष्ट होगा कि शुबिंग महोदय के संस्करण में प्रारंभिक नकार प्रायः नकार ही रखा गया है जबकि आगमोदय समिति के संस्करण में पचास प्रतिशत णकार मिलता है । जैन विश्व भारती के संस्करण में प्रायः णकार अपनाया गया है और महावीर जैन विद्यालय के संस्करण में तो पचहत्तर प्रतिशत णकार अपनाया गया है । इस सारे विवेचन का सार यहीं है कि वररुचि का सर्वत्र नकार का णकार बनाने का विधान प्राचीन शिलालेखों और प्राचीन साहित्य में उपलब्ध प्रयोगों के अनुरूप नहीं है । यह नियम मात्र किसी एक प्राकृत (महाराष्ट्री) तक ही सीमित है । इस सम्बन्ध में हेमचन्द्राचार्य का विधान योग्य लगता है । अतः प्राचीनतम प्राकृत साहित्य के नये संस्करणों में शब्द के प्रारंभ के नकार के लिए नकार ही रखा जाना चाहिए और जिन्होंने नकार के बदले में णकार अपनाया है उन पर परवर्ती प्रवृत्ति का प्रभाव है और कुछ अंश में पाइय-सद्द Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के. आर. चन्द्र महण्णवो में कोष सम्बन्धी सुविधा के लिये अपनायी गयी पद्धति का प्रभाव मालूम होता है, ऐसा कहना अनुचित नहीं होगा। ... 1. आवश्यक चूर्णी (श्री ऋषभदेव केसरीमल, रतलाम १९२८) पृ. 1 महानिशीथ की प्राचीनतम प्रति में भी यही पाठ मिलता है । 2. उदाहरणार्थ - नेइ, नहेण, निसिआ, निद्दए, निसावन्नु, निय, नेहडा, निन्छ। निवडिआइँ नरू निचु, निज्जि उ, नारायणु । अध्ययन भी अनेक बार मिलता है- न (335,340, 391), नवि (339), अन्यय न भी (392) । 3 प्राकृत ग्रामर ऑफ हेमचन्द्र ---पी. एल. वैद्य, पूना, 1928 4. सिद्ध हेमशब्दानुशासन, लघुवृत्ति, खण्ड -3 अध्याय-8 (गुजराती) प. बेचरदास दोशी, युनि. ग्रन्थ निर्माग बोर्ड, अहमदाबाद--1978 5 अपभ्रश व्याकरण (गुजरातो), ह. चू० भायाणी, फार्बस गुजराती सभा, मुंबई 1971 6 वसुदेव हेण्डी, प्रपम खड, श्री जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, 1930 7. Prakrit Gramnnarials, Motilal Banarasidas, 1972, pp. 19-20. Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. प्राचीन प्राकृत भाषा में मध्यवर्ती नकार (क) व्याकरण और साहित्य प्राकृतभाषा के प्राचीनतम सुज्ञात व्याकरणकार वररुचि का मध्यवर्ती नकार के विषय में आदेश है : नो णः सर्वत्र ( प्राकृत प्रकाश 2.42 ) आचार्य श्री भरत के नाट्यशास्त्र में भी ऐसा ही नियम मिलता हैसर्वत्र च प्रयोगे भवति नकारोऽपि च णकारः - ( भ.ना.शा. 17.13 ) परन्तु हेमचन्द्राचार्य का विधान इन दोनों से कुछ अलग है | मध्यवर्ती नकार के विषय में उनका सूत्र और उस पर की वृत्ति इस प्रकार है - सूत्र - नाणः ( 8.1.228 ) वृत्ति - आयें आरनालं, अनिलो, अनलो इत्याद्यप । अर्थात् वररुचि और भरतमुनि नकार के लिए सर्वत्र णकार के प्रयोग का आदेश देते हैं परन्तु हेमचन्द्राचार्य के अनुसार आप प्राकृत अर्थात् अर्धमागधी भाषा में कभी-कभी मध्यवर्ती नकार के प्रयोग भी मिलते हैं । आचार्य श्री हेमचन्द्र ने अपनी वृत्ति में भले ही कभी - कभी दन्त्य नकार के प्रयोग अर्धमागधी तक ही सीमित रखे हो परन्तु उनके ही व्याकरण ग्रन्थ में मागधी और शौरसेनी प्राकृत में भी मध्यवर्ती नकार के प्रयोग मिलते हैं । मागधी में - धनुस्खंड ( 8.4.289 ) और संयुक्त व्यंजन के रूप में एक प्रयोग है : - विस्तु ( 8.4.289 ) -- Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के आर. चन्द्र यह तो उलटा ण-न का प्रयोग (विष्णुम् ) है । मागधी और शौरसेनी भाषा में - तदो पूरिदपदिन मारुदिना मन्तिदो ( 8.4260 ) जैसे प्रयोग हैं । पं. बेचरभाई दोशी ने हेमचन्द्राचार्य के इस ग्रन्थ के गुजराती संस्करण में मारुदिना के स्थान पर मारुदिणा पाठ दिया है । 2 (देखिए पृ. 369 ) 1 ५२ मध्यवर्ती नकार के लिए कभी-कभी नकार का अपवाद के रूप में प्रयोग क्या प्राचीन जैन साहित्य तक ही मर्यादित था ? नहीं, ऐसा नहीं था | इतर साहित्य मे यहाँ तक कि महाराष्ट्री प्राकृत काव्य में भी ऐसे प्रयोग कभी कभी मिल जाते हैं । यथा१. शारिपुत्रप्रकरणम् के प्राकृत अंशों में नकार का णकार मिलता ही नहीं है । २. स्वप्नवासवदत्तम् में अपवाद के रूप मे मध्यवर्ती नकार का प्रयोग मिलता है - विना, ३. गाथासप्तशती में ये दो प्रयोग हैं- हिअअव्वण - फोडनं ( 381 ) नाथ ! तुमं ( 384 ), 4 यह प्रारम्भिक नकार का उदाहरण है । वेबर महादय के संस्करण में इन स्थलों पर 'हिअअवण फोडणं' और 'णाह' पाठ अपनाये गये हैं ।' क्यां यह वररुचि के प्राकृत व्याकरण का उन पर अति प्रभाव तो नहीं है ? ४. प्राचीन अर्धमागधी ग्रन्थों में भी अनेक बार मध्यवर्ती नकार की उपलब्धि हो रही है । यथा(1) आसडर्फ महोदय ने अर्धमागधी अध्ययन संपादित किये हैं उनमें बार यथावत् मिलता है 16 यथा आगम साहित्य से जो जो मध्यवर्ती दन्त्य नकार अनेक Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी (II) (अ) स्त्रकृतांग(1.4) के इत्थी-परिन्ना अध्ययन में-सुहुमेनं 1.2, अंजनसलागं 2.10 , (ब) उत्तराध्ययन के अध्ययन .5 मेमोनं (15.1), सुमिनं (15.7), सिनाणं (15.8), भोजन (15 11), जवोदनं (15.13) एवं (स) दशवैकालिकसूत्र मे-न खने (10.2), सुनिसियं (10.2)। (III) शुब्रिग महोदय द्वारा सम्पादित 'इसिभासियाई” नामक एक प्राचीन अर्धमागधी ग्रन्थ मे तो मध्यवर्ती नकार की यथावत् स्थिति अन्य आगम ग्रन्थों से अधिक मात्रा में पायी जाती है, जैसे अ. 1 2 में परिनिव्वुडे, 9. पं. 2 में उवनिचिज्जइ, पं. 8 मे भत्तपाण-निराहणाइ एवं 91 मे अनिव्वाणं, 9.5 में अनियत्ती, 9.12 में बद्धपुट्ठ-निधत्ताणं, 9.28 में अनियट्टी, 10.8 मे कालक्कमनीति-विसारदे, 17.3 में विनिच्छितं (पाठान्तर), 24. पं 9 में अनवदगं, .4.24 में अनलो, 24.39 में निच्चानिच्च, 24. 40 में थानं, 38.24 में मोक्खनिव्वत्तिपाओग्गं, 40 पं. 2 मे अनिगहन्तो, 418 में अभिनन्दती, 419 में तवनिस्साए । ऊपर ।। इत्थीपरिन्ना का - सुहुमेन का उदाहरण तृतीया ए.व. की विभक्ति का है। इसिभासियाई में 24.13 मे ष. ब. व. के 'न' विभक्ति प्रत्यय की संभावना है- सव्वत्थानाऽभिलुप्पति । हेमचन्द्र के मागधी-शौर सेनी के प्रकरण से नकार वाली तृतीया विभक्ति के दो उदाहरण ऊपर आ चुके हैं जो विशेष (पदिओन मारुदिना) ध्यान देने योग्य हैं । ... इस संदर्भ में हमारे द्वारा विद्वानों का ध्यान आकर्षित करने का विशेष कारण यह है कि इस ग्रन्थ मे' महाकासव नामक अध्ययन (९)में मध्यवर्ती नकार ६ बार यथावत् मिलता है और अन्य Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ . के. आर. चन्द्र अध्ययनों में से कितने ही ऐसे प्रयोग यहाँ पर प्रस्तुत हैं ही । इस ग्रन्थ पर तो मध्यवर्ती नकार का प्रायः णकार होने का नियम घटित ही नहीं होता है, सर्वत्र की तो बात ही कहाँ रही । मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजनों का प्रायः लोप होने का नियम भी इस ग्रन्थ पर लागू नहीं होता है । इसका अर्थ यही है कि इस ग्रन्थ की हस्तप्रतों में कालक्रम से शब्दों के मध्यवर्ती व्यंजनों मे इतना ध्वनि-परिवर्तन नहीं हुआ जितना अन्य अर्धमागधी आगम-ग्रन्थों की हस्तप्रतों में हुआ है । इसी कारण 'इसिभासियाई' की भाषा मे शब्दों के मध्यवर्ती मूल व्यंजन अधिक प्रमाण में बचे हुए हैं । (IV) आचारांग से उदाहरण अ शुब्रिग संस्करण ( सूत्र नं. म. जै. वि. के संस्करण से । ) अनिच्चयं १.१.५.४५, विनस्सइ १.२.३.७९, १.२.४.८२, अभिनिव्वत्तेज्जा १.३.४.१३०, अनिहे १.४.३.१४१, अनियाणा १.४.३.१४२, अनवयमाणे १.५.२.१५२, अनिहे १.५.३.१५८, विनिविट्ठचित्ते १.२.१.६३, १.६.१.१७८, अभिनिव्वट्टा १.६.१.१८१, अभिनिक्खन्ता १.६.१.१८१, अनिहे १.६.५.१९७, अनिसटुं. १.८.२.२०४, आनक्खेस्सामि १.८.५.२१९, अभिनिव्वुडच्चे १.८.६.२२४, अभिनिव्वुडे १.९.४.३२२ इत्यादि । (ब) आगमोदयसमिति संस्करण परिनिव्वाणं १.१.६.५०, अपरिनिव्वाणं १.१.६.५०, अपरिनिव्वाणं १.४.२.१३३, अनियट्टगामीणं १.४.४.१३७, बहुनडे १.५.१. १४५, अनुगच्छन्ति १.५.५.१६१, अभिनिव्वुडा १.६.१.१७९, अभिनिकता १.६.१.१७९, परिनिव्वुडे १.६.५.१९५, अभिनिवुडच्चे Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी ५५ १.८:६.२२१, अभिनिव्वुडच्चे १.८.७.२२६, अभिनिव्वुडे १.९.४, (गाथा. १६), पिंडनिगरेसु २.१.२.१२, अवनमिय (२) २१.६ ३२, उवनिक्खिते २१.७३७, उवनिमंतिज्जा २.१ १०.५८, उवनिक्खित्तपुब्वे २१ ११.६२, अनिमंतेमाणस्स २.२.३.९०, अभिनिवारियं २.३.२.१२५, उवनिमंतिज्जा २.७ १.१५६, उवनिमंतिज्जा २.७.१.१५७, -अनीहडं २.१६५, उवनिमंतंति, उवनिमंतित्ता २.१७६, परिनिव्वाइस्संति २.१७८, अभिनक्खमणं २.१७९ (गाथा १) . (V) अ. सूत्रकृतांग (म. जै. वि.) सुनिरुद्ध देसण १२.३.१५३, परिनिव्वुडे १.३.३ २२४, १.२४६, सनिमित्त २.१.६४४, अभिनिव्वट्टित्ताणं २.१.६५०, (८ बार) अभिनिव्वदे॒त्ताणं २१.६५०, नवनीतं २१.६५०, अनिरए २१.६५१, परिनिव्वुड २.१.६८२, ७११, अनिव्वाणमग्गे २२.७१०, परिनिचायति २.२.७१४, अभिनिव्वट्टमाणा २.३. ७३२, ७३३. ब. सूत्रकृतांग (आगमोदय) अनिययं ११.२ ४ विनियच्छइ ११२ १७ अभिनिव्वुडा १.२.१.१२ अनेसी १२ २.१ सुनिरुद्ध दंसगे १२.३.१२ अनारिया १३ १ १४ परिनिव्वुडे १.३ ३ २१ अभिनिव्वुडे १.८.२५ अभिनिव्वुडे ११०.४ अभिनिव्वट्टित्ता २ १९ (९ बार) अनिरएइ २१९ सनिमित्तं २.१ ७ परिनिव्वुडे २ १.१५ अनिव्याणमम्मे २.२ ३२ परिनिम्बुडे २२.३३ उवनिहिया २२.३८ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ के. आर चन्द्र परिनिब्बाणं २ २ ४० अभिनिवट्टमाणा २.३.५६, ५७. परिनिब्बुडे २ ४.६७ नवनीय २.१.९. (VI) उत्तराध्ययन (म. जै. वि.) . अनुच्चे १.३०, सुनिट्ठिर १३६ परिनिष्ठिए २.३२ । प्राचीन प्राकृत भाषाओं मे ही नहीं परंतु अपभ्रंश भाषा में भी मध्यवर्ती नकार वाले प्रयोग मिलते हैं जो हेमचन्द्राचार्य के व्याकरण (अध्याय ८.४) से प्रस्तुत किये जा सकते हैं। यथा-विरहानल, अनु (अन्यथा) ४१५, वडनवानल ३६५, विनडिज्जइ ३७०, विनडउ ३८५ सासानल. ३९५, रयणनिहि ४२२ इत्यादि । संयुक्ताक्षर में भी नकार प्राप्त है । यथा-बिन्नि, विन्नासिया ४१८, अघिन्नई(अधीनानि) ४२७ । इस प्रकार प्राकृत साहित्य में और वह भी सविशेष प्राचीन प्राकृत साहित्य में मध्यवर्ती नकार के प्रयोग की बिलकुल नास्ति नहीं रही है । कभी कम मात्रा मे तो कभी अधिक मात्रा में अपवाद के रूप में भी उसका प्रयोग होता रहा है, और विभक्ति प्रत्यय में भी चार छ उदाहरण दन्त्य नकार वाले प्राप्त हुए हैं (स्. कृ. के आगे के चूर्णी-पाठ भी देखिए ) । (ख) हस्तप्रतों में मध्यवर्ती नकार . हस्तप्रतों का अवलोकन करने पर यही स्थिति उपलब्ध होती है । यहाँ पर एक वस्तु ध्यान में लेने योग्य यह है कि प्राचीन ग्रंथों के सम्पादकों ने शायद यह नियम स्वीकार कर लिया कि सम्पादित ग्रंथ में मध्यवर्ती नकार वाले पाठान्तरों का निर्देश करना व्यर्थ है क्योंकि प्राकृत भाषा के व्याकरणों के अनुसार मध्यवर्ती नकार का Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी कार ही होता है । अतः सम्पादित ग्रंथों में ऐसे नकारवाले शब्दों के पाठान्तर प्रायः नहीं दिये गये हैं, जबकि हस्तप्रतों में कितने ही मध्यवर्ती नकार वाले पाठ मिलते हैं । इससे स्पष्ट है कि परम्परा ऐसी नहीं थी कि सर्वत्र नकार का णकार कर दिया जाय । हस्तप्रतों में उपलब्ध हो रहे मध्यवर्ती नकार वाले पाठों का कुछ दिग्दर्शन यहाँ किया जा सकता है । स्वीकृत पाठ 4 [ आचरांग ( म. जै. वि . ) ] कट्टणिस्सता 1.1.4.37 अपरिणिव्वाणं 1.1.649 छज्जीवणिकाय सत्थं 1.1.7.62 असि वा अंतिए 1.1.1.2 २ [ सूत्रकृतांग, 1.4 ( इत्थीपरिन्ना ) ] ( म. जै. वि . ) सुमेण 1.2 छन्नपदेण 1.2 garfor 1.4, 16 इससे यह निष्कर्ष नकार का प्रयोग न अपनाकर प्रयोग ही उचित माना हैं । हस्तप्रत में पाठान्तर [ पूना की प्रत ( शुब्रिंग ) ] कट्ठनिस्सिया अपरिनेव्वाणं छज्जीवनिकाय सत्यं अन्नेसिं वा अतिए, चूर्णी पृ. 13.1 ५७ छन्नपदेन " सुहुमेनँ ( आल्सडर्फ ) सुमेन ( चूर्णी पाठ ) 8 पाठान्तर एतानि " ܕܐ "" निकलता है कि सम्पादकों ने मध्यवर्ती उसके स्थान पर सर्वत्र णकार का Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ के. आर. चन्द्र (ग) शिलालेख . हस्त प्रतों में कालान्तर से चालू भाषा के प्रभाव के कारण, भाषिक परिवर्तन हो जाना एक सामान्य बात है परंतु शिलालेखां की: भाषा उत्कीर्ण होने के कारण उसमे कोई परिवर्तन नहीं होता है । अतः उनकी भाषा में मध्यवर्ती नकार के जो अनेक प्रयोग मिलते हैं वे प्राकृत भाषा के अध्ययन की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करते हैं । निम्न उदाहरणों से स्पष्ट होगा कि मध्यवर्ती न का ण में परिवर्तन होते हुए भी कितने ही प्रयोग ऐसे चलते थे जिनमे मूल नकार यथावत् ही रहता था : (1) ई. स. पूर्व दूसरी शताब्दी के भिलसा, (वेसनगर) के शिलालेख में भागवतेन, योनदूतेन, आगतेन, राजेन, पदानि, वधमानस, योन, आदि । अजमेर (बी) के शिलालेख में-मालिनिये । (II) ई. स. पूर्व प्रथम शताब्दी के नानाघाट के गुफालेख में वासुदेवान, चंदसूरानं, वधनस एवं खारवेल के शिलालेख में मेघवाहनेन, सेनाय, यवनराज । (III) ई. स. प्रथम शताब्दी के भर्तृत स्तंम लेख मे- धनभूतिन(ना) तथा सारनाथ के बौद्धमूर्ति लेख में-वनस्परेन, खरपल्लानेन । (IV) ई. स. द्वितीय शताब्दी के मथुरा जैन-मूर्तिलेख (हुविष्क) मे शिसगन (शिष्यकेन) तथा नासिक के गुफालेख (नहपान) मे:वसवुथान । ई. स. तृतीय शताब्दी के नागार्जुनी-कोण्ड के वीरपुरुषदत्त के लेख में-मनुस, मान, पसमन, चीन,थेस्यिनं, भगिनीय और शान्तमूल के लेख में इखाकुनं, अनुथितं । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी ५९ : (VI) ई. स. चतुर्थ शताब्दी के नागार्जुनी-कोण्ड के स्तंभ लेख में - अनेक, अनंत, इखाकूनं तथा मैसूर के मयूरशर्मण के लेख , में-विनिम्मिश्र, सकस्थन । गुण्टूर के ताम्रपत्र (स्कंदवर्मन) में । -जननी, वद्धनीयं एवं बैलारी ताम्रपत्र (शिवस्कंद वर्मन्) हीरहड-।' गल्लि में-सेनापति, सासनस्स, अनेक, मनुस, वनिक, पदायिनो, ।' मदेन, इत्यादि के लिए देखिए पिशल-२२४. शिलालेखों में मध्यवर्ती नकार के स्थान पर णकार के प्रयोम। . के विषय में डाक्टर मेहेण्डले का क्या अभिप्राय है उसे भी ध्यान में : लेना लाभदायी होगा । उनके कहने का सार यह है कि अशोक के समय में सभी जगह कुछ ही प्रयोग एसे मिलते हैं जिनमें नकार का णकार हुआ है । ये प्रयोग भी मुख्यत: पश्चिम, * दक्षिण* * और उत्तर : पश्चिम मे मिलते हैं । अशोक के पश्चात् भी पश्चिम और उत्तर-.. पश्चिम में नकार का णकार मिलता है परंतु अल्प प्रमाण में ही। दक्षिण में प्रथम शताब्दी से नकार का णकार अधिक प्रमाण में तो मिलता है परन्तु सर्वत्र के रूप में नहीं । नकार के स्थान पर णकार के प्रयोग की बहुलता चौथी शताब्दी से मध्यक्षेत्र में पायी जाती है । उनका कहने का तात्पर्य यह है कि ई. स. पूर्व या ई. स. की प्रारंभिक शताब्दियों में भारत के किसी भी प्रदेश में नकार के स्थान पर णकार का प्रयोग प्रायः के रूप में या सर्वत्र के रूप में होता हो ऐसा शिलालेखों से प्रमाणित नहीं हो रहा है । . घ मध्यवर्ती कार का नकार-एक नया मुद्दा (अ) व्याकरणकारों के अनुसार पैशाची और चूलिका पैशाची भाषा में कार के स्थान पर नकार का प्रयोग होता है । " अन्य * पश्चिम अर्थात् विन्ध्य पर्वतमाला का दक्षिणी भाग । ** दक्षिण में कोपचाल के शिलालेखों में न = ण 50% मिलता है । - Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के आर. चन्द्र किसी भी प्राकृत भाषा के विषय में ऐसे प्रयोग का उल्लेख नहीं है । ण = न की यह प्रवृत्ति अशोक के पूर्वी प्रदेश के शिलालेशों में पायी जाती है । अपवाद के रूप में ऐसे प्रयोग शाहबाजगढ और मानसेरा में अल्प प्रमाण में और येरागुडी (मैसूर) में कुछ अधिक प्रमाण में पाये जाते हैं । अशोक के पश्चात् ऐसे प्रयोग अन्य क्षेत्रों में भी फैलते हैं परंतु उनका प्रमाण बहुत कम है (मेहेण्डले पृ. 273) उत्तर पश्चिम के प्रथम से चौथी शताब्दी तक के खरोष्ठी के शिलालेखों में भी कुछ ऐसे प्रयोग मिलते हैं (मेहेण्डले पृ 304)। भारत के पूर्वी प्रदेश की भाषा मागधी भी । अशोक के शिलालेखों के अनुसार धौली और जौगड में णकार का प्रायः नकार मिलता है परंतु किसी भी व्याकरण में मागधी भाषा के लिए ण-न का उल्लेख नहीं मिलता है । इसका क्या कारण हो सकता है, यह विचारणीय है । ___अशोक के पश्चात् अन्य शिलालेखों में प्राप्त ण-न के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं : (') ई. स. पू. दूसरी शताब्दी (वेसनगर, भिलसा)-(वषेन-वर्षे ण) (2) ई. स. प्रथम शताब्दी (मथुरा, बुद्ध-प्रतिमा लेख) प्रहान ___ (प्रहाण), (भर्हत स्तंभ लेख) पुतेन (पुत्रेण) (3) तीसरी शताब्दी (नागार्जुनीकोण्ड, वीरपुरुषदत्त) परिनामेतुनं - (परिणमय्य) । (4) ई. स. तीसरी-चौथी शताब्दी (नागार्जुनीकोण्ड) अचरियेन - (आचार्येण) थेरेन (स्थविरेण) इस सारे अध्ययन और विश्लेषण का सार यही है कि मध्यवर्ती Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी ६. नकार को सर्वत्र णकार में बदलने का नियम शास्त्रीय हो सकता है परंतु वास्तविकता से मल नहीं खाता है । प्राचीनतम प्राकृतों (मागधी, अर्धमागधी, शौरसेनी, इत्यादि) में नकार का सर्वत्र णकार हो गया हो यह विश्वसनीय नहीं होता है । अतः अर्धमामधी के प्राचीन ग्रंथों के सम्पादन में सर्वत्र नकार का प्रकार बनाना उचित नहीं माना जा सकता । कम से कम इतनी मर्यादा तो अवश्य रखी जा सकती है कि यदि किसी एक हस्तप्रत में ही नकार मिलता हो तो ऐसी अवस्था में नकार ही स्वीकार किया जाना चाहिए जिससे अर्धमागधी भाषा की प्राचीनता और उसका अपनी पूर्वी प्रदेश को लाक्षणिकता अक्षुण्णा बनी रहे । (ङ) पण, ण्य और ण का भी न्न में परिवर्तन इसके साथ यह भी ध्यान में लेने योग्य है कि एण, ण्य और र्ण का जो सामान्यतः न होता है उसके स्थान पर हस्तप्रतों में कभी कभी न्न भी मिलता है । पिशल ने (225) इस संबंध में जैन साहित्य की हस्तप्रतों से उदाहरण भी दिये हैं (निसन्न), परिपुन्न (प्रतिपूर्ण), वन्न (वर्ण) । ऐसे उदाहरण और भी जोडे जा सकते हैं जैसे कि मुनि श्री पुण्यविजयजी द्वारा संपादित उत्तराध्ययन (म जै वि. संस्करण) में ण्य-न्न के कुछ प्रयोग, नर्मदासुन्दरी कथा में ण्य =न्न के कुछ प्रयोग और हेमचन्द्राचार्य के अपभ्रंश व्याकरण के कुछ उदाहरणों में, रन्नु (अरण्य 4.341 ), चुन्नी (ची 4.430) कन्नडइ (कर्णे 4.432 ) जैसे प्रयोग । मेहेण्डले के अनुसार ण्य=न्न की प्रवृत्ति पूर्वीक्षोत्र में पायी जाती है (पृ. 281) । देखिए आगे अध्याय = (१०) Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के. आर. चन्द्र (च) आधुनिक भाषाओं में न का ण और ण का न का ध्वनिगत सभी प्राकृत भाषाओं में सर्वत्र नकार का णकार कर देना कहाँ तक उचित माना जायगा । इस विधान की हम अन्य दृष्टि से भी कसौटी कर सकते हैं । आधुनिक युग की भारतीय आर्यकुल की विविध भाषाओं जैसे कि हिन्दी, मराठी, गुजराती, पंजाबी, ओरिया, बंगाली, इत्यादि में कुछ न कुछ ऐसे भिन्न भिन्न शब्द मिलते हैं जिनमें से किसी में नण और किसी में ण = नं परिवर्तन हुआ है । अमुक अमुक ऐसे शब्दों की कुछ न कुछ पूर्वकालीन स्थानीय-क्षेत्रीय परंपरा रही होगी अतः ऐसा कहना अनुचित नहीं होगा कि इन प्रादेशिक भाषाओं के अपने अपने पूर्व काल की विभिन्न प्राकृत बोलियों में अलग अलग शब्दों में किसी में न-ण और किसी में ण=न का उच्चारण और प्रयोग चलता रहा होगा । ऐसे प्रयोग वास्तव में सीमित होंगे । ऐसा नहीं कि सभी शब्दों में नकार के स्थान पर णकार का प्रयोग होता होगा । वास्तविक रूप में देखा जाय तो संस्कृत भाषा के संदर्भ में कौनसी ऐसी आधुनिक भाषा है जिसमें नकार का णकार सर्वत्र या प्रायः होता हो । इस दृष्टि से प्राचीन प्राकृत भाषाओं (अर्धमागधी, इत्यादि और प्राचीन नाटकों की प्राकृत भाषा ) में सर्वत्र नकार का णकार किया जाना शिलालेखों की भाषा अर्थात् लोक-परंपरा से विमुख, अनुपयुक्त और अनुचित जान पडता है । भारतीय आर्यकुल की आधुनिक भाषाओं में प्रयुक्त कुछ शब्दों की तालिका आगे दी गई है, जिसमें अमुक भाषाओं के कुछ शब्दों में t नकार का णकार और कुछ शब्दों में णकार का नकार मिलता है । प्रस्तुत शब्दावली श्री टर्नर महोदय के 13 कोश' 3 से दी गयी है जो Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी स्वयं सर्वाङ्गीण तो नहीं कही जा सकती क्योंकि अनेक ऐसे शब्द आधुनिक साहित्यिक भाषाओ और बोलचाल की भाषाओं में अभी भी पाये जाते हैं जिनका समावेश इस कोश में नहीं हो सका है । फिर भी नकार और णकार के प्रयोग के विषय में स्पष्टीकरण हो सके इस उद्देश्य से कुछ शब्द उस कोश में से ही प्रस्तुत किये गये हैं । इस तालिका से प्रतीत होता है कि नकार के बदले में णकार वाले या णकार के बदले में नकार वाले शब्द अधिकतर किसी एक क्षेत्र विशेष में प्राप्त होते हैं तो अमुक शब्द कभी कभी एक से 'अधिक क्षेत्रों में पाये जाते हैं । फिर भी इतना तो स्पष्ट है कि अभी भी भारत के पश्चिमी भाग में जैसे कि गुजराती, सिंधी, मराठी आदि में मध्यवर्ती नकार का णकार अधिक प्रमाण में मिलता है और भारत के पूर्वी भाग जैसे कि हिन्दी, मैथिली, बिहारी, अवधी, बंगाली, नेपाली आदि में णकार का नकार मिलता है । अशोक और उसके बाद के प्राचीन शिलालेखों में भी इसी प्रकार की प्रवृत्ति के - दर्शन दो अलग-अलग क्षेत्रों की विशिष्टताओं के रूप में होते हैं। इससे यह फलित होता है कि प्राचीन काल से आज तक नकार का णकार में परिवर्तन पश्चिमी और दक्षिणी भारत की विशेषता रही है । प्रचलित भाषाओं में शब्दों का आदान-प्रदान होता रहता है, अतः एक प्रदेश की विशेषता का प्रभाव दूसरे प्रदेश में भी पाया जा सकता है जैसे कि तालिका के उदाहरणों से स्पष्ट हो रहा है कि मध्यवर्ती नकार या णकार वाले शब्द दोनो क्षेत्रों में पाये जाते हैं । : Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत आवयू इन्धन जन जानाति तान धनिन् पनस भाजन वचन स्थान ओरिया आणिबा जण, जणे पणस ठाणा कुमौनी आण्णी ताणो थाणो कोंकणी जण जाना पणसु भाण ठान तालिका ( अ ) मध्यवती न=ण गुजराती आणइ (प्रा.) इ धन, इ धणु इन्हण जण जाणवु ताणी धणी फणस पंजाबी भाणु वेण, वयण जणा जाणना ताण बेण, वै ठाणू, थाणुथाण, थाणाठाणो मराठी आण्णे इ घण जण जाण्णे ताण घणी पणस, पणसु भाणे ठाण, ठाणे मारवारी आणषु जणो जाण्णो घणी लहेंडा आणण् जणा बाणणू ताणा भाण, भाषा वैण प पहारी आण्णो जाणु ताणी घणी पृष्ठ ६४ सिंधी आणणु जणो जाणणु ताणो घणी माणु वेणु थाणु, थाणो Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तालिका (ब) मध्यवती म पजाबी बंगाली | बिहारी | भोजपुरी | मैथिली | सिंहली । हिन्दी संस्कृत । अवधी आसामी | कश्मीरी गुजराती | नेपाली | मराठी | करनि करणीय करनी | करनी गर्भिणी गामिनि गाभिन् । गाभिन | गाभिन् | गाभिनि | गाभिनी | गाभिन् गाभन् चना चना चिकना | चिकन चिस्कन चिकना चिकना | चिकन | चिंकन द्विगुण | दून | दुना | दूना | दुना,दुन दून, दूंना बान बाण बान पुसन | पोसन Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के. आर. चन्द्र इस दृष्टि से वररुचि के प्राकृत- प्रकाश का यह नियम कि नकार का सर्वत्र णकार होता है किसी प्रदेश की ही प्रवृत्ति हो सकती है, न कि सारे भारत की सभी प्राकृत भाषाओं की । श्रीमती नीति दोल्ची ने तो वररुचि के इस नियम (सूत्र नं. 242 ) की प्रामाणिकता पर ही शंका की है, जो बिलकुल उचित है । उनके अनुसार इस सूत्र में सर्वत्र शब्द बाद में जोड़ा गया है। पहले उसमें' 'नाद' था और बाद में उसमे' 'वादी' आ गया । अन्त में उसके स्थान पर 'सर्वत्र ' शब्द जोड़ दिया गया है । 14 ६६ हमारी दृष्टि से तो ऐसा भी हो सकता है कि मूल सूत्र में 'नो = ण:' ही था । यह नियम प्रारंभिक नकार के लिए नहीं था, परन्तु केवल मध्यवर्ती नकार तक ही सीमित था । वररुचि स्वयं दक्षिणप्रदेशी (अर्थात आधुनिक महाराष्ट्र के पश्चिमी भाग के दक्षिण प्रदेश के) रहे होंगे, तभी उनके इस न=ण के नियम की सार्थकता सिद्ध हो सकती है अन्यथा क्षेत्र एवं काल की दृष्टि से इस नियम की विसंवादिता सिद्ध होती हैं । अब ध्यान में लेने योग्य मुद्दा यह है कि मागधी और अर्धमागधी जैसी भाषाएँ तो पूर्वी भारत की भाषाएँ थीं और उनके लिए नकार का णकार में नियमित परिवर्तन कभी भी नहीं होता था । अतः इस सारे अध्ययन और विश्लेषण का निष्कर्ष यही निकलता है कि अर्धमागधी भाषा के प्राचीन ग्रन्थों का सम्पादन करते समय मध्यवर्ती नकार का सर्वत्र णकार बनाना अनुचित और अनुपयुक्त ही माना जाना चाहिए और मध्यवर्ती अवस्था में दन्त्य नकार के प्रयोग अल्प प्रमाण में ही सही यदि ग्रन्थ की किसी भी प्रत में, उसके उद्धरणों में या उसकी नियुक्ति, चूणीं या वृत्ति में मिलते हो तो मूल नकार ही स्वीकार्य होना चाहिए Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी टिप्पण 1. पिशल महोदय (224) को ललित-विग्रहराज नाटिका की मागधी और शार सेनी भाषा में उपलब्ध नकार (प्रारम्भिक) क्रमशः निम्मल (निसर), निरन्तर, निअ (561.2) तथा नोमालिर (नवमालिके) (560.9,17), मुद्रण के दोष लगते हैं । वास्तव में ऐसा नहीं होना चाहिए, परन्तु इन्हें प्राचीन पाठ माना जाना चाहिए, जो किसी न किसी तरह अपने मूल रूप में बच गये हैं। प्राचीन कृतियों में इसी प्रकार मध्यवर्ती नकार के प्रयोग भी अमुक प्रमाण में चालू रहे होंगे परन्तु किसी न किसी प्रभाव के कारण लेहियों के हाथ और कुछ अंश में सम्पादकों के हाथ वे धीरे धीरे अदृश्य होते गए ऐसा मानना अनुपयुक्त नहीं होगा। 2. सिद्धहेमशब्दानुशासन, लघुवृत्ति खंड-3, अध्याय-८, युनिवर्सिटी ग्रन्थ-निर्माण बोड', गुजरात राज्य, अहमदाबाद-6, 1978 3. अक 1, इलोक 15 के पश्चात् , देवघर संस्करण, पूना, पृ. 11, ई. स. 1937. 4. ग. जोगलेकर, पुणे, 1956, पाठान्तर या शुद्धिपत्रक में कोई अन्यथा उल्लेख नहीं है। 5. लीपविग, ई स. 1881 6. देखिर आल्सडर्फ' का लेख संग्रह : - Kleine Schriften, Wiesbaden, 1974 7. पिशल (224) महोदय ने पू. हेमचन्द्राचार्य द्वारा किये गये इस उल्लेख (अपवाद रूप-प्रयोग यानि अर्धमागधी में कुछ शब्दों में मध्यवर्ती नकार पाया जाता है) की टीका की है। उनका कहना है कि किसी गलत पाठ के कारण पू हेमचन्द्र ने ऐसे अपवाद का आदेश दिया है (8. 1. 228) । परन्तु इस निबन्ध में प्रस्तुत तथ्यों के आधार पर पिशल महोदय का यह विधान अब उपयुक्त नहीं लगता । 8. पू० मुनि श्री पुष्पविजयजी द्वारा संपादित सूत्रकृतांग में दिया हुआ चूर्णी का पाठ, प्रा. टे. सोसायटी, 1975 पृ. 103 9. Historical Grammar of Inscriptional Prakrits, M.A. Mehen dale, Poona, 1948, p. 276 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ के आर, चन्द्र 10. पूर्वी क्षेत्र में तो उलटा णकार का नाम मिलता है । 11. णोनः [प्राकृत प्रकाश, 10:5, हेमचन्द्र- 8:4.306] 12. पिशल महोदय ने (225) एक मात्र सिंहदेवराणि को ऐसा कहते बताया है कि मागधी में भी ण का न (वाग्भटाल कारटीका, 2.2 उदाहरण, तलुन =तरुण) होना चाहिए । परंतु पिशल महोदय इसे उनका मागधी में पैशाची का भ्रम होना बतलाते हैं । हमारे ख्याल से सिंहदेवमणि के इस विधान में अवश्य कुछ तथ्य होना चाहिए, क्योंकि अशोक के पूर्वी प्रदेश के शिलालेखों से इसका अनुमोदन. हो रहा है। 13. A Comparative Dictionary of the Indo-Aryan Languages, R.L. Turner, London, 1966 14. Prakrit Grammarians, Motilal Banarasidas, Delhi, 1972. Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. प्राचीन प्राकृत भाषा में ज्ञ-न या पण पालि भाषा में शब्द के प्रारम्भ में ज्ञञ और मध्य में ज्ञ ञ का प्रयोग मिलता है । जैसे-जाति (ज्ञाति), पंजा (प्रज्ञा) । लेकिन नामसिद्धिजातक में जब प्रज्ञप्ति के लिए पणत्ति शब्द मिले तो क्या समझना चाहिए ? यही कि प्राचीन पालि भाषा में ज्ञञ था और उत्तरवर्ती पालि में =Uण का प्रयोग भी चल पड़ा। इसी तरह के और प्रयोग जातकअट्ठकथा में मिलते हैं, जैसे-आणापति, आत्ति, आणत्ति । यह प्राकृत का प्रभाव है ऐसा सिद्ध होता है और यह भी कि पहले ज्ञ का आ बना और बाद में ज्ञ-ण चल पड़ा । मागधी में ज्ञ विषयक आदेश : (1) श्री वररुचि के व्याकरण प्राकृत-प्रकाश में मागधी भाषा के अन्तर्गत ज्ञ के परिवर्तन के बारे में कुछ भी नहीं कहा गया है। उसमें शौरसेनी भाषा को मागधी की प्रकृति मानी है अतः शौरसेनी में ज्ञ का आ (सूत्र १२.७) और ण (अर्थात् ण, सूत्र १२.८) होना जो बतलाया गया वही मागधी के लिए भी लागू होता है । प्रतियों के पाठान्तरों में ज्ञ=उज के स्थान पर ज्ज और 'अ (अर्थात् ज्ञ) भी मिलता है (देखिए-E.B.Cowell 3.5; 12.7 का कलकत्ता का संस्करण, १९६२) । . (II) पिशल (२७६) का यह मत है कि ज्ञ का ब्ज गलत है । पैशाची के सम्बन्ध में भी वे उसे गलत मानते हैं और उसमें ज्ज के स्थान पर आ को ही सही मानते हैं ।। (III) आ. श्री हेमचन्द्र के व्याकरण के अनुसार मागधी में Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के आर. चन्द्र ज्ञ का ञ (८.४,२९३) होता है-पा, शव्वज्ञ, अवा (प्रज्ञा, सर्वज्ञ, अवज्ञा) । अतः मागधी में ज्ञ के लिए न ही मान्य था और वररुचि के अनुसार जो ण, ण्ण फलित होता है वह भी योग्य नहीं लगता । यह तो उत्तरवर्ती प्रवृत्ति का अनुकरण उनके व्याकरण में (उत्तरवर्ती काल में) कर दिया गया हो ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है, क्योंकि बारहवां. अध्ययन ही प्रक्षिप्त माना गया है, जिसमें मागधी का विवरण. मिलता है । पैशाची भाषा में ज्ञ का ज : - श्री वररुचि (१०.९ के अनुसार पैशाची में ज्ञ का ज होताः है । पाठान्तर में ज्ज मिलता है । पिशल के अनुसार ये दोनों गलतः । हैं । उनकी राय में हेमचन्द्र का सूत्र (४.३०३) ही सही है जो ज्ञ का आदेश देता है, पा, सव्वयो, विज्ञानं (प्रज्ञा, सर्वज्ञः, विज्ञानम्) । शौर सेनी मे ज्ञ=ण और ज्ज : श्री वररुचि के अनुसार (१२.७) ज्ञ:5ज और ण (ण) और आ. हेमचन्द्र के अनुसार (८.४.२८६) शेषं प्राकृतवत् अर्थात् प्राकृत की तरह ज्ञ का प्रण और कभी कभी ज्ज होता है (सूत्र ८.२.४२ और ८.२.८३), पण्णा, णाण (प्रज्ञा, ज्ञानम् ), मणोज्जं, पज्जा (मनोज्ञम्, प्रज्ञा) । परन्तु आ. हेमचन्द्र द्वारा शौरसेनी भाषा के अन्तर्गत पहले ही सूत्र (८.४.२६०) की वृत्ति में दिये गये उदाहरण 'पदिओन' में ज्ञ के लिए ज्ञ का प्रयोग है । अर्थात् शौरसेनी में जा की. प्रवृत्ति चालू थी परन्तु उत्तरवर्ती काल में bण आ गया हो ऐसा फलित होता है । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी ७६ सामान्य प्राकृत और ज्ञान ..... सामान्य प्राकृत में वररुचि (३.५.३.४ ४) और हेमचन्द्र के अनुसार (८.२.४२,८३,३.५५) ज्ञ का vण और ज्ज होता है । प्राकृत के इन व्याकरणकारों ने किसी भी प्राकृत भाषा के लिए ज्ञ-न्न का उल्लेख नहीं किया है । सिर्फ भरत के नाट्यशास्त्र (१७.२२), में ही यज्ञ के लिए 'जन्न' शब्द का प्रयोग प्राकृत भाषा के लिए बतलाया गया है । इस उदाहरण में ज्ञन्न स्पष्ट हो रहा है । पिशल द्वारा दिये गये उदाहरण : पिशल महोदय (२७६)को मागधी भाषा के लिए ज्ञ-ज्ज के उदाहरण साहित्य में कहीं पर भी नहीं मिले, मात्र प्रण के ही उदाहरण मिले हैं। अर्धमागधी और महाराष्ट्री साहित्य में से भी ज्ञ-उज के उदाहरण उन्हें नहीं मिले । शौरसेनी से मणोज्ज दिया है। परन्तु पाइयसद्दमहण्णवो के अनुसार प्रज्ञापना सूत्र में (अर्धमागधी) और उपदेशपद (जैन महाराष्ट्री) में मणोज्ज शब्द मिलता है । नाटको से उदारहण : स्वप्नवासवदत्तम् में आदि (ज्ञाति), विज्ञाण (विज्ञान) अज्ञाद (अज्ञात) और उसी नाटक में पडिण्णा (प्रतिज्ञा) और आणवेदि (आज्ञापयति) अर्थात् ञ और ण्ण वाले दोनों प्रकार के प्रयोग मिलते. हैं । भास के अन्य नाटकों में भी अ का प्रयोग मिलता है । परन्तु विक्रमोर्वशीयम् और मृच्छकटिकम् में ज्ञ का प्रण मिलता है । शाकुन्तलम् में भी ण (आणवेदि) मिलता है । पिशल को (२७६) अर्धमागधी साहित्य के सिवाय अन्य प्राकृत भाषा के साहित्य से कोई भी ऐसा उदाहरण नहीं मिला जिसमें ज्ञ का न्न हो। पिशल महोदय ने (२७६) Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर. चन्द्र आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिकसूत्र और औपपातिकसूत्र से अनेक ऐसे उदाहरण दिये हैं जिनमें ज्ञ=ण्ण के साथ न्न भी मिलता है, जन्न (यज्ञ), मणुन्न (मनोज्ञ), नज्जइ (ज्ञायते), नाण (ज्ञान) इत्यादि । भरतनाट्यशास्त्र में तो जन्न (यज्ञ) का उदाहरण मिलता ही है । उन्होंने ज्ञण्ण का कोई उदाहरण नहीं दिया हैं । ज्ञन्न की परम्परा : श्री वररुचि और आ. हेमचन्द्र ने अलग से ज्ञन्न का कोई उल्लेख नहीं किया है परन्तु अर्धमागधी साहित्य में झन्न मिळता है । पिशल महोदय के अनुसार अर्धमागधी में झन्न्न की बहुलता पायी जाती है । अब प्रश्न यह होता है कि अर्धमागधी साहित्य में श=न और न्न कहाँ से आये ? प्रो. मेहेण्डले द्वारा ( पृ २८० ) किये गये शिलालेखों की भाषा के विश्लेषण के अनुसार ज्ञ के परिवर्तनों की प्रक्रिया इस प्रकार है * (I) अशोक के समय में पूर्वीक्षेत्र, मध्य और उत्तर में ज्ञ-न और न ( न्न) (II) अशोक के समय में पश्चिम, उत्तर-पश्चिम (दक्षिण में भी) ज्ञ=ज और ज (ञ) * शिलालेखों से उदाहरण शाति = नाति (घौली, जोगढ, कालसी और स्तंभलेख) शांति-जाति (गिरनार और दक्षिण के हो ख) शाजिना (घडी, नौगड, रुम्मिनीदेई) राज्ञा = रात्रा ( गिरनार, शाहबाजमड़ी) विज्ञाप - विनय (सारनाथ), विज्ञप्ति, विनति (इलाहाबाद - रानीलेख) Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी KI1) दूसरी शताब्दी ई.स. 'धू में इन, म पश्चिम में फैला और भ, न पूर्व और मध्यक्षेत्र में आया । .. • (IV) प्रथम और द्वितीय शताब्दी में दक्षिण में ज्ञ=न (न्न) और अ (ञ) एक साथ प्रयुक्त हुए, तीसरी शताब्दी से दक्षिण में (जस) अदृश्य हो गया । • (v) अशोक के समय में उत्तर-पश्चिम और दक्षिण में कभी कभी ही ज्ञण भी मिलता था । वह प्रथम-द्वितीय शालाब्दी में पश्चिम में फैला, द्वितीय-तृतीय शताब्दी में उस vण का प्रचलन दक्षिण में बढ़ा और चौथी शताब्दी में मध्यक्षेत्र में उसका प्रचलन हुआ । इस विश्लेषण से स्पष्ट है कि पूर्वी क्षेत्र में प्रारम्भ से ही ज्ञ-1 (न्न) का प्रचलन था और ण (ण) का प्रचलन उत्तर-पश्चिम में था । चार सौ वर्षों के बाद प्रण का प्रचलन पश्चिम में होता हैं | उसके बाद दक्षिण में बढ़ता है और उसके पश्चात् मध्यक्षेत्र में प्रचलित होता हैं । अर्धमागधी साहित्य के प्राचीन अंश का सृजन पूर्वी क्षेत्र में हुआ है अतः वहाँ से ही अपनी एक विशेषता ज्ञान (न्न) अर्धमागधी भाषा में भी आधी । जैन धर्म का केन्द्र जब पश्चिम भारत बना तब अर्धमागधी साहित्य में ज्ञःण (ण) भी प्रविष्ट हुआ होगा ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है । आ. हेमचन्द्राचार्य ने ज्ञान का उल्लेख अर्धमागधी भाषा के लिए भी नहीं किया यह एक आश्चर्य की बात है । ऐसी सम्भावना भी नहीं की जा सकती कि अर्धमागधी में पहले झण्ण था और बाद में न्न हो गया । ज्ञन्न की विशेषता अर्धमागधी भाषा अपने ही Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के. आर. चन्द्र उत्पत्ति स्थल से प्राचीन काल से ही अपने साथ लेकर चली है इसमें संदेह नहीं हो सकता । अतः ऐसे ग्रन्थों के सम्पादन में ज्ञ के. स्थान पर शब्द के प्रारम्भ में न और मध्य में न्न को ही प्राथमिकता दी जानी चाहिए क्योंकि जिस प्रकार उत्तरवर्ती पालि में ज्ञ के. लिए ण का प्रचलन हो गया उसी प्रकार अर्धमागधी साहित्य की उत्तरवर्ती हस्तलिखित प्रतियों में ज्ञ=न्न के स्थान पर एण आ गया जो आगमों के अनेक संस्करणों में प्रतिबिम्बित हो रहा है । इस सम्बन्धः में आचारांग के प्रथम श्रुत-स्कंध के विविध संस्करणों के प्रथम अध्ययन के विश्लेषण से ऐसा स्पष्ट हो रहा है कि--- (I) शुकिंग महोदय के संस्करण में प्रारम्मिक ज्ञ = न ९ बार मध्यवर्ती ज्ञ = ण २ सिर्फ आज्ञा = आणा] बार मध्यवर्ती ज्ञ = न ४८ बार आगमोदय समिति के संस्करण में प्रारम्भिक ज्ञ = ण ९ बार मध्यवर्ती ज्ञ = ण ५० बार (III) जैन विश्वभारती के संस्करण में प्रारम्भिक ज्ञ = न १ बार प्रारम्भिक ज्ञ = ण १० बार मध्यवती ज्ञ = प्रण ५० बार (IV) महावीर जैन विद्यालय के संस्करण में प्रारम्भिक ज्ञ = ण ९ बार मध्यवती' ज्ञ = प्रण ५१ बार Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी शुबिग महोदय की पद्धति ज्ञ के विषय में कितनी उचित है यह ऊपर किये गये अध्ययन के निम्न उपसंहार से स्पष्ट हो जायगा । अर्द्धमागधी आगमनथों के अमुक अध्ययनों के सम्पादन में प्रो. आल्सडर्फ ने भी यही पद्धति अपनायी है । उपसंहार : प्राचीन काल में (अशोक के समय में) पूर्वीक्षेत्र में ज्ञ - न्न, पश्चिम में = ञ और उत्तर-पश्चिम और दक्षिण में = bण का प्रचलन था । उत्तरवर्ती काल में ण्ण' का प्रचलन व्यापक होने लगा और यह प्रवृत्ति पहले पश्चिम (प्रथम-द्वितीय शताब्दी) में, तत्पश्चात् दक्षिण (द्वितीय-तृतीय शताब्दी) में और उसके बाद मध्यक्षेत्र (चौथी शताब्दी में फैली जो उत्तरवर्ती काल में न का ण बनाने की प्रवृत्ति से प्रभावित हुई है और इससे स्पष्ट है कि प्राचीन अर्धमागधी ग्रन्थों में ज्ञ = न्न (प्रारम्भ में न) का प्रयोग ही ऐतिहासिक दृष्टि से सर्वथा योग्य और सही है जिसे शुबिंग महोदय और आल्सडर्फ महोदय ने अपनाया है । ..... आचार्य श्री हेमचन्द्र ने आर्ष के उदाहरण देते समय जो उद्धरण प्रस्तुत किये हैं उनमें से एक उद्धरण ८.२.१०४ में-'हयं नाणं किया-हीणं' मिलता है । क्या ज्ञ के लिए न का यह प्रयोग सम्पादकों के लिए एक विश्वसनीय प्रमाण नहीं है ? Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. प्राचीन प्राकृत भाषा में ण्य, न्न, न्य, और णे का न्न या पण सामान्य प्राकृत भाषा में वररुचि या आ. श्री हेमचन्द्र किसी ने ण्य, न्न, न्य और ण में होने वाले ध्वन्यात्मक परिवर्तन के बारे में कुछ विशेष नहीं कहा है । मागधी और पैशाची • प्राकृत में न्य और ण्य का ा में बदलने का नियम आ. हेमचन्द्रने ने (84.293, 305) दिया है । वररुचि के अनुसार उनका (127) ज हो जाता है, जो विद्वानों की दृष्टि में शंकायुक्त ही रहा है और इसे लिपि-दोष माना गया है - सूत्र-ब्रह्मण्यविज्ञयज्ञकन्यकानां एयज्ञन्यानां जो वा 12.7 (क) ण्य = पण या न्न : आ. श्री हेमचंद्र ने अपने प्राकृत व्याकरण में जितने भी उदाहरण दिये हैं उनमें जहाँ पर भी ण्य का प्रसंग है वहाँ पर ण्य = ण ही · प्रायः मिलता है । अपवाद के रूप में अपभ्रंश में अरण्य के लिए रन्नु भी मिलता (1.341) है । प्राचीन प्रतों और मुद्रित प्राकृत • साहित्य में अपवाद के रूप में कहीं-कहीं पर ण्य = न्न मिलता है । . नम्मयासुन्दरी (सिंधी जैन सीरिज) में ण्य = न्न के प्रयोग मिलते हैं । डा. मेहेण्डले (पृ. 281) के अनुसार अशोक के शिलालेखों में · पूर्वी क्षेत्र और उत्तर में ण्य का न (न्न), पश्चिम में न (न्न) और ज (आ), उत्तर-पश्चिम में आ(च) मिलता है । यह ण्य = न(न्न) पूर्व से मभ्य क्षेत्र में और फिर पश्चिम की ओर बढ़ता है, जबकि • ण्य = ण (ण) उत्तर-पश्चिम में और दक्षिण में ई. स. पूर्व तीसरी शताब्दी में मिलता है । यही ण (एण) ई. स. पूर्व द्वितीय शताब्दी Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्घमागधी ७७ . में पश्चिम में आता हैं और तत्पश्चात् ण (एण) मिलता है । दक्षिण में तो ण (गण) अन्य शताब्दियों में भी वैसा का वैसा रहता है । कहने का सार यह है कि ण्य = न्न पूर्व से अन्य क्षेत्रों में जबकि ण्य = bण उत्तर-पश्चिम और दक्षिण से अन्य क्षेत्रों में फैला । इस प्रकार की प्रवृत्ति के अनुसार अर्धमागधी के प्रारंभिक काल में ण्य का न्न भी हो सकता है । पश्चिम में भी ण्य = अ (ञ) के स्थान पर ण्य = न्न का प्रसार बढ़ता है और बाद में ण का । (ख) न्न = न्न या ण्ण दो दन्त्य अनुनासिकों के संयुक्त प्रयोग अर्थात् न्न के लिए. वररुचि के प्राकृत प्रकाश में जो उदाहरण मिलते हैं उनमें न्न का ण्ण मिलता है । परन्तु आ. श्री हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण में न्न = न्न के प्रयोग मिलते हैं । यथा-उच्छन्ना (8.1.114), किलिन्न (8.1.145), किलिन्नं (8.2.106), पडिवन्नं (8.1.206), धात्वादेश में उन्नामइ (8.4 36), पन्नाड़इ (8 4.126) । न = न्न या एण के वैकल्पिक प्रयोग के कारण डॉ. वैद्य के आ. श्री हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण के संस्करण में मूल में उच्छन्ना और पडिवन्नं के स्थान पर ग्रन्थ के अंत में दी गई शब्दाबली में उच्छपणो और पडिवण्णं छपा है। पं. श्री बेचरभाई दोशी के गुजराती संस्करण में इन दोनों शब्दों में न्न ही मिलता है । आ. श्री हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण म' लगभग 75 प्रतिशत संयुक्त दन्त्य न्न = न्न ही मिलता है उनके द्वारा दिये गये मागधी और शौरसेनी प्राकृत के उदाहरणों में न्न = न्न भी मिलता है । मागधी :- अवन्नवश्चले (8 4.295). Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के. आर. चन्द्र संपन्ना मणोरधा (8.4.285 और 302 के अनुसार) शौरसेनी :- संपन्ना मणोरधा (8.4.285) आ. श्री हेमचन्द्र द्वारा दिये गये अपभ्रंश के उदाहरणों में भी न्न = न के प्रयोग भी मिलते हैं – किलिन्नओ (8.4.322), निन्नेह (२.4,367) । अन्य संयुक्त न्न के प्रयोग वाले उदाहरण इस प्रकार मिलते हैं : विनासिआ (8.4.418) बिन्नि (8.4.418) अधिन्नई (8.4.2.)। वज्जालग्गं (एम. वी. पटवर्धन संस्करण) में न्न अपनाया गया है । नम्मयासुदरी (सिंघी जैन सीरिज) में न्न = न्न अपनाया गया है । डा. मेहेण्डले ने शिलालेखों की भाषा के विषय में अपने उपसंहार में •न्न = न्न या ण्ण के बारे में कुछ नहीं कहा है । (ग) न्य = न्न या प्रण : आ. हेसचन्द्र ने 'वादौ" सूत्र (8 1.229) द्वारा आदि नकार का वैकल्पिक न होना बतलाया है। उसी सूत्र की वृत्ति में ऐसा बतलाया है कि "न्याय" शब्द का "नाओ" होता है । इससे यह फलित होता है कि आदि न्य का न होता है परन्तु मध्यवर्ती न्य के लिए कोई आदेश नहीं दिया हैं । उनके द्वारा उद्धृत उदाहरणों से स्थिति जानी जा सकती है । वररुचि के उदाहरणों में तो न्य = पण ही मिलता है जबकि आ. हेमचन्द्र के व्याकरण में अनेक उदाहरण न्य = न्न वाले मिलते हैं :- सेन्न = (सेन्य), अहिमन्नू (अभिमन्युः), अन्नोन्नं (अन्योन्यम् ), मन्ने (मन्ये), अन्नारिसो (अन्यादृशः) और अपभ्रंश-अन्नाइसो । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी ७९ इस प्रकार लगभग 85 प्रतिशत शब्द न्य = न्न के मिलते हैं । सार्वनामिक शब्द अन्यत् के जो जो विभक्ति रूप दिये गये हैं वे -सब न्य = न्न वाले ही मिलते हैं । उनकी शौरसेनी में भी अन्यत् के लिए अन्नं शब्द (8.4.277) ही मिलता है । . अपभ्रश में भी न्य = न्न के लगभम 19 प्रयोग मिलते हैं और "न्य = bण का मात्र एक ही प्रयोग मिलता है – अन्नु (6.4.337), सामन्नु (8.4.418), नीसावन्नु (8.4.341) अन्न (8.4.359, 370, 372, 383, 401) इत्यादि । वज्जालगं (एम. वी पटवर्धन संस्करण) में न्य = न्न अपनाया गया है । नम्मयासुदरी (सिंवी जैन सीरिज) में न्य = न्न अपनाया गया है। डॉ. मेहेण्डले के अनुसार (पृ. 196) शिलालेखों में न्य के परिवर्तन की स्थिति इस प्रकार रही है : !. = ञ, म, अशोक के समय में पश्चिम और उत्तरपश्चिम में । 2. = न, न्न नि अशोक के समय में पूर्व, मध्य और उत्तरी क्षेत्र में और दक्षिण में भी । 3. - ञ, आ उत्तरवर्ती शिलालेखों में पश्चिम में । 4. = न, न्न दूसरी शताब्दी में पश्चिम में । २. = न, न्न उत्तरवर्ती शिलालेखों में पूर्वी और मध्य क्षेत्र में । 6. = अ और न (अ, न्न) तीसरी शताब्दी तक दक्षिण में। कहने का सार यह है कि न्य = न का पूर्व और उत्तर से मध्यक्षेत्र और पश्चिम में प्रसार होता है । "पूर्वी क्षेत्र में उसका तालव्यीकरण नहीं (अजा, ) हुआ और न ही मूर्धन्यीकरज ( = ण, ण्ण) हुआ । न्य का 'निय' (स्वरभक्ति से) Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के. आर. चन्द्र अवश्य हुआ । डॉ. मेहेण्डले ने न्य= ण्ण का कोई उल्लेख नही किया है । ८० इस विवरण से यहीं फलित होता है कि अशोक के काल से चौथी शताब्दी तक के शिलालेखों में न्य = ष्ण के प्रयोग अपवाद के रूप में ही मिल रहे होंगे जैसे मानसेरा में 'अन्य' शब्द के लिए (अण्ण) और 'मन्य' के लिए = मण (मण्ण) मिलते हैं । अण = (घ) र्ण = ण्ण या न्न : = आ. श्री हेमचन्द्र के व्याकरण में र्ण के स्थान पर प्राय: ण मिलता है । अपवाद के रूप में अपभ्रंश में कुछ प्रयोग र्ण न्न वाले मिलते हैं :- चुम्मी होसई ( चूर्णी भविष्यति 8.4.430), कन्नडइ (कर्णे 8.4.432) 1 र्ण के लिए ण या न्न की उपलब्धि अलग अलग " संस्करणो में क्रमश: इस प्रकार है । डॉ. पी. एल. वैद्य ५ : प. बेचरभाई 10: 1 डॉ. भायाणी 9 : 2 के अनुपात मे । आचारांग की चूर्णि में (वन्नेऊण पृ. 29. पंक्ति 2 ) भी र्ण = न्न के प्रयोग मिलते हैं । नम्मयासुंदरी में र्ण = न्न के कितने ही प्रयोग मिलते हैं । डॉ. मेहेण्डले के अनुसार (पृ. 281 ) शिलालेखों में र्ण की स्थिति इस प्रकार रही है : 1. 2. मध्यक्षेत्र में = = (ण), अशोक के काल में दक्षिण में । न (न्न), अशोक के काल में पूर्व, उत्तर और 3. = ण्ण, भी तीसरी शताब्दी ई. स. पूर्व मध्यक्षेत्र में । 4. = न्न, द्वितीय और प्रथम शताब्दी ई. स. पूर्व मध्यक्षेत्र में Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी 5. = न्न और एण, द्वितीय शताब्दी ई. स. पूर्व में पूर्वी क्षेत्र में । 6 = न्न, ई. स. पूर्व प्रथम शताब्दी में पश्चिम में । 7 = ण्ण, परन्तु तत्पश्चात् पश्चिम में ण्ण । 8. = न्न, प्रथम और द्वितीय शताब्दी में मध्यक्षेत्र में । 9. = पण, द्वितीय शताब्दी से दक्षिण में । अर्थात् ण = bण दक्षिण की प्रवृत्ति रही है और मध्यक्षेत्र की भी । वहाँ से पश्चिम में फैलती है । मूलतः र्ण = न्न पूर्वी क्षेत्र की प्रवृत्ति और बाद में वहाँ पर भी एण का प्रसार होता है । आ. श्री हेमचन्द्र के व्याकरण में जो उद्धरण हैं उनमें न्न और न्य गुच्छों के लिए प्रायः न्न मिलता है और ण्य तथा र्ण गुच्छों के लिए प्रायः पण मिलता है, मात्र अपवाद के रूप मे इसके लिए न्न मिलता है । शिलालेखों के अनुसार पूर्वी क्षेत्र मे प्रारंभ से ही इन सभी गुच्छों (न्न, न्य, ण्य, ण) के लिए प्रायः न्न ही मिलता है । दक्षिण और उत्तर-पश्चिम में इनके लिए ण्ण की भी परम्परा थी जो उत्तरवर्ती काल में अन्य क्षेत्रों में फैल गई । अतः प्राचीन प्राकृत साहित्य, जिसकी रचना पूर्वी क्षेत्र मे हुई है अर्थात् अर्धमागधी भाषा में तो न्न की ही परम्परा रही होगी परन्तु उत्तरवर्ती काल में पश्चिम के प्रभाव में आकर न्न का परिवर्तन प्रण में हो गया है ऐसा स्पष्ट साबित होता है । अतः जिन जिन अर्धमागधी आगम के संस्करणों में ण्ण की बहुलता दिखती है वह मूल अर्धमागधी के प्रतिकूल लगती है, ऐसा कहना अनुचित नहीं होगा । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ -स्सिं और -म्हि सप्तमी एकवचन के प्राचीन विभक्ति-प्रत्यय पिशल (४२८) महोदय ने उत्तराध्ययन–१५.२ (४५४) और प्रज्ञापना सूत्र (६३७) से किम् का (सप्तमी एकवचन का) 'कम्हि' रूप उद्धृत किया है जो किसी न किसी प्रकार अर्धमागधी आगम में बच गया है । यही विभक्ति-प्रत्यय व्यवहारसूत्र में भी मिलता है --इमम्हि (७.२२, २३) । कुन्दकुन्दाचार्य के प्रवचनसार में भी यही विभक्ति-प्रत्यय नामिक शब्दों में मिलता है -चरियम्हि १.७९, दवियम्हि २.६२, जिणमदम्हि ३.११, विकधम्हि, उवधिम्हि ३.१५, चेट्टम्हि ३.१९ । स्त्रीलिंग-शब्दों में भी यह मिलता है । उबएसमाला (धर्मदासगणि) में कम्हि, (गाथा नं. ७६) मिलता है । षटखंडागम (पुस्तक, १३, पृ २९७) में भी ऐसे प्रयोग हैंएक्कम्हि, कम्हि, एगजीवम्हि । . यही -म्हि विभक्ति पालि भाषा में नाम और सर्वनाम दोनों तरह के शब्दों में प्रयुक्त हुई है; परन्तु प्राकृत साहित्य में उसका इतना प्रचलन नहीं मिलता है जितना पालि साहित्य में । प्राकृत व्याकरणकार वररुचि और हेमचन्द्र दोनों ने सप्तमी एकवचन के लिए --'म्हि' प्रत्यय का उल्लेख नहीं किया, फिर भी प्राकृत भाषा में कहीं न कहीं पर --'म्हि' वाले रूप मिल रहे हैं, जो 1. पिशल (३६६ अ) महोदय की दृष्टि में प्रवचनसार के ये रूप गलत हैं किन्तु डॉ आ० ने• उपाध्ये ने इन्हें अपनाया है । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी ८१ "किसी न किसी प्रकार लोकभाषा में प्रचलन के कारण बच पाये हैं । आचारांग में तो तृतीया बहुवचन की विभक्ति -भि (थीभि १.२.४. ८४ म. जै. वि. संस्करण) भी बच गयी है ।। . शिलालेखों में यही -म्हि विभक्ति इस प्रकार मिल रही है, जैसे- अशोक के शिलालेखों में : . नाम शब्द -अथम्हि (गि० ४.१०), सर्वनाम -तम्हि, इमम्हि, अञम्हि, एकतरम्हि (गि० ४.१०, ९.२, ९.८,. १३.५)। ये सभी शब्द गिरनार के लेखों में मिलते हैं । यही विभक्ति प्रत्यय द्वितीय : शताब्दी ई० सन् पू० में काले के लेख में 'जंबुदीपम्हि', प्रथम शताब्दी ई० सन् पू० में बुन्देलखण्ड के भरहुत के लेख में 'तीरम्हि', रेवाराज्य की सीलहरा के प्रथम शताब्दी के गुफा लेख में 'करयंतम्हि', द्वितीय शताब्दी में दक्षिण के नागार्जुनी-कोण्ड के लेख में 'महाचेतियम्हि' और तीसरी शताब्दी में एलरा के ताम्रपत्र में 'पदेसम्हि' मे मिलता है । अर्थात् अशोक-कालीन पश्चिमी क्षेत्र का यह विभक्ति प्रत्यय . मध्य भारत और दक्षिण भारत में भी प्रचलित हुआ । आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार नाम शब्दों मे सप्तमी एक • वचन के लिए सामान्यतः -ए और -म्मि विभक्ति प्रत्यय (८.३.११) .. और सर्वनामों के लिए -स्सि, म्मि और त्थ (८.३.५९) विभक्ति • प्रत्यय हैं किन्तु उनके प्राकृत व्याकरण में -असि विभक्ति प्रत्यय का उल्लेख नहीं है जो नाम और सर्वनाम दोनों में पाया जाता है । वररुचि के व्याकरण में भी ऐसा उल्लेख नहीं है । . 2. गिरनार लेख ४.१० में इमम्हि और अथम्हि के साथ ४.९ में धमम्हि का प्रयोग मिलता है । गिरनार में (२.१) विजितम्हि और (६.४) विनीतम्हि प्रयोग भी हैं । यह विनीतम्हि धौली और बोगर (६.२) में 'विनीतसि' और शाहवाजगढी और मानसेहरा में 'विनितस्पि' हो गया है। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के. आर. चन्द्र अर्धमागधी में असि विभक्ति प्रत्यय के उदाहरण हैं -लोगंसि, आचा. १.१.१.९ (म. जै. वि.), केसि (पिशल ४२८) किन्तु पालि व्याकरण में नाम और सर्वनाम शब्दों में सप्तमी एक वचन के लिए -स्मि विभक्ति प्रत्यय का उल्लेख है और साहित्य मे उसका प्रयोग भी मिलता है जबकि अशोक के शिलालेखों में पश्चिम के सिवाय अन्य क्षेत्रों में सप्तमी एक वचन के लिए -सि (स्सि), विभक्ति प्रत्यय मिलता है (मेहेण्डले पृ० ५८३) । अर्धमागधी भाषा का –असि विभक्ति प्रत्यय इस तरह न तो व्याकरणों में, न पालि में और न हो अशोक के शिलालेखों मे मिलता है । परन्तु ईस्वी सन् की तीसरी शताब्दी में दक्षिण प्रदेश के क्रिष्णा जिले में तेनाली तालुके के कोंडमुडि गांव से मिले राजा जयवर्मन के ताम्र-पत्र मे–'असि' विभक्ति प्रत्यय एतसि' शब्द में पाया जाता है। इस तरह वररुचि और हेमचन्द्राचार्य ने -म्हि और -असि विभक्ति प्रत्ययों का सप्तमी एक वचन के लिए उल्लेख नहीं किया हैं परन्तु शिलालेखों से उनके प्रचलन का अनुमोदन होता है । ऊपर के विवरण के अनुसार सप्तमी एकवचन के विविध विभक्ति प्रत्ययों का विकास निम्न प्रकार से हुआ हो ऐसा साहित्यिक सामग्री, शिलालेखों और व्याकरणों से प्रमाणित होता हैसार्वनामिक विभक्ति प्रत्यय - (i) स्मिन् स्मि स्मि सि (अंसि) ___ (ii) स्मि स्मि म्हि म्मि 3. प्राकृत भाषा में अहम् के लिए अम्हि, अम्मि, म्मि के प्रयोग (हेमचन्द्र ८३ १०५) मिलते हैं और ये 'अस्मि' क्रियापद में से ही निकले हैं। ऐसा ही विकास -म्मि विभक्ति प्रत्यय का -स्मि में से हुआ है । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी (ii) स्मि स्मि म्भि (iv) स्मि स्सिं सि सि .. [ प्रत्ययों के इस भाषिक विकास-क्रम में कहीं कहीं पर लिपिदोष का भ्रम स् और भू के बीच स्पष्ट हो रहा है । ) - पालि साहित्य में -स्मिं और -म्हि (गाइगर ७८,८२,९५) प्रत्यय का प्रचलन रहा । व्याकरणकार मोग्गलान के अनुसार पालि में –म्सि प्रत्यय भी था (गाइगर ७९) । अशोक के शिलालेखों में -सि (स्सि) और -म्हि प्रत्यय मिलते हैं और तीसरी शताब्दी में दक्षिण में -म्सि (असि) प्रत्यय मिलता है। अर्धमागधी भाषा में -असि प्रत्यय मिलता है लेकिन व्याकरणकार हेमचन्द्र (८.३.५९) -स्सिं प्रत्यय का मात्र सर्वनाम के लिए ही उल्लेख करते हैं । विविध प्राकृत भाषाओं में –निस (असि),-स्सि,-हि और (-अंमि) --म्मि प्रत्यय मिलते हैं (पिशल ३६६ अ और ४२५) । पिशल महोदय ने जैन शौरसेनी में मिलने वाले 'तम्हि' रूप को (४२५) गलत बताया है । हमारी दृष्टि से यह गलत नहीं होगा क्योंकि 'इमम्हि' रूप व्यवहारसूत्र में और -म्हि वाले प्रयोग कुन्दकुन्द के साहित्य में मिलते हैं । -हि विभक्ति-प्रत्यय मात्र पालि भाषा का ही हो ऐसा एकांत दृष्टि से नहीं कहा जा सकता । कुछ प्रत्यय अमुक काल तक पालि और अर्धमागधी दोनों भाषाओं में समान रूप से प्रचलित रहे होंगे ऐसा कहना अनुपयुक्त नहीं होगा। अथवा ऐसा भी असंभव नहीं माना जा सकता कि उत्तरवर्ती लेहियों ने प्राचीन प्रत्ययों के स्थान पर उस समय में प्रचलित नये प्रत्ययों को रख दिया हो । ऊपर दिये गये अनेक विभक्ति प्रत्ययों में से -म्मि प्रत्यय Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के. आर. चन्द्र सबसे बाद का मालूम होता है, जिसकी उत्पत्ति ध्वनि-परिवर्तन के सिद्धान्त से स्पष्टतः -म्हि में से हुई है और लेखन की असावधानी के कारण , स और म के बीच (लिपि-दोष से 'स' में 'म' का) भ्रम* हो जाने से –'म्सि' का -म्मि' या -'सि' का -'मि' में परिवर्तन होना भी अशक्य नही कहा जा सकता । अर्धमागधी के प्राचीन अंशों में -सि के स्थान पर -मि' 'म्मि' आ. जाने का यह भी एक सबल कारण है । . इस सारे विवेचन से यह फलित होता है कि यदि प्राचीन अर्धमागधी साहित्य की प्रतियों में स. ए. व. के लिए -स्सिं, •स्सि, -स्मि या -म्हि प्रत्यय मिलते हो तो उन्हें गलत मानकर उनके स्थान पर -ांसि और -म्मि का प्रयोग नहीं करना चाहिए । इस संदर्भ में प्राकृत भाषा की प्राचीनतम कृति से एक उदाहरण देना अनुपयुक्त नहीं होगा जिसमें सप्तमी एकवचन का –स्सिं प्रत्यय एक पाठान्तर के रूप में -असि के स्थान पर आचारांग में मिलता हैलोगस्सिं (सं. ख. जै प्रतियों के अनुसार, १.८.३.२०९, पृ० ७५, म. जै. वि. संस्करण) । . आचार्य हेमचन्द्र के द्वारा -स्सिं विभक्ति प्रत्यय सर्वनाम के लिए दिया गया है और यह उदाहरण नामिक विभक्ति प्रत्यय का है । अर्धमागधी भाषा के प्राचीन लक्षणों के बारे में अल्प जानकारी के कारण हमारे लेहियों अथवा संपादकों के हाथ कितने ही प्राचीन 4. सम्वाउसा-इसिभा. २६. प. १ (पाठान्तर-मबाउसे।), सिसिरंसि-आचा, १.९४.३.९ (पाठा. सिसिमि, सं, खे, ने) । आचा. (मजे वि.) सूत्र १ के 'सुय मे आउस' के 'सुय' शब्द में जेसलमेर की एक विसं. १४८५ की तारपत्र की प्रति में 'मुयः' का भ्रम होता है । ma Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अधमागधी ८७ विभक्ति प्रत्यय और क्रिया प्रत्यय साहित्य में से लुप्त हो जाने की शंका होती है । जैसे आ० श्री हेमचन्द्र ने पंचमी एकवचन के लिए (स्मात् ) -म्हा विभक्ति प्रत्यय के साथ कम्हा, जम्हा, तम्हा इत्यादि रूप तो (८.३.६६). दिये हैं परन्तु (-स्मिन् ) -म्हि विभक्ति प्रत्यय का कोई उल्लेख तक नहीं किया है जो साहित्य में यत्र तत्र मिलता है । हो सकता है इसे पालि का विभक्ति प्रत्यय समझकर मान्य नहीं रखा हो । जब व्याकरण-ग्रंथ में उसे मान्यता नहीं मिली हो तब तो ऐसे विभक्ति प्रत्यय का प्रयोग प्राचीन प्रतों में कहीं कहीं पर मिला भी होगा तो उसका सामान्यत: त्याग ही कर दिया गया होगा ऐसा कहना अनुपयुक्त नहीं होगा । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ कुछ अन्य विभक्ति प्रत्यय __ प्राकृत भाषा के कतिपय विभक्ति-प्रत्यय जो प्रारंभ में अनुस्वार-रहित थे उनमें उत्तरवर्ती काल में अनुस्वार का आगम हुआ और जो अनुस्वार-युक्त था उसमे से अनुस्वार का लोप हुआ । कालक्रम से दोनों प्रकार के प्रत्यय भाषा के अभिन्न अंग बन गये ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है । उनके इस प्रकार के विकास के बारे में निम्न विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया जा रहा है । १. नपुं. प्रथमा-द्वितीया बहुवचन नपुसकलिंग प्रथमा और द्वितीया ब. व. के लिए वररुचि के प्राकृत-प्रकाश के द्वारा -इ प्रत्यय दिया गया है । इज्जश्शसोदीर्घश्च -5.26 उदाहरण - वणाइ, दहीइ, महइ । सूत्र नं. 6.23 की वृत्ति मे दिये गये 'अमूई, वणाई' के अनुसार और कॉवेल द्वारा दिये गये 'वणाई' उदाहरण के अनुसार (पृ 51, पा. टि. 11 ) -ई प्रत्यय भी बनता है । शौरसेनी के लिए दिये गये सूत्र मे -णि प्रत्यय भी मिलता है । मिर्जश्श्सोर्वा क्लीवे स्वरदीर्घश्च 12.11 उदाहरण - वणाणि अर्थात् शौरसेनी में –णि और महाराष्ट्री प्राकृत में -इ और -इं । इसका अर्थ यह हुआ कि महाराष्ट्री से शौरसेनी पुरानी भाषा Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी ८९ है, अतः -णि प्रत्यय पुराना है और -इ, -ई उत्तरवर्ती हैं। हेमचन्द्राचार्य ने तीन -णि, -ई और -इँ प्रत्यय दिये हैं । जस्-शस इ-ई-णयः समाग्दीर्घाः –8.3.26, उदाहरण-वयमाई, 'पङ्कयाइ', दहीई, मइ, पङ्कयाणि, दहीणि, मणि __ सूत्र नं. 8.1 34 के उदाहरण इस प्रकार हैंगुणाई, गुणाई और देवाणि अर्थात् उनके अनुसार प्राकृत में तीनों प्रत्यय – णि, इं और इ चलते हैं । २. पुंलिंग-नपुसकलिंग अकारान्त तृ. ए. व. पुं. तृ. ए. व. का विभक्ति-प्रत्यय प्राकृत-प्रकाश के अनुसार .-एण मात्र है, उदाहरण -वच्छेण टामोर्ण: 5.4 परतु कॉवेल महोदय के सूत्र 4.16 . पर के टिप्पण के अनुसार –एण का -एणं भी होता है । ____ आचार्य श्री हेमचन्द्र ने -एण और -एणं दोनों प्रत्ययों का उल्लेख किया हैं। टा-आमोर्णः 8 3 6 और क्त्वा-स्यादेर्णः स्वोर्वा 8 1 27 ... उदाहरण-वच्छेणं, वच्छेण वररुचि सिर्फ -एण प्रत्यय दे रहे हैं जबकि हेमचन्द्र -एण और -एणं दोनों प्रत्ययों का उल्लेख करते हैं । ३. वतीया बहुवचन प्राकृत-प्रकाश में तृ. ब. व. के लिए मात्र -हिं प्रत्यय का उल्लेख है। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के. आर. चन्द्र ___ भिसो हिं -5.5; उदाहरण-वच्छेहिं .. व्याकरण की वृत्ति में सर्वनाम के प्रकरण में –हि प्रत्यय भी मिलता है - तीहि-6 55, पुनः 6.61 में अग्गीहि, वाऊहि, इत्यादि उदाहरण भी मिलते हैं जबकि उनके ही पाठान्तर मे -हिं मिलता है। । हेमचन्द्राचार्य के अनुसार -हि, -हिं और -हि तीन प्रत्यय हैं । भिसो हि हि हि 8.3.7 उदाहरण-वच्छेहि, वच्छेहि , वच्छेहि ४. षष्ठी बहुवचन .. वररुचि के प्राकृतप्रकाश के अनुसार षष्ठी बहुवचन का विभक्तिः प्रत्यय -ण है । टामोर्णः 54 उदाहरण-वच्छाण पाठान्तर में -णं मिलता है (कॉवेल, पृ. 39) । सूत्र नं. 5.11 में भी –वच्छाण रूप है । हेमचन्द्राचार्य के अनुसार भी –ण प्रत्यय है । . टा-आमोर्णः-8 3.6, उदाहरण -वच्छाण __ ण के बदले -णं का स्पष्ट उल्लेख नहीं है। ५. सप्तमी बहुवचन प्राकृतप्रकाश में स. ब. व. के लिए मात्र -सु प्रत्यय दिया गया है । सुपः सु:-5 10, उदाहरण- वच्छेसु अन्य उदाहरणों मे -तुझेसु, तुम्हेसु 6 30, अम्हेसु 6.53, दोसु 6.54 और वच्छेसु 6.63 मिलते हैं । पाठान्तर में दोसु 0.54 भी मिलता है । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी हेमचन्द्राचार्य के अनुसार –सु 83.15 और सु 8.1.27 दोनों ही प्रत्यय मिलते हैं । उदाहरण – वच्छेसु और वच्छेसु व्याकरणकारों ने जो विभक्ति प्रत्यय दिये हैं उनके परिप्रेक्ष्य में प्राचीन रूपक साहित्य, प्राकृत शिलालेखों तथा प्राचीन प्राकृत साहित्य में ये प्रत्यय किस प्रकार मिलते हैं उनका विवरण निम्न प्रकार से दिया जा सकता है । प्राचीन रूपक साहित्य ११: कुछ प्राचीन रूपकों * में ये विभक्ति - प्रत्यय जिस प्रकार मिलते हैं उनमें से निम्न तालिका के अनुसार - आणि, हि, -णं, -सु प्राचीन प्रत्यय हैं जबकि - आइ, हिं, ण, सु उनके उत्तरकालीन रूप हैं और * See my article: 'Study of Pakrrits in Classical Dramas Their Stages in Some Early Dramas', Vidya, C-Languages, Vol. XXIII, No. 2., Guj Univ.... Aug 1980 The table is reproduced. Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारक १. नपुं. प्र. ब. व. २. तृ. ब. ब. ३. ष. ब. व. ४. स. ब. व. शारिपुत्र प्रकरणम् - नां 1 ** = शाकुन्तलम् के प्रयोगों के अनुसार स्वप्न वासवदत्तम् - आणि - हि (बहुधा) - हि (कभी-कभी ) - णं -सु विक्रमोर्वशीयम् - आणि आई -हि : - हिं (बहुधा) -णं p सु मृच्छकटिकम् -आई -हि -oi, -σ ܣ ܣ ९२ के. आर. चन्द्र Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी स्वप्नवासवदत्तम् तथा मृच्छकटिकम् में तृ. ए. व. के लिए सिर्फ. -एण प्रत्यय ही मिलता है । प्राचीन शिलालेख प्राचीम शिलालेखीय प्रयोगों से यह फलित होता है कि प्रत्ययों में अनुस्वार का आगम या लोप उत्तरवर्ती प्रवृत्ति है । प्रो.. मेहेण्डले' के अध्ययन का सार यह है कि प्राचीन शिलालेखों में नपु'.. प्रथमा-द्वितीया ब. व. के लिए सर्वत्र सामान्यतः-आनि प्रत्यय का. प्रयोग हुआ है (पश्चिम मे प्रथम शताब्दी से और दक्षिण मे तृतीय शताब्दीसे -आणि का प्रयोग) । -आई प्रत्यय का कहीं पर भी. उल्लेख नहीं है । पुलिंग -नपु. अकारांत शब्द के तृतीया ए. व.. का प्रत्यय –एन* सर्वत्र मिलता है (पश्चिम और मध्य क्षेत्रमें दूसरी शताब्दी ई. स. पूर्व से, उत्तर-पश्चिम में प्रथम शताब्दी ई. स.. पूर्व से और दक्षिण में दूसरी शताब्दी से -एण प्रत्यय मिलता है)। तृतीया ब. व. का विभक्ति प्रत्यय -हि सर्वत्र मिलता (पृ 24 1) है । सप्तमी ब. व. का प्रत्यय सर्वत्र –सु मिलता हैं (पृ. 241, 244, 245, 247, 249, 250) । ष. ब. व. का प्रत्यय सामान्यतः -नं है और कभी कभी सर्वत्र -न भी मिलता है (-नकार का -णकार पश्चिम में दूसरी शताब्दी ई. स. पूर्व से मिलने लगता है, पृ. 241 इत्यादि)। 1. Historical Grammar of Iascriptional Prakrits by ___M. A. Mehendale, Poona, 1948, p. 284 ff. 2. वही, ई. स. पूर्व दूसरी या प्रथम शताब्दी के मध्य भारत के एक शिलालेख में -एणं प्रत्यय (हारितीपुतेण) मिलता है (पृ. 173) । 3. वही, चतुर्थ शताब्दी के बासिम के शिलालेखों में -हिं प्रत्यय मिलता है (लिखितेहिं, आमेहिं -पृ. 173, 180) www.jainelibrary.com Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के आर. चन्द्र प्राचीन प्राकृत काव्य साहित्य गाथा सप्तशती (1) गाथा सप्तशती में नपुसकलिंग प्रथमा-द्वितीया ब. व. के लिए . -आणि प्रत्यय नहीं मिलता है । प्रचलित प्रत्यय -आई और (छन्द के नियमन के लिए) --आई मिलते हैं । गाथा नं 722 मे --आइ प्रत्यय भी मिलता है । • (ii) तृतीया एक क्चन के लिए प्रचलित प्रत्यय -एण है जो पाद के अन्त में भी मिलता है (जहाँ पर दीर्घ मात्रा की आवश्यकता होती है ) । मात्राओं के नियमन के लिए -कएणं(524), [पादएणं (766), अणुज्जुएणं (783), णामेणं (787), दंतोटेणं (795), वलाहिरेणं (805), लोअणेणं एव' माणसेएणं (822)] और एक जगह दंसणेण (610) भी मिला है । 700 के बाद की प्रक्षिप्त .. गाथाओं में -एण प्रत्यय अधिक मात्रा में मिलता है । (iii) तृ. ब. व का प्रचलित प्रत्यय -हिं है जबकि -हिं -हि कम मात्रा में मिलते हैं । (iv) ष. ब. व. का प्रचलित प्रत्यय –ण है, उसके बाद –णं की बारी आती है । –ण प्रत्यय कभी कभी ही, जैसे- अण्णाण (89, 470) मिलता है । इस –ण प्रत्यय की संख्या 700 के बाद की गाथाओं में बढ़ जाती है (746, 764(3), 767, 80345), 860, 861, 936, 941) । (v) स. ब. व. का चालू प्रत्यय -सु है, सिर्फ एक बार –सु (वणेसुं-77) मिल सका है । ___ * संपा. स. आ. जोगळेकर, प्रसाद प्रकाशन, पुणे, 1956 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी सेतुबन्धम् * (i) नपुं. प्र. द्वि. ब. व. के लिए - आणि प्रत्ययवाला एक भी प्रयोग नहीं मिला है । प्रचलित प्रत्यय - आई और आइँ हैं । दो चार प्रयोग - आइ के भी मिलते हैं ( रअणाइ 2.14, रक्खसाइ, तुरआइ, पवआइ 15.17 ) | (ii) तृतीया ए. व. का बहु प्रचलित विभक्ति प्रत्यय - एण ही है । कभी कभी मात्राओं के नियमन के लिए आठ-दस प्रयोगों में अनुस्वार युक्त – एण मिलता हैं (णिम्माणएणं 3.45, लोअणेणं 347, असेणं 3.55, अइसएण 4.35, इत्यादि) । (iii) तृतीया बहुवचन का प्रचलित विभक्ति प्रत्यय - हि है ( वाणरेहि 15.4 ) । कभी कभी हि और हिं भी मिलते हैं (अम्हेहि 3.32, नईहिं 2.16) । (iv) षष्ठी ब. व. का प्रचलित प्रत्यय णं है, कभी कभी मात्राओं के नियमन के लिए -ण भी मिलता है ( वाणराण 2.45, वहन्ताण 3.26, रामचरणाण 8. 28, नईण 8.65, सुरवडूण 15.78 ) और बहुत कम प्रयोग - ण के भी मिलते हैं । ( कलहंसाण 1.23, दिसाण 1.24, वाणराण ँ ँ 1.55 ) । प्राकृत - प्रकाश के सूत्र नं. 4.16 पर टिप्पण करते हुए कॉवेल महोदय का यह मत है कि वृत्त के भंग को बचाने के लिए नपुं. प्र. द्वि. ब. व., तृ. ए. व., और तृ. ब. व. के प्रत्ययों में अनुस्वार का आगम या लोप होता है । इसका अर्थ यह होता है कि -आणि, एण, प्राचीन प्रत्यय थे और उत्तरवर्ती काल में पद्यात्मक रचनाओं में छन्द के नियमन के लिए उनमें अनुस्वार का लोप होने लगा । हि णं और सु आगम या संरा. पं. शिवदत्त, निर्भय सागर प्रेस, बम्बई, 1935 ९५ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के. आर. चन्द्र पिशल महोदय के कथनानुसार भी यही फलित होता है कि -एण प्राचीन प्रत्यय है और –एणं उत्तरकालीन है । उनका कहना है कि (363) मागधी, शौरसेनी, पैशाची, चूलिका पैशाची और जैन शौरसेनी मे सिर्फ -एण (तृ. ए. व.) प्रत्यय मिलता है जबकि महाराष्टी, जैन महाराष्ट्री और अर्धमागधी * में -एण और -एण' दोनों प्रत्यय मिलते हैं । वसुदेवहिंडी और पउमचरियं महाराष्ट्री प्राकृत की प्राचीन जैन रचानाएँ हैं अतः उनमें प्रयुक्त इन विभक्ति प्रत्ययों की क्या स्थिति है यह जानना उपयोगी होगा । वसुदेवहिंडी .. यह एक गद्यात्मक रचना है जिसमें मात्राओं के नियमन के. लिए अनुस्वार के आगम या लोप की आवश्यकता नहीं रहती । इस रचना के प्रथम खण्ड के प्रथम अंश के 1-16 पृष्ठों (400 श्लोक-प्रमाण) का विश्लेषण इस प्रकार है । 1. नपु. प्र. द्वि. ब. व. का बहु प्रचलित विभक्ति प्रत्यय -आणि है। सिर्फ चार-पाँच प्रतिशत -आई मिलता है, उदाहरणफलाणि 2.22 , ताणि 3 25 , दिट्ठाणि ।1.8 , वंजणाणि 14 22, जुद्राणि 16 2., एवं एयाई 3 25, सधणाई 119 2. तृतीया ए. व. (पु. नपु. अकारान्त) का चालू प्रत्यय -एण है, कभी कभी लगभग 10 से 12 प्रतिशत –एणं पाया * इसमें प्राचीन और उत्तरकालीन दोनों प्रकार की अर्धमागधी का समावेश हो। जाता है सिवाय कि पद्यात्मक अंशों में ऐसे प्रयोग जहाँ पर वृत्त-भग से बचने के लिए अनुस्वार-सहित या अनुस्वार-रहित प्रत्यय की आवश्यकता हो । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी . U . . गया है, उदाहरण . तेण 2.23, कालेण 6.1, घणेण 13.11, एएण 16.13. और एएणं 4.19, ..जंबुनामेणं, 6.19, रहस्सेणं 11.15, सयपोणं 16.6 3. तृ. ब. व. का. प्रचलित प्रत्यय -हिं पाया गया है । -हि के प्रयोग 10 प्रतिशत ही मिले हैं, उदाहरण -अम्हेहिं 58 चोरेहि 13.19, तेहि 13.8, एवं तेहि 4.30, लच्छीहि 7.6, दोहि 9.26 4. षष्ठी ब. व. काच्चालू. प्रत्यय -मां है, लगभग 15 प्रतिशत ..-ण. भी मिलता है। उदाहरण जणाणं 12.7, सहथवाहाणं 6-27, एवं गणिग्राण .11.8 और वोराण 16.21 5. सप्तमी ब. व. का सिर्फ -सु प्रत्यय ही पाया गया हैं, उदाहरण -सासेसु 3.47 अनीतेसु: 6.20, जगरेसु 155 और अमरेसु 17.8 पउमचरियं यह एक पद्यात्मक रचना है अतः छन्द में मात्राओं के नियमन के लिए अनुस्वार का आगम और लोप आवश्यक था । इस दृष्टि से इसके उद्देश 2, 3, 71 और 106 (398 गाथाओं) का विश्लेषण इस प्रकार है। 1. पु. नपु प्र. द्वि. ब. व. का प्रचलित प्रत्यय –आई है, पाद के अन्त में भी यह.प्रत्यय मिलता है । इस ग्रंथ में -आई ... 31 बार, -आई है. बारऔर -आणि 6 बार मिला है। उदाहरण -अणुब्वयाणि 2.86 दिवमाणि 3,677 अन्नाणि Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ के. आर. चन्द्र 106.19, निययाइँ 2.97, आसणाई 3.71, कमलाई 299, सहस्साइ 3 23, दुक्खाई 106 42, पंदान्त में ठाणाइ 2.97, पल्लाई 3.36, वहन्ताई 71.23, दुट्ठवयणाइ 106.17 2. पु. नपु'. तृ. ए व. का प्रचलित विभक्ति प्रत्यय -एण है जो 97 वार मिला है । -एणं 55 बार मिला है जिसमें से पादान्त में 46 बार मिलता है । पादान्त में -एण भी चार बार प्रयुक्त हुआ है । उदाहरण –वीरेण 2.104, रामेण 3.10, तेण 3.106. 'कमेण 71.1 कणयरहेण 106.2, केण 106.18 और जिणवरधम्मेणं 2 106, तेणं 3 08, सिरिसेलेणं 71.44; पादान्त में भावेण 2.81, समणरूवेण 3.142; भावेण' 2.98; तेएणं 3.4, . जेणं 3.54, नीलेणं 71.35, पयत्तणं 106.24 3. तृ. ब. व. का प्रचलित विभक्ति-प्रत्यय -हि है जो 34 बार मिला है, -हिं 25 बार जिसमें से पादान्त में 15 बार मिला है । उदाहरण ____ दुक्खेहि 2.75, एएहि 3.38, सरेहि 71.68, अम्हेहि 106.11, तिहिं 106.14 ___पादान्त में गुणेहिं 2.117, हत्थेहिं 3.96, मेहेहिं 71.33 4. ष. ब. व. का प्रचलित प्रत्यय -णं है जो 59 बार मिला है जबकि -ण 42 बार मिला है । पादान्त में –णं 30 बार मिला है। उदाहरण, गन्धवाणं 3.31, ताणं 106.7; ताण 2 63, रक्खसाण 3.31, आउहाण 71.2, अकुसाण 106.13, पादान्त में सुरवरार्ण 2.57, पणवाणं 3.87, वहन्ताणं 71.71. पत्ताणं 106.28 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी ९९ 5, स. ब. व. का प्रत्यय -सु है जो 83 बार मिला है, सिर्फ 1 बार -सु मिला है, ठाणेसु 3.24; पादान्त में भी -सु ही प्रयुक्त हुआ है। उदाहरण-बहुएसु 2 112, अङ्गेसु 71.21 -कामभोगेसु 106.38 . इस विश्लेषण से स्पष्ट है कि महाराष्ट्री प्राकृत की पद्यात्मक रचनाओं में -आणि का -आई हो गया और मात्राओं के नियमन के लिए अन्य प्रत्ययों में अनुस्वार का आगम या लोप होने लगा । वसुदेवहिण्डी पर (गद्यात्मक रचना) इस उत्तरवर्ती परिवर्तन का प्रभाव दिखता है । उसमें –हिं की बहुलता है और कभी कभी -आई -एणं और –ण प्रत्यय भी मिलते हैं । अर्धमागधी आगम साहित्य में इन प्राचीन और उत्तरवर्ती विभक्ति-प्रत्ययों का प्रयोग वैकल्पिक हो गया हो ऐसा प्रतीत होता है । इस बात की पुष्टि नीचे दिये गये उदाहरणों से हो रही है । __आगम ग्रंथों के जिन संस्करणों से उदाहरण यहाँ पर दिये जा रहे हैं उनमें स्वीकृत पाठ अमुक अमुक प्रतियों से लिये गये हैं । अस्वीकृत पाठ पाठान्तर के रूप में दिये गये हैं जिनके सामने प्रतियों के नामों का उल्लेख है अतः स्वीकृत पाठों के सामने अन्य प्रतियाँ समझ ली जानी चाहिए। नीचे प्रतियों का परिचय* - प्रतियों का परिचय (क) आचारांग (म. ज. वि.), के सम्पादन में उपयोग में ली गयी प्रतियाँ ताउपत्र से. संघवी पाडा ज्ञानभांडार, पाटन, वि. सं. १३ वीं शती का उत्तराध शां. श्री शांतिनाथ ताडपत्रीय जैन ज्ञान भडार, खंभात, वि. सं. १३०३ ख. . वि. सं. १३२७ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के. आर. चन्द्र दिया गया है । पाठान्तरं रहित प्रयोगों के कुछ नमूने और पाठान्तर वाले भी कुछ उदाहरण दिये जा रहे हैं। इससे स्पष्ट होगा कि प्राचीन और उत्तरवती दोनों ही प्रकार के प्रत्यये स्वीकृत पाठों या पाठान्तरों में मिलते हैं । इस तरह से दोनों प्रकार के प्रत्ययों का मिलना यही दर्शाता है कि उत्तस्वी' प्रत्यय कालान्तर में वैकल्पिक प्रत्यय बन गये । प्राचीन प्रत्ययों के कुछ उदाहरण : आचासंग (i) पतिदेहतराणि 1.92, कूराणि कम्माणि 1.148, दुच्चरगाणिं 1.298, मंसूणि 1.30'3, गर्थिमाणि 2 689, विविहाणि 2.689, इत्यादि । (ii) परितावेण 163, अलोमेण 171, तिविधेण 1 79. तेण 1.83 जेण 183, कडेण 1.93; छणपदेणं 1:103. अवरेण 1 124, पहेण 1.129t3), इत्यादि । खे. श्री खेतरवसी पाडा का भंडार, पाटन जे श्री जिनमद्रसूरि जैन ज्ञान भडार, जेसलमेर, वि. सं. १४८५ कागज की प्रतियाँ जै. जैन साहित्य विकास महल हे. १, २, ३ श्री हेमचन्द्राचाय जैन शान भडार, पाटन इ. जैन श्वेतांबर संघ का आत्मकमललब्धिसूरीश्वर शास्त्र संग्रह, इसर ला. ला १ श्री लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद (ख) सूत्रकृतांग (म. जै. वि.) के संपादन में उपयोग में ली गई प्रतियाँ ताडपत्र की प्रतियां खं १. श्री शांतिनाथ ताडपत्रीय जैन ज्ञान भडार, खंभात, वि. सं. १३२७ , ,, वि. सं १३४९ पा. श्री घिवीपाडा जैन ज्ञान भंडार, पाटण, वि. सं १४६८ कागज की प्रतिया ख २.. " " Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी (iii) वीरेहि 1.33. (iv) अणगाराणं 1.14, -5, 26,5:36. 44, 52,59; माणवाणं 1.64 67. 77, धूताण', दासीण, कम्मकरीणं 1,87, संसारपडि-. वण्णाणं 1 134, अणियहाामीण 1.143, वीक्षण' 1.143, आतो वरताण' 1.146, आरूसियाण'- 1 256, इत्यादि । (v) रूवेसु 1.41, दिसासु.. 1.49; 103, 1.37, एतेसुः 189, तेसु 1.92, सद्द-रूवेसु 1.108, पयासु. 1.119, उवरतदंडेसु 1.132, सोवधिएसु 1.132, इत्यादि । सूत्रकृतांग (i) उच्चावयाणि 11.1.27, सयणाणि 1.3.2.17. बीयाणि 1.3.4.3, सद्दाणि 1 4.1 6, केसाणि 1.4.2.3, भूताणि 7.8: सवेदियाणि 8:17, सव्वाणि 9.36; महब्भयाणि 10.21 पाव कम्माणि 15.6: अंताणि 15.15. (ii) परिताणेण 11.2.6, सुहुमेण 1.4 1 2, ईसरेण 1 1.3.6, मोहेण 1.3.1.11, कासवेण 1 3.2.14;15.21; मिच्छत्तेण 1.3,3.18, उदएण 1.3.2.4.1, उसीरेण 1.4.2.8, नाणेण 1.6.17, 18, वियडेण 1.7.21, केण 8.1, दुक्खेण 10.4, अण्णेण 10.6, सच्चेण 15:3 पु. १. मुनि श्री पुण्यविजयजी का संग्रह, वि. स. १७१४. पु. २. . ,, वि. सं. अंदाजन १६वीं शती ला. लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अहमदाबाद. सं. जैन ज्ञान भंडार, संवेगी उपाश्रय, हाजा पटेल पोल, अहमदाबाद (ग) ऋषिभाषितानि (शुब्रिग), ला. द. भा. सं. वि. मन्दिर, अहमदाबाद, ई. स. १९७४ प्र. प्रत्यान्तरे = P, H और D. Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के. आर. चन्द्र (iii) ढंकेहि 1.1.3.3, कसायवयणेहि 1.31.15, णायएहि 1.8.12, सुहीहि 1.8.12. हत्थे हि पाएहि 10.2 १०२ (iv) अण्णाण 1.1.3.5, भिक्खूणं 1.3.2.1, पंथाणं 1.33.5 कुसीलाणं 1.4 1.12, जिणाणं 1.6.7, पाणिणं 1.8.4, बुद्धाणं 1.9.32, दुक्खाणं 15.17, सव्वसाहूणं 15.24 (V) सेज्जासु 1.1.4.11, इत्थीसु 1.3.2.22, इत्थीपोसेसु 1.4.1.20, रुक्खेसु 1.6.18, एतेसु 1.7.210.5, हरितेसु 1.9.19, आरंभेसु 1.9.35, अणियाणभूतेसु 10.1, पावसु 10.5, अमणुस्सेसु 15.16 पयासु 10.4, ऋषिभाषितानि (i) पिट्टणाणि तज्जणाणि 9 पं. 5, णाणदंसणचरिताणि 24 पं. 11 कम्माणि 2.5, दुवस्वाणि 27, अण्णमण्णाणि, गहणाणि 45 पावकम्माणि 9.15, दुक्खाणि 15.1, इन्दियाणि 16.3 (ii) देवनारदेण 1 पं. 3, वज्जियपुत्तेण 2 पं.1, महाकासवेण 9 पं. 2, अमच्चेण 10 पं. 10, तरुणेण 21 पं. 2, केण वा अट्टेण 31 पं. 3, 4, माहपरिणव्वायगेण 37 पं. 2 अण्णाण 2.8; 21.4, 7, 8, 9, संकप्पेण 4. 11, झाणेण 9.25. पडियारेण 15.8, णाणजोगेण 21.10, जेण 24.18, जग्गिएण 35 17, सुखेण 38.1, सत्थेण 45.18, भात्रेण 45.25 (घ) उत्तराध्ययन सूत्र के ( म. जै वि.) संपादन में उपयोग में ली गई प्रतियाँ श्री संघवीपाडा जैन ज्ञान भंडार, पाटण, वि. सं १९८९ ( ताडपत्र ) सं १. सं २. पु. श्री संघवी पाडा जैन ज्ञान भंडार, पाटण, वि. सं १२३२ (ताडपत्र) श्री लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अहमदाबाद, ( कागज की प्रति) १६वीं शती Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी (iii) कम्मेहि 2.3, गलेहि 212, सामभेयक्कियाहि 24.12, भासापणइएहि 41.12, पुप्फादिहि 45.53 (iv) सव्वदुक्खाणं 21 पं. 9, जीवाण 3! पं. 8, पुग्गलाण 31 पं. 10, सरीराण' 9.14, सव्वदुक्खाण 15.28, संजोगाणं 21.9 पमत्ताण 35.20, णराण 41.1, माणवाण' 45.1, पुप्फाणं 45.53 (v) मणुण्णेसु सद्देसु 16 पं. 4,5,7, रुवेसु गंधेसु , रसेसु फासेसु 16 पं. 9, 38 पं. 2, सव्वत्थेसु 1.2, सिक्खागतीसु 9.16, गामेसु 22.7, कूडेसु 26 ), सद्दसु 38.5, णरएसु, कामेसु 45.1 उत्तराध्ययन (i) निरस्थाणि 1.8, पंताणि 8.12, अट्टालगाणि 9.18, वद्धमाणगिहाणि 9.24, पंचिदियाणि 9.36, खेत्ताणि 12.13, कम्माणि 13.26, महालयाणि 13.26, एयाणि 5.21, जालाणि 14.36, सुयाणि 19.11, पंचमहव्वयाणि 19.11 मरणाणि 19.16,47, सारभंडाणि 19.23, सोढाणि 19.47, भीमाणि 19.47, जम्माणि 19.47, सीसगाणि 19.69, सोल्लगाणि 19.70, मधूणि 19.71, रुहिराणि 19.71 वल्लराणि 19.81, सराणि 19.81, आभरणाणि 22.20, सवाणि 22.20, तणाणि 23.17, इंदियाणि 23.38 ला १. श्री लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अहमदाबाद (कागज की प्रति) वि. सं १५२५ ला २. . श्री लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्याम दिर, अहमदाबाद (कागज की प्रति) १६ वीं शती .. ह.. . मुनि श्री हंसविजयजी के संग्रह की प्रति । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...के. आर. चन्द्र (ii) कालेण 1.1.0,31(2).32,14.52, संजमेण 1.16, तवेण 1.16. अंतरेण 1.25, सीएण 1 27, फरसेण 1.27, प्रडिस्वेण 1.32, पत्तिएण 1.41, जेण 81; तेण 8 16, कुसग्गेण 9.44, संकप्पेण 9.49, धणेण 1417, . सयणेण -14 17, केण 14.22, माहणेण 14.38, अचिरेण 14.52, संजमेण 19.78, तवेण 1978, नाणेण 19 25, 22.26, चरणेण 19.95, दंसणेण 1995, तवेण 19.95, अंकुसेण 22:46, (iii) परेहि 116 , पओसेहि 8.2, सबलेहि 19 55, पट्टिसेहि ___19.56, मुसलेहि 39.62, पसत्थेहि (गद्य) 29. 1109 (iv) अगारेसु 1.26, सव्वेसु 8.4, कामजाएसु 84, रक्खसेसु 8 18 , नारीसु 8.19, पासादेसु 9.7. भोगेसु 9.02, जंतुसु 14.42, कामेसु 14.45, तसेसु 19 90 (गद्यांश) तिरिच्छिएस 29.1104. . कामभोगेसु 29 1104, पवयणमायासु 29.1113, रसेसु 29.1166-68, फासेसु 28 1166.68 शा. श्री जाल "शान्टीयर का सांस्करण, ई. स. १९२१-२२ ' पा. .. श्रीष्ठ देवचन्द्र लालभाई, सुरत द्वारा प्रकाशित. आचार्य श्री शान्तिसूरिकृत. पाइयटीका. ई. स. १९१६-१७ ने. शेठ पुष्पचन्द्र खेमचन्द्र वणाद, गुजरात द्वारा प्रकाशित आचार्य ..." श्री नेमिचन्द्रसरि कृत 'उत्तराध्यन सूत्र की टीका ई. स १९४७ () दशवकालिकपत्र (म...वि.) के संपादन में उपयोग में ली गई प्रतियाँ खं १ श्री शांतिनाथ गेन ताडपत्रीय ज्ञान भडार, खभात, १३ वीं शती का पूर्वाध' - ख २ श्री शांतिनाथ जैन तारपत्रीय ज्ञान भंडार, खंभात, १४ वी शती का उत्तरार्ध Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी दशवैकालिक सूत्र (i) afugem 3.2, उवट्टणाणि 3.5, आउस्सरणाणि 3.6, पगाणि 6.63, पवयाणि, वणाणि 7.26, तित्थाणि 7.37, एयाणि 8.16, मित्ताणि 8.37, आसणाणि 9.2.17, दुरुद्धराणि 9.3.7, महब्भयाणि 93.7, सव्वाणि 10.19. 11 (ii) तेण 15, अंकुसेण हत्थे, पारण 4.18. 5.2 49;6.20,25, १०५ 2.10, संजमेण 3.15, * तवेण 3.15, नमोक्कारेण 5.1.124, नायपुरतेन सीपण उसिणेण 6.62, एएण 7.13, अन्नेण 7.13 नामघेज्जेण 7.17, अनिलेण 10.3 (iii) सहि 6.22, बुद्धेहि 7.2 पण 6.37, तिविहेण 6.26,43;8.4, : (iv) महेसिणं 3.1, जीवनिकायाणं 4.10, भासाणं 7.1 (v) पुtha 12, अहागडेसु 1.4, भोगेसु 2.11, गिम्हेसु 3.12, हेमंते 3.12, देवलोगेसु 314, कंसेसु, कंसपाएसु, कुंडमोसु 6.50 भिलुगासु 661, गहणेसु 811, रसेसु 10,17 खं ४ अलग अलग हस्तप्रतों में उसी शब्द-रूप के लिए अनुस्वार सहित या अनुस्वार-रहित विभक्ति प्रत्ययों के प्रयोग खं ३ : श्री शांतिनाथ जैन ताडपत्रीय ज्ञान भंडारे, ख भात, १४ वीं शती का उत्तरार्ध श्री शांतिनाथ जेन ताडपत्रीय ज्ञानभंडार, ख भात, १४वीं शती का उत्तराध जे. श्री जिनभद्रसूरि पे ज्ञानभंडार, जेसलमेर, वि सं. १२८९ (ताडपत्र) शु. शुत्रिंग और डॉ. हायमेन का संस्करण नपा. संकेत अस्पष्ट Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के. भार. चन्द्र आचारांग (i) कूराई कम्माइ' 1.82, (कूराणि कम्माणि- सं, शां, ब, खे जै), ऑसणगाइ 1.29+ (आसणयाणि खे. जै, दुच्चरगाणि 1.298 (दुच्चराइ-हे २, ३, इ, ला, दुच्चराणि-खं, सं. हे १) मंसूणि छिण्ण-पुवाई 1 303 (मंसूणि छिन्नपुवाणि- च.) (i) समारंभेणं 1.14,50,52 (समारंभेण --आगमोदय) सञ्चसमागल पण्णपणेणं 1.52, (-पणाणेण-सं, खे, जै), परितावेण 1.63, (परियावेणं हे २, ३, इ, ला.), तिविधेण 1.79 (तिविहेणं हे १, २, ३, इ, ला) (iii) वीरेहिं 1.33 (वीरेहि, शा, हे २, ३, ला.), परिहायमाणेहि 1.64 (परिहायमाणेहि- चू.), थीभि 1.84 (थीहिं- शी. पू. 62ब) (iv) मिहुकहासु 1.263 (मिधोकहासु हे १) सूत्रकृतांग आरंभाइ न 1.1.2.11 ( आरंभाणि ख१) पावकम्माणि 115.6 (पावकमाइ खे२, पु१, २, ला.), णायएहि 1.8.12 (नायएहि पु२) ऋषिभाषितानि अमच्चेणं 10. पं. 12 (अमच्चेणे प्र.), णागेण 23. पं. 7 (णाणेण प्र.), पावेहि कम्मेहि 4.पं 3 (पावेहि कम्मेहि प्र.) साधूहि 33.8 (साधृहि प्र.), कूडेसु 26.9 (कूडेसुं प्र.) अचू. श्री अगस्त्यसिंहगणि विरचित दशकालिक को चूर्णि अचूपा. भो. अगस्त्यसिंहगणि विरचित दशवकालिक सूत्र की चूर्णिका पाठ भेद ७. दशवकालिक संत्र का वृद्धविवरणम् आ. श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी (रतलाम) द्वारा प्रकाशित वृद्ध विवरण Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७. परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी उचराध्ययन (ii) अत्थजुत्ताई 1.3 (अट्ठजुत्ताणि सं २, पु, ला १, २), पावाई कम्माइ' 12.40 (पावाणि कम्माणि ह.), भीमाणि 19.47. (भीमाइ सं १ ), कम्माणि महालयाणि 13.26 कमाई महालयाई सं २, पु, ला १, शा.) (ii) कुसग्गेण 9.44 (कुसग्गेणं पु. ला १, २, ह, पा, ने) कोहेणं 9.54 (कोहेण सं १), वद्धमाणेणं 23-12,23 (वद्धमाणेण सं १) (iii) अणेगाणं 23-35 (अणेगाण सं २, ह, शा, पा, ने) (iv) अगारेसु 1.26 (अगारेसु पु. ला १, २, पा.) तसेसु 1990 (तसेसुं ला १, २) मात्रा-नियमन के लिए अनुस्वार का आगम या लोप (अनुष्टुप् छन्द्र में) आवश्यक सूत्रकृतांग जेहि नारीण संजोगा 1 3 4.17 ऋषिभाषितानि भोयणं भिज्जएहि वा 45.52 ततो कम्माण संतती 2.5 विसपुप्फाण छड्डणं 9.17. आताकडाम कम्माणं 15.17;45.10, दवहीणाण लाघवो 22.5, मोही मोहीण मज्झम्मि 24.35, एयं बुद्धाण सासणं 38.4, लोए जीवाण दिज्जती 4517 उत्तराध्ययन नाणेण दंसणेणं च, चरित्तेण तवेण य 22.26, तत्थ चिंता समुप्पन्ना, गुणवंताण ताइणं 23 10, सारीरमाणसे दुक्खे, (च) टीका ग्रंथों के लिए संकेत चु चर्णि सी. शीलांकाचार्य की वृत्ति (छ) आगमो. आगमोदय संस्करण Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ के. आर. चन्द्र बज्झमाणाण पाणिणं 23.80, जोइसंगविऊ जे य धम्माण पारगा 25.7 वेयाणं च मुहं बूहि, बूहि जन्नाण जे मुहं 25.14 जं च धम्माण वा मुहं 25.11, तुम्भे धम्माण पारगा 25.36 दशवकालिक सूत्र विप्पमुक्काण ताईणं 3.1 सव्वजीवाण जाणई 4.37, वित्ती साहूण देसिया 51.123, पंचिंदियाण पाणाणं 7.21, तोरणाण गिहाण य 7.27 हस्तप्रतों में उपलब्ध इस प्रकार दोनों प्रकार के पाठ और प्राचीन विभक्ति-प्रत्ययों के प्रयोगों की दृष्टि से प्रत्ययों में अनुस्वार का आगम आनावश्यक आचारांग (गद्यांश) (i) तेणं 1, परवागरणेणं 2, पुढवीकम्म-समारंभेणं 12, 14. पमादेणं 33, अप्पाणेणं 62, इत्यादि । (ii) संजतेहिं, जतेहिं, अप्पमत्तेहिं 33, सत्थेहिं 44, 59, अण्णेहि 47, - 54, 61, 62, विरूवरूवेहि 52, 59, इत्यादि । सूत्रकृतांग (अनुष्टुप् छंद) . , (i) णाणाविहाई दुक्खाई 1.1 1.26, संकियाई असंकिणो 1.1.2.6 (ii) पुढे गिम्हाभितावेणं 1.3 1.5, संतत्ता केसलोएणं 13.1.13, णण्णत्थ अंतराएणं 1.9.29 . '(iii) जेहिं वा संवसे णरे 1.1.1.4, एतेहिं तिहिं टाणेहि 1.1.4 12, सव्वाहि अणुजुत्तीहि 1.3.3.17, एतेहि दोहि ठाणेहि 18.2 भूतेहि न विरुज्झेज्झा 1.15.4 (-हिं के अनेक प्रयोग इस प्रकार के मिलते हैं)। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी १०९ ऋषिभाषितानि (i) कुम्भो विव सअंगाई 16.2, सल्लाई गारवा तिण्णा 35.19 वहणाई बंधणाई 9 पं. 5 इत्यादि, सधामाई पिणद्धन्ति 26.3 (ii) तिविहेणं । पं. 4, 5, 6, अपहीगेंगे 15 पं. 10, पुरेमएणं 23 पं. 5, संजमेणं 23 पं. 6, वेरमणेंग' 31 पं. 16, कोहेण माणेणं लोभेणं 35, पं. 4, सयंकडेणं 2.3, जुज्जर कम्मुणा जेणं 24.25, ते वत्थु सव्वभावेणं 35.10, दोसेणं ण विलुप्पति 35.11 (iii) पावेहि कम्मेहिं 4 पं. 2, दवेहिं 16 पं. 2, कामेहिं 21 पं. 6, चउहि ठाणेहि 35 पं. 2, मिगा बञ्झन्ति पासेहि 21.2, अप्पकतेहि सल्लेहि 28.13, साहूहि संगमं कुज्जा 337, जे ण लुब्भति कामेहि 34.6, विज्जमन्तोपदेसेहि 41 11, बद्धो वा रज्जुपासेहि' 24.37, वत्ततेहिं जगं किच्च 45.47 (iv) सचदुक्खाण मुच्चति 1 पं. 2, जीवाण य पुग्गलाण 31 पं. 10 उत्तराध्ययन (i) गद्यांश तेणं, समणेण, महावीरेण' 29.1101, निव्वेएणं 29.1104, पडिक्कमणेण 29.1113, पच्चक्खाणेणं 29.1115 (ii) पद्यांश (अनुष्टुप् छंद) तवनारायणजुत्तेण 9.22, देसिओ वद्धमाणेण 23.12,23 (पाठा -देसिओ वद्धमाणेण' सं. 1), महाउदगवेगेणं 23 65, आलंबणेण कालेण 24.4, जरामरण वेगेण 23.68 ने मुणी 2 . रणवासेणं. 25.29 अझप्पझाणजोगेहि 19.9+ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के. आर. चन्द्र दशवकालिक सूत्र (पद्यांश) तं च होज्जा अकामेणं 51.11 (पाठा. अकामेण, अच्.) इमेणं उत्तरेण य 5 2.3, तम्हा सो पुठो पावणं 7.5 दुग्गओ वा पओएण' 9.2.19 (पतोदेण, अचू.) नावाहि तारिमाओ त्ति 7.38 बहु सुणेइ कण्णेहि ४.20 कण्णसोक्खेहि सद्देहि 8.26 गद्यांश थेरेहि' भगवंतेहि 9.4.1,2,3 हस्तप्रतों में उपलब्ध ये दोनों प्रकार के पाठ और प्राचीन विभक्ति-प्रयोगों की दृष्टि से अनुस्वार का लोप अनावश्यक उत्तराध्ययन (अनुष्टुप् छंद) उल्लंघण पलंघण, इंदियाण य जुंजणे 24.24 उभओ सीससंघाण', संजयाण तवस्सिणं 23 10 नक्खत्ताण मुहं बूहि, बूहि धम्माण वा मुहं 2:14 दशवकालिक मत्र (अनुष्टुप् छंद) निगंधाण महेसिण 3.10 चिठित्ताण व संजए 5.2.8 संजायाण अकप्पियं 5.2.15.17 अमुयाण जयो होउ 7.50 पाठान्तरों में उपयुक्त प्राचीन प्रयोग (अनुष्टुप् छन्द के पद्य :) सूत्रकृवांग __ असंकियाई संकंति 1.12.6 (पाठा. असंकियागि, खं १) Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अधमागधी १११ धूणाऽऽदाणाई लोगंसि 1.9.11 (पाठा. धुत्तादाणाणि सूत्रकृ. चू.) उत्तराध्ययन संजयाण तवस्सिणं 23.10 (पाठा. संजयाण, ला १, २, ह, शा, पा, ने.) इंदियाण य झुंजणे 24.24 (पाठा. इंदियाण, सं १) देसिओ बद्रमाणेण 23.12,23 (पाठा. बद्धमाणेण--सं १) दशर्वकालिकसूत्र तहा फलाइ' पक्काई 7.32 (पाठा. फलाणि पक्काणि -अचू.) पायखज्जाइ नो वए 7.32 (पाठा. पायखज्जाणि-अचू.) तं च होज्ज अकामेण 5.1.111 (पाठा. अकामेण -अच्.) दुग्गओ वा पओएणं 9.2.19 (पाठा. पतोदेण -अचू.) अनावश्यक अनुस्वार के आगम से छन्दोभंग सूत्रकृतांग (अनुष्टुप् छंद) ___णाणाविहाइ दुक्खाइ' 1.1.1.26, सत्थादाणाइ लोगंसि 1.9.10 ... सत्ता कामेहि माणवा 1.1.1.6, एतेहि तिहि ठाणेहि 1.1.412 एतेहि' दोहि ठाणेहि 1.8.2, ततो वेरेहि रज्जती 1.8.7, कम्मी कम्मेहि कच्चति 19.4, मेत्ति भूतेहि कंप्पते 1.15.3 ऋषिभाषितानि कम्ममूलाइ दुक्खाइ 9.1, सविदिएहि गुत्तेहि 26.6, मोहादिएहि हिसति, 41.8, दूतीसंपेसणेहि वा 41.11 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ . के. आर. चन्द्र . .. उत्तराध्ययन अप्पसत्थेहि दारेहि', सव्वओ पिहियासवो 19.94 दशवकालिक सूत्र बहुं अच्छीहि पेच्छइ 8.20 ... कण्णसोक्खेहि सद्देहि 8 26 प्राचीन रूपक साहित्य एवं शिलालेखों में जो प्राचीन विभक्तिप्रत्यय प्रयुक्त हुए हैं वे ही पालिसाहित्य में भी मिलते हैं। अर्धमागधी भाषा के भी अमुक ग्रन्थ प्राचीन हैं अतः उनमें भी प्राचीन प्रत्यय ही होने चाहिए परन्तु सर्वत्र ऐसा नहीं है चाहे वह रचना पद्यात्मक हो या गद्यात्मक । छन्द के लिए मात्राओं के नियमनार्थ जहाँ जहाँ पर अनुस्वार का आगम या लोप किया गया हो वह तो उपयुक्त लगता है परन्तु जहाँ पर दीर्घ या हस्व (गुरु या लघु) की कोई आवश्यकता नहीं हो वहाँ पर भी ऐसे प्रयोग आ गये हैं। पद्य में ही नहीं परन्तु गद्य में भी ऐसे प्रयोग घुस गये हैं। हस्तप्रतों में तो वैकल्पिक रूप से दोनों प्रकार के प्रयोग मिलते हैं इससे यह प्रमाणित होता है कि मूलतः प्राचीन प्रत्यय ही थे परन्तु कालान्तर से उत्तरकालीन प्रत्ययों का (अनुस्वार सहित या रहित) प्रचलन सामान्य हो गया । जब पद्य' में -आणि, –एण, - हि, -णं और -सु के स्थान पर मात्राओं के नियमन के लिए -आई, -एण, -हि. -ण और -सु का प्रयोग होने लगा तब उत्तरवर्ती काल में ये वैकल्पिक प्रत्यय भी प्रचलित हो गये। दूसरा कारण यह भी है कि लोगों . 1. देखिए :- Pali Language and Literature by Geiger, para No. 70, 81, 82, 85, etc. Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी ११३ के मुख से शब्द का अंतिम अक्षर नाक से उच्चरित होने लगा अतः उनमें अनुस्वार2 जुड़ गया और कभी कभी शिथिल उच्चारण से मूल अनुस्वार का लोप हो गया। इन दो कारणों से अनुस्वारसहित और अनुस्वार-रहित दोनों ही प्रकार के प्रत्यय प्रचलन में आगये और तब फिर व्याकरणकारों के लिए वे दोनों ही प्रत्यय भाषा के अनिवार्य अंग बन गये। एक बार अनुस्वार-रहित प्रत्यय ने अनुस्वार-युक्त होकर प्रमुख स्थान पा लिया और फिर मात्राओं के नियमन का प्रश्न उठा तब उन्हें अनुनासिक (चन्द्र बिन्दु-युक्त) कर दिया गया, अर्थात् –आणि= आइं,आई, एण-एणं, एण, हि =हिं-- हि,-f= ण ण और -सु-सु→ सु । यही इन प्रत्ययों का ऐतिहासिक विकास है । इस सारे अध्ययन का सार यही है कि अर्धमागधी की प्राचीन कृतियों में जहाँ पर मात्राओं के नियमन का प्रश्न उपस्थित नहीं होता है वहाँ पर प्राचीन विभक्ति-प्रत्यय ही रहे यही उचित माना जाएगा । 2. वसुदेवहिंडी. प्र. ख. प्रथम अंश में उपलब्ध अनुस्वारयुक्त प्रयोग :---- आज्ञार्थ द्वि. पु. ए. व के प्रयोग -- पयहि, g 3.27, नित्यारेहि, पृ. 16.5 सूत्रकृतांग का प्रयोग --- पेहाहिं (पेहाहि प्रेक्षस्व-शी.) 1.4 2.43; .... पहराहि 1.4 2.9 (पाठा. - कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन Let right deeds be thy motive, not the fruit which comes from them, Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - All the different Religions are so many Paths that lead Mankind to the one Universal God. Swamy Ramdas - आ गे __ अनु पूरक एवं परिशिष्ट देउ ण देउले णवि सिलए णवि लिप्पइ गवि चित्ति । अखउ णिरंजणु णाणमउ सिउ संठिउ समचित्ति ॥ परमात्मप्रकाश 1.125 आत्मतत्त्व न देवालथ में, न शिला में, न लेप्य में और न चित्र में है। वह अक्षय, निरंजन, ज्ञानमय, शिव, समचित्त में संस्थित है । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ प्राकृत भाषाओं में मध्यवर्ती व्यंजन 'ळ' वेदों की भाषा में मध्यवर्ती ळकार के प्रयोग मिलते हैं । पालि भाषा में भी यह परम्परा चालू रही । अशोक के पूर्वी भारत (और उत्तर) के शिलालेखों में ळकार का प्रयोग मिलता है' (एळक, दुवाळस और पंनळस = एडक, द्वादश, पञ्चदश) । डॉ. मेहेण्डले (पृ० 272,460 ) के अनुसार ळकार का प्रयोग अशोक के काल में पूर्वी भारत (और उत्तर भारत) में, ई० स० प्रथम शताब्दी में पश्चिम में और ई० स० दूसरी शताब्दी में दक्षिण में मिलता है। उनके अनुसार ळकार का प्रयोग पूर्व से (और उत्तर से) अन्य प्रदेशों में फैला है । हेमचन्द्राचार्य ने (8.4.308) पैशाची भाषा के लिए लकार के बदले में ळकार का नियम दिया है। परन्तु अन्य प्राकृत भाषाओं के लिए (चूलिका पैशाची के सिवाय) ळकार के प्रयोग का उल्लेख नहीं किया है। पालि भाषा और अशोक के पूर्वी भारत के शिलालेखों में ळकार का प्रयोग मिलते हुए भी अर्धमागधी आगमों के आधुनिक संस्करणों में ळकार का अभाव है । हेमचन्द्राचार्य के प्राकृत व्याकरण में उद्धत (8.1.7.) एक प्राकृत पद्य में 'कळम' कलभ शब्द में 'ळ' मिलता है, इससे अनुमान 1. देखो : Asoka text & Glossary, Part II, Glossary, A.C. Woolner, Oxford University, Calcutta, 1924 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के. आर. चन्द्र की रूपक और कथा लगाया जा सकता है कि प्राकृत भाषाओं में भी ळकार का प्रचलन था लेकिन उत्तरवर्ती काल में उसका स्थान 'ल' और 'ड' ने ले लिया' । पिशल महोदय (240) के अनुसार तो सभी प्राकृतों में ळकार का प्रयोग (हस्तप्रतों में) मिलता है और उत्तरभारत हस्तप्रतों में उसके स्थान पर ल ( और ड भी ) मिलता है । उन्होंने अपने प्राकृत व्याकरण में सभी प्राकृतों ( काव्य, साहित्य) में से मध्यवर्ती ळकार - युक्त शब्दों के इतना ही नहीं परन्तु अर्धमागधी आगम साहित्य से) में से भी अनेक ळकार वाले शब्द उद्धृत स्पष्ट है कि अर्धमागधी भाषा में ळकार का से ही था ( क्योंकि वह पूर्वी भारत की भाषा थी) परन्तु उत्तरवर्ती काल में इस व्यंजन के बदले में लकार का प्रयोग (कुछ शब्दों में उदाहरण दिये हैं । (हस्तप्रतों के आधार किये हैं । इससे प्रयोग प्राचीन काल ११६ 2. हेमचन्द्राचार्य ने पैशाची प्राकृत में लकार के बदले ळकार का प्रयोग समझाया है परंतु वास्तविक रूप में देखा जाय तो यह 'ल' का 'ळ' में परिवर्तन नहीं है परंतु संस्कृत भाषा की तुलना में समझाया जाने के कारण ऐसा कहना पड़ा | अन्य प्रकार से कहा जाय तो पैशाची के ळकार के बदले में संस्कृत में लकार मिलता है क्योंकि ळकार तो वैदिक परंपरा से चला आया है लेकिन शिष्ट संस्कृत ने उसे नहीं अपनाया | हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी है और हिन्दीभाषी विद्वान् मराठी और गुजराती भाषा को समझाते समय स्वभावतः ऐसा कहेंगे कि लकार का मराठी में ळकार हो गया और गुजराती में कार हो गया । वास्तविकता ऐसी नही है । यह तो मात्र विभिन्न भाषाओं को समझाने के लिए किसी एक भाषा को आधार बनाकर अमुक नियम बनाया जाता है । इस दृष्टि से शिष्ट संस्कृत में से प्राकृत भाषा का उद्भव हुआ ऐसा कहना भी उपयुक्त नहीं लगता क्योंकि वेदों की भाषा में ळकार का प्रयोग था और वही प्रयोग पैशाची ( और अन्य प्राकृतों) में परंपरा से चला आया । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी डकार ) होने लगा । लिपि की दृष्टि से ळकार और लकार के लेखन में बहुत कम अन्तर है, इस कारण से भी ळकार का लकार में परिवर्तन हो गया हो ऐसा कहना भी अनुपयुक्त नहीं होगा । नीचे अर्धमागधी और अन्य प्राकृत रचनाओं में प्रयुक्त ळकार वाले प्रयोग दिये जा रहे हैं जो पिशल महोदय ने अपने प्राकृत - व्याकरण में उद्धृत किये हैं । (i) अर्धमागधी आगम ग्रंथ [पिशल के प्राकृत [म. जै. वि. के संस्करणों [ सूत्र नं.] व्याकरण के अनुसार ] के अनुसार ] (अ) अर्धमागधी भाषा के चार प्राचीन ग्रन्थ : १. आचारांग आवीळए आविळियाण उपळवेज्ज किळ्ळा खेळ्ळावण गरुळ गुळ तळाग दाळिम निप्पीळए पवीकर लेकुणा लेळु सि आवीलए आवीलियाण उप्पीला वेज्जा किड्डा खेल्लावण गरुल गुल तलाग दाडिम णिप्पीलए पवीलए लेलुणा लेउ सि 143 373 474 64 741 ११७ 757,758 350 505 373,379 143 143 302,342 577 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ के. आर. चन्द्र 2. सूत्रकृतांग गरुल छलायतण परिपीलेज्ज 372 539 छळाययण परिपीळेज्ज 234 उत्तराध्ययन एळय कीळए एलय कीलए कलति तळाग 185 607,770 566 1181 637 378,384 824,1260,1273 624,625,658 1261,1274,1287 1260,3273,1286 पीला कीळन्ति तलाग ताळण तालणा ताळयंति तालयति पीळा पीळिय पीलिय पीळेइ पीलेइ संपीळा संपीला 4. दशवकालिकसूत्र पीळेइ पीलेइ (ब) अन्य अर्धमागधी ग्रन्थ 5. स्थानांग 7. व्याख्या-प्रज्ञप्ति गरुळ गरुळ छळंस छळसीइ समवायांग तळाव कीळिय ताळेति छळसीइ 423 पीळण सोळसण्हं दाळिम Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी 8. ज्ञाताधर्मकथा किळ्ळा ताळिय ताळेइ ताह सविळिय 9. उपासकदशा आमेळय ताळेज्जा पीळण 10. प्रश्नव्याकरण गरुळ तळाग ताळण ताळिज्जमाण पीळण पीळा 13. राजप्रश्नीयसूत्र आमेळग कीळन्ति कीळावण 14. जीवाभिगमसूत्र गरुळ 11. विपाकसूत्र ओवीळमाण ताळेमाण 12. ओपपातिकसूत्र गवेळ्ग तळाय एळय ताळण कीळण कीळावण दाळिम निगळ पीळियग निगळ गरुळ सोळस गरुळ गरुळ 15. प्रज्ञापनासूत्र i6. निरयावलियाओ 17. अनुयोगद्वारसूत्र एळय आमेळिय वेळनय तळाग दाळिम (ii) अन्य प्राकृत भाषाएँ 1. मागधी (रूपक साहित्य) : कीळिदु, कीळिश, गुळोदण, ताळिअ, णिअळ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० 2. शौरसेनी (रूपक साहित्य) : कीळ्णअ, कीळमाण, कोळसि, कीळम्ह, कोळिद, कीळिस्सं, कीळिस्ससि, कीळेम्ह, खेळण, खेळदि, खेळिदु, णिगळ्वदी 3. आवन्ती ( रूपक साहित्य) : कीळइ, कीळंती, कीळिदु 4. महाराष्ट्री (काव्य साहित्य) : आमेळिय, कीळेइ, णिअळ, णिअळाविअ, णिअळिअ, वळआणल, वळआमुह, वळवामुह के. आर. चन्द्र 5. जैन महाराष्ट्री ( कथा साहित्य) : कीळइ, कीळंत, कीळंति, कीळिऊण, खेळळावेऊण, नियळिय, वळयामुह, सोळस (iii) कतिपय अर्धमागधी शब्दों की संस्कृत और पालि के शब्दों के साथ तुलना (पिशल के अनुसार ) ( जैनागमों के अनुसार) (संस्कृत) आवीळियाण आवीलियाण (पीडय्) उप्पीळवेज्ज उप्पीला वेज्जा एलय कीलए कीलति खेल्लावण एळय कीळए कीळन्ति खेळळावण मरुळ गुळ गरुल गुल 59 एडक ( क्रीड ) 99 खेलनक गरुड गुड (पालि) (पीळ) " एळक (कीळ) 39 X गरुळ गुळ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्थ मागधी छळाययण तळाग ताळण ताळयंति निगळ निप्पीळ पवीळए पीळण पीळा पीठिय पीळे इ सोळस (iv) हेमचन्द्राचार्य के छलायतण तलाग तालणा तालयंति निगड निप्पील पवीलए पीलण पीला पीलिय (पिशल के अनुसार, परिच्छेद 240 ) कीळइ गरुळ गुळ तळाय दाळिम (दाडिम) नळ (नड) नाळी (नाडी) पीळिय वळया मुह षडायतन तडाग ताडय् " निगड निष्पीड प्रपीडकः पीडन पीडा पीडित पीडयति षोडस पीलेइ सोलस प्राकृत व्याकरण के शब्द (पी. एल. वैद्य के संस्करण के अनुसार, 1928 A.D. ) कीलह गरुळ गुड, गुल तलाय दालिम (दाडिम) णल (गड) णाली (गाडी) पीडिअ वलयामुह तळाक (ताळ) ار निगळ निप्पीळ (पीळ) पीळण पीळा पीळित पीळेति सोळस (सूत्र नं.) 8.1.202 " " " १२१ "" " " " 91 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ के. आर. चन्द्र इस विश्लेषण से स्पष्ट है कि ळकार का प्रयोग अर्धमागधी. और सभी प्राकृतों में परंपरा से चलता आया । कालान्तर में लेखन पद्धति के कारण प्राकृतों में से उसका लोप हो गया हो परन्तु अभी भी मराठी, गुजराती, आदि भाषाओं में उसका प्रयोग विद्यमान है । अर्धमागधी जैसी भाषा में से उसका लोप कर दिया जाने से उसकी प्राचीनता का एक लक्षण लुप्त हो गया ऐसा कहना अनुपयुक्त नहीं होगा। - । अपमादो अमतं पदं, पमादो मच्चुनो पदं । अपमत्ता न मीयन्ति, ये पमत्ता यथा मता ॥ Vigilence is the Path to Immortality (Nibbana), Negligence is the Path to Death. Vigilent People do not die, Those who are negligent are like unto the Dead. - - - Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. अर्धमागधी के दो स्वरूप : प्राचीन और उत्तरवती यहाँ पर अर्धमागधी भाषा के प्राचीन और उत्तरवर्ती दो स्वरूपों के कुछ उदाहरण दिये जा रहे हैं। दोनों ही रूप एक साथ चलते हैं, कभी एक ही पद्य, वाक्य, परिच्छेद या अध्याय में तो कभी अलग अलग अध्यायों या ग्रन्थों में। इस प्रकार के परिवर्तनों (विभिन्न हस्तप्रतों के पाठान्तरों के अनुसार) में प्रमादवश पाठकों और लेहियों का जाने-अनजाने पीढी दर पीढी से हाथ रहा है। इस परिप्रेक्ष्य में प्राचीन ग्रन्थों के लिए यह उपयुक्त जान पडता है कि उत्तरवर्ती (शब्दों और प्रत्ययों) पाठों के स्थान पर प्राचीन पाठों को अग्रिमता दी जाय जिससे मूल प्राचीन अर्धमागधी का संरक्षण हो सकें। एक ही पद्य, वाक्य, सूत्र या परिच्छेद में विभिन्न पाठ (प्राचीन एवं उत्तरवर्ती) आचारांग भगिणी, भइणी 2.360, उद्दवेतव्वा, परितावेयव्वा 1 137, भगवतो, भगवओ 2.744, सदा, सता 1.33 , एगदा, एगया 1.64, 67; 2 462, वदंति, वयंति 2.520, पादं, पाय 2.594, पादाणि, पायाणि 2.592, 593, जधा, जहा 2.555, नो, णो 2.583, नामधेज्जा, णामधेज्जा 2 744, निगंथे, णिगंथे 2.784, मंसूणि, छिण्णपुव्वाइं 1.303 अण्णतराणि, तहप्पग्गाराई 2.558 सूत्रकृतांग __आइगरे, आदियरा 2.2.718, नवनीतं, णवणीयं 2.1.650, मडंबधातंसि, आसमघातसि, गामघायसि, णगरघायंसि 2.2 699, गब्भातो गब्भ, माराओ मारं 2.2.713, दिया वा रातो वा, दिया वा राओ वा 2.4.749, अन्ने वि आदिया।ति, सयमाइयंति 2.1.653, Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ के. आर. चन्द्र धम्मा वि पुरिसादीया धम्मा वि पुरिसाईया 2.1.660, मुसं वदावेति, सयमेव मुसं वयति 2 2.700, मदेण, मएण, जातिमदेण, रूवमएण 2.2 703, केणइ आदाणेणं, केणइ आयाणेणं 2.2.710, निगथे, णिग्गंथे 1.16.637 नवनीतं, णवणीयं 2 1.650, जहानामए, जहाणामए 2.1.050 ऋषिभाषितानि जं सुखेण दुहं, जं सुहेण सुह' 38.1, चयति संतति, भवसंतई 9.19, पावघाते हतं दुक्ख, पुप्फघाए जहाफलं 15.6, जीविताओ ववरोवेति, जीवियाओ ववरोवेज्जा, 34 पं. 26,29,30 जधा विरियं, जहा थाम, जहा बल 40 प. 10, तेतलिपुत्तेण अमच्चेणं 10 पं. 12 उत्तराध्ययन खेत्ताणि, खेत्ताई 12.13, निच्च भीएण तत्थेणं दुहिएणं वहिएण य 19.72, पासेण य महामुणी, देसिओ वद्धमाणेणं 23.12, आलंबणेण, कालेणं 24.4, नाणेण य मुणी होइ, तवेग होइ तावसो 25.30, कालेणं, मग्गेण 24.4, कुसचीरेण, रणवासेणं 25.29, उभओ सीससंघाणं संजयाण तवस्सिण 23.10, अन्नमन्न, अण्णमण्ण 13.5, सामन्नं, सामण्णं 19.35 दशवकालिकसूत्र विमणेण अकामेणं 51 111, उत्तरेण इमेणं 5.2.3, तेण उवाएणं 9.2.20, कारण, माणसे 11.18, आहारमाइणि, अभोज्जाई, 646, पउमगाणि 663, ठाणाई 6.7, पुरेकडाइं नवाई पावाई 6 67, विमाणाई 6 68, न 7.11.14, ण 7.13, नत्तुणिए 7.15, णत्तुणिय 7.18, पाणाणं पंचिदियाण. 7.21, खंभाणं तोरणाण 7.27 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी १२५ एक ही अध्ययन में अलग अलग पाठ (प्राचीन और उत्तरवर्ती) आचारांग भगिणी ति वा 2.5.1.561 भइणी ति वा 2 5.1.559 परितावेतव्वा उद्दवेतवा 1.4.2.136 ण परितावेयवा ण उद्दवेयव्वा 1.4.1 132 अहापरिणातं वसामो 2.7.1.621 अहापरिण्णायं वसामो 2.7.1.608 इदाणिमेव दलयाहि 2.5.1.561 इयाणिमेव दलयाहि 2.5.1.562 चम्मछेदणए 2.7.2.622 चम्मछेयणगं 2.7 1 607 मेधावी 1.1.54 मेहावी 1.1.17,30,33,47 तिविधेण 1.2.79 तिविहेण 12.82 कम्पति आधाकम्मिए 2.1.9.590 कप्पति आहाकम्मियं 2.1.9 392 जे तत्थ समाधिठाए 2.7.2.62! जे तत्थ समाहिठाए 2.7.1.608 निग्घोस 2.5.1.563-565 णिग्घोसं 25.1.5-6 णो तं नियमे 2.13,697,699, णो तं णियमे 2.13.690-96, 703, 706-710, 713-723, 698.70.705,711,712, 728 724,726 तिन्नि नामधेज्जा 2 15.713 तिणि णामधेज्जा 2.15.744 सूत्रकृतांग अहावकासेणं 2.3.732 तिउति 1.1.1.5 आहिता 1.1.1.15 णिस्सिता 1.1.2.57 अहावगासेणं 2.3 723 तिउद्दई 1.1.1.1 आहिया 1.1.1.7 निस्सिया !.1.1.14 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ के. आर. चन्द्र पुरिसजाते 2.1.641 पुरिसजाए 2.1.642 जे मातरं च 1.7.403 जे मायरं च 1.7.385 आतगुत्ते 1.11.572 आयगुत्ते 1.11.520 महता आदाणातो महया आदाणातो 2.1.685 2.1.683,684,686 विमुच्चती 1.1.19. मुच्चइ 1.1.1.2 एतेहिं 2.5.756-762 एएहिं 2.5.758, 760. सदा 1.2.2.116 सया 1.2.2113 मग्गविदू 2.1.643 मग्गविऊ 2.1.641 नथि 2.5.772-774 (सात बार), णस्थि (दस बार) 778-781 ___2.5.765-771,775-777 निस्सिया 1.1.1.14 णिस्सिता 1.1.2.57 उन्निक्खेतव्वं 12.1.643,640 उणिक्खेतव्वं 2.1.641,642 उन्निखेयव्वं । उन्निक्खेस्सामि ) 42.1.6 19.640 उन्निक्खिस्सामि खेतन्न, अखेत्तन्न, खेयन्न 2.1.640, 641,680 उण्णिक्खेयवं" उण्णिखेस्सामि ] उण्णिक्खिस्सामि 12.1.641,642, खेतण्ण, अखेत्तण्ण, खेयण्ण 2.1.640,642,634 ऋषिभाषितानि आदाणरक्खी 4.7 से कधमेत 25 साधूहि 33.8 पं. 31,37 आयाणरक्खी 4 पं. 1 तं कहमिति 25.34 | साहूहिं 33.7 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी उत्तराध्ययन उदगं 12.39 समितीओ 24.3,26 निक्कसिज्ज 1.7 जन्नवार्ड 12-13 खेत्ताणि 12.13 कम्माणि 13.26 बद्धमाणेण पासेण 23.29 आचारांग पंसु वा पक्खि वा सरीसवं वा जलचरं वा 2.3.3.510 सव्वे सत्ता परितावेतव्वा उद्दवेतव्वा 1.4.2.136 एस आतावादी 1.5.5.171 दि... सदा अप्पमत्तेहि एक ही ग्रंथ के अलग अलग उद्देशकों या अध्ययनों में अलग अलग पाठ (प्राचीन और उत्तरवर्ती) 1.1.4.33 सदा जते कालकंखी परिव्वए 1.3.2 116 (देखिए सूत्र नं. 164,165,173,187,195) उदरण 12.38 समिओ 24.19 णिक्कसिज्ज 1.4 जण्णाण 12.17 खेताई 12.15 कमाई 13.32 वद्धमाणेण पासेण 23.12 १२७ पसुं वा पक्खि वा सरीसवं वा जलयरं वा 2.4.2.539 सव्वे सत्ता ण परितावेयव्वा ण उदवेयन्वा 1.4.1.132 से आयावादी 1.1.1.3 मुणिणो या जागरंति 1.3.1 106 अप्पमत्ते सया परक्कमेज्जासि 1.4.1.133 ( देखिए सूत्र नं. 158,182, 286,293 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ के. आर. चन्द्र सूत्रकृतांग जे मातरं च पितरं च जे मातरं च पियरं च 1.7.403 1.4.1.247 आतगुत्ता जिइंदिया 1.8.431 ! विरते आयगुत्ते 1.7.400 जे य पडुप्पन्ना 2.2.707 जे य पडुप्पण्णा 2.1.680 ऋषिभाषितानि पंचवणीमकसुद्ध...भिक्खं 12.2 पंचवणीमगसुद्धं भिक्ख 41.15 गंभीरं सव्वतोभदं 45.30 गंभीरं सव्वओभई 933 पुप्फघाते हतं फलं 25.1 पुष्फघाए जहाफलं 15-6 कम्ममूलमनिव्वाणं 9.1 मोहमूलमणिव्वाणं 2.7 फलघाती न सिंचति 15.7 फलघाती ण सिंचती 2.6 गावो चरन्ती इह 41.16 गाओ चरन्ती इह 12.1 सिद्धे भवति णीरए(ये) 1.3;29.19 सिद्धो भवति णीरओ 9.21 मोहमूलाणि दुक्खाणि 2.7 कम्ममूलाई दुक्खाई 9.1 पावमूलाणि दुक्खाणि 15.1 प्राचीन माने जानेवाले विभिन्न ग्रन्थों में एक समान शब्दरूपों में पाठ-भेद (प्राचीन और उत्तरवर्ती) (i) उत्तरवर्ती ग्रन्थों में प्राचीन पाठ और प्राचीन ग्रन्थों में उत्तरवर्ती पाठ प्राचीन पाठ | उतरवर्ती पाठ एस धम्मे धुवे णितिए सासते एस धम्मे सुद्धे णितिए सासए समेच्च लोग खेतन्नेहिं पवेदिते समेच्च लोयं खेतण्णेहिं पवेदिते -सूत्रकृ. 2.1.680 --आचा. 1.4.4.132 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के वा इओ चुते पेच्चा भविस्सामि-आचा. 1.1.1.1 व सयं पाणातिवात करेज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं आचा. 2.15.777 सवे सत्ता ण हंतव्वा ण सवे सत्ता ण हंतव्वा ण अज्जावेतव्वा - आचा. 1.4.1.132 | अज्जावेयव्वा - सूत्रकृ. 2.1.679 परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी १२९ घम्मेणं इतो चुते पेटचा देवे सिया - सूत्रकृ. 2.1.682 पाणातिपातं तिविहं तिविहेणं नेत्र कुज्जा - इसिभा 1. पं, 4 (ii) मूल ग्रन्थ के पाठों और उसकी चूर्णि के पाठों में अन्तर मूल ग्रन्थ में उत्तरवर्ती और उसकी चूर्णि में प्राचीन पाठ विदेहदिण्णा, आचा. 2.15.744 | विदेहदिन्ना - आचा. पृ. 264 पर चूर्णिपाठ समाहीय, सूत्रकृ. 1.10.478 2.694-696 सूत्रक्र. - हेउ (अनेक बार) आत हेउ जहानामए अण्ण समाधीय, सूत्रकृ. पृ. 85 पर चूर्णिपाठ सूत्रकृ, पृ. - हेतुं आयहेतुं जघानामए अन्नं 152 पर चूर्णिपाठ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. मूल अर्धमागधी भाषा के यथा स्थापन में विशेषावश्यकभाष्य की जेसलमेरीय ताडपत्र की प्रति भाषिक दृष्टि से उपलब्ध प्राचीन पाठों द्वारा एक दिशा- सूचन [ कालान्तर से ग्रंथ की प्राचीन भाषा का मूल स्वरूप बदल जाने का एक ज्वलंत उदाहरण ] ग्रन्थ हैं जिनकी में उत्तरवर्ती 1 अन्तिम वाचना पाँचवीं - छठीं वाचना का समय ई० .. जैन अर्धमागधी आगम ग्रन्थों में कुछ ऐसे रचना प्राचीन मानी जाती है, परन्तु उन ग्रन्थों भाषा के भी दर्शन होते हैं । आगमों की शताब्दी में की गयी जबकि उनकी प्रथम स० पूर्व चौथी शताब्दी माना जाता है । महावीर और बुद्ध समकालीन माने जाते हैं परन्तु पालि भाषा के प्राचीनतम त्रिपिटक -ग्रन्थों और अर्द्धमागधी के प्राचीनतम आगम ग्रन्थों की भाषा में बहुत अन्तर पाया जाता है, यहाँ तक कि सम्राट् अशोक के शिलालेखों में भाषा का जो स्वरूप प्राप्त होता है उससे भी काफी विकसित रूप अर्धमागधी आगम ग्रन्थों की भाषा में उपलब्ध हो रहा है । होना ऐसा चाहिए था कि कम से कम प्राचीनतम जैन आगम ग्रन्थों में सम्राट अशोक के पहले का तथा प्रथम जैन आगम - वाचना के काल का यानि चौथी शताब्दी ई० स० पूर्व का भाषा - स्वरूप मिले परन्तु ऐसा नहीं है । भाषा की इस अवस्था का कारण क्या हो सकता है ! आगमोद्धारक मुनि श्री पुण्यविजयजी ने कल्पसूत्र की प्रस्तावना में स्पष्ट कहा है कि समय की गति के साथ-साथ चालू भाषा के प्रभाव के कारण पूर्व आचार्यों, उपाध्यायों और लेहियों के हाथ उन ग्रन्थों में 1 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी जाने-अनजाने भाषा-सम्बन्धी परिवर्तन आ गये हैं जो उनके शिष्य अध्येताओं को अनुकूल एवं सरल रहे होंगे। आगमग्रन्थों के शब्दों में वर्णविकार की जो बहुलता आज विभिन्न हस्तप्रतों में देखने को मिलती है वह इसी प्रवृत्ति का नतीजा है । इन विषमताओं के कारण आगमों के विभिन्न संस्करणों में एक ही शब्द के अनेक रूप अपनाये गये हैं । श्री शुबिंग महोदय ने तो इस गुत्थी और उलझन से छुटकारा पाने के लिए और भाषा को एकरूपता देने के लिए विवश होकर मध्यवर्ती व्यंजनों का सर्वथा लोप ही कर दिया है चाहे चूर्णि अथवा ग्रन्थ की हस्तप्रतों में इस प्रकार के पाठ मिले या न भी मिले । वर्ण-विकार की दृष्टि से ही नहीं परन्तु रूप-विन्यास की दृष्टि से भी कई ऐसे स्थल मिलते हैं जहाँ पर प्राचीन के बदले में उत्तरवर्ती रूप अपनाये गये हैं। शुबिंग महोदय के सिवाय अन्य विद्वान् सम्पादकों के संस्करणों में भी समानता एवं एकरूपता नहीं है । किसी में मध्यवर्ती व्यंजनों का लोप अधिक है तो किसी में कम । श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई द्वारा प्रकाशित संस्करण में मध्यवर्ती व्यंजनों का लोप कम मात्रा में मिलता है परन्तु उस संस्करण में भी ऐसे अनेक स्थल हैं जहाँ पर मूल हस्तप्रतों, चूर्णि एव टीका के आधार से उत्तरवर्ती पाठों की जगह पर प्राचीन पाठ (शब्द-रूप) स्वीकार किये जा सकते हैं। सम्पादन की पद्धति-विषयक नियमों में भी परिवर्तन की आवश्यकता प्रतीत होती है, यथा--अनेक प्रतियों में जो पाठ उपलब्ध हो उसे लिया जाय या प्राचीनतम प्रत में पाठ उपलब्ध हो उसे लिया जाय वा चूर्णि का पाठ लिया जाय या टीकाकार का पाठ लिया जाय अथवा भाषिक दृष्टि से जो शब्द-रूप प्राचीन हो उसे अपनाया जाय ! Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के. आर. चन्द्र प्रो० श्री एल० आल्सडर्फ महोदय यदि छन्द की दृष्टि से किसी शब्द की मात्रा को घटा या बढ़ा सकते हैं, हस्व या दीर्घ र सकते हैं और उसमें वर्ण बढा या घटा सकते हैं तो इसी न्याय से भाषा की प्राचीनता को सुरक्षित रखने के लिये क्यों न प्राचीन शब्द-रूप ही स्वीकार किये जाने चाहिए । यदि किसी ग्रन्थ की प्राचीनता अन्य प्रमाणों से सुस्पष्ट हो तो फिर उसकी भाषा की प्राचीनता को यथास्थापना के लिए उपलब्ध सामग्री के सहारे प्राचीन शब्द-रूप ही स्वीकार किये जाने चाहिए । यह तो बिलकुल स्पष्ट है कि. आगम ग्रन्थों की भाषा में ध्वन्यात्मक दृष्टि से बहुत बड़ा परिवर्तन हुआ है । इसका प्रबल साक्ष्य चाहिए तो हम विशेषावश्यकभाष्य की हस्तप्रतों का अध्ययन करें जिससे एकदम स्पष्ट हो जाएगा कि किसी को इस विषय में तनिक भी शंका करने का अवसर ही नहीं रहेगा । १३२ पं० श्री दलसुखभाई मालवणिया द्वारा सम्पादित एवं ला० द०. भा० सं० वि० मन्दिर, अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित वि० आ० भा० के नवीन संस्करण की कुछ विशेषताएँ हैं । इसके सम्पादन में जिन हस्तप्रतों का उपयोग किया गया है उनमें से सबसे प्राचीन जेसलमेर की ताडपत्रीय हस्तप्रत (जे. ) हैं जिसका समय लगभग ई० सन् के दसवे शतक का पूर्वार्ध माना गया है । ( इसके अतिरिक्त 'त' संज्ञक प्रत भी ताडपत्रीय है । 'हे' और 'को' संज्ञक दो छपे हुए संस्करण हैं - एक मलधारी हेमचन्द्र का और दूसरा कोट्याचार्य की टीका सहित हैं ) । इन सबसे भी अधिक महत्त्वपूर्ण जो हस्तप्रत मिली वह है 'सं' संज्ञक जो स्वोपज्ञवृत्ति सहित है और उसका समय ई० सन् १४३४ है । स्वोपज्ञवृत्ति Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ ' परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी में वि० आ०भा० की हरेक गाथा का प्रथम शब्द मूल रूप में प्राकृत भाषा में दिया गया है। इससे इतना लाभ तो अवश्य है कि मूल रचनाकार ने प्राकृत शब्दों को किस स्वरूप में प्रस्तुत किया था उसे हम स्पष्ट रूप से जान सकते हैं । मूल ग्रन्थ के कर्ता आचार्य जिनभद्र का समय ई० सन् की छठी शताब्दी माना गया है (स्वर्गवास ई० सन् ५९३) और जेसलमेर की ताडपत्रीय हस्तप्रत जिस आदर्श प्रत पर से लिखी गयी थी उसका समय ई० सन् ६०९ है ऐसा श्री दलसुखभाई मालवणिया का मन्तव्य है । अतः वि० आ० भा० की जो प्राचीनतम प्रत मिली है वह रचनाकार से लगभग ३०० से ३५० वर्ष बाद की ही है, इसलिए रचनाकार की जो मूल भाषा थी उसमें दूरगामी परिवर्तन की सम्भावना कम ही रहती है । स्वोपज्ञवृत्ति में प्राप्त शब्दों के साथ तुलना करने पर यह स्पष्ट हो जाएगा । ग्रन्थ के 'हे' एवं 'को' संज्ञक प्रकाशित संस्करणों के शब्दों में जो ध्वनिगत परिवर्तन मिलता है वह मूल अर्धमागधी भाषा के यथास्थापन के लिए 'एक आदर्श एवं अति महत्त्वपूर्ण दिशा-संकेत करता है । वि.आ०भा० का ध्वनिगत विश्लेषण (गाथा नं. १ से १०० जिनमें सभी प्रतों के पाठान्तर दिये गये हैं ___ (क) ग्रन्थ की स्वोपज्ञ-वृत्ति में दिये गये हरेक गाथा के प्रारम्भिक शब्दों का भाषिक (ध्वनिगत) विश्लेषण : यथावत् कुल लोप मध्यवर्ती अल्पप्राण ९ १३% मध्यवर्ती महाप्राण ० ०% संयोग ९ १०% घोष-अघोष ९ १३% ६ ३५% १५ १८% ४९ ७४% ११ ६५% ६० ७२% Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ के. आर. चन्द्र (ख) 'जे' प्रत में प्रत्येक गाथा का वही प्रारंभिक शब्द ___ लोप घोष-अघोष यथावत् म० अल्पप्राण ७ १०% १२ १८% ४८ ७२% म० महाप्राण ० ०० ९ ५३% ८ ४७% संयोग ७ ८३% २१ २५% ५६ ६६३% इस विश्लेषण से स्पष्ट है कि स्वोपज्ञवृत्ति की तुलना में 'जे' प्रत की गाथाओं के प्रारम्भिक प्रथम शब्दों में ध्वनिगत परिवर्तन बहुत ही कम मात्रा में आगे बढा है और यह अन्तर लगभग ५३ है । परन्तु 'जे' प्रत की १ से १०० गाथाओं के सभी शब्दों का विश्लेषण करने पर उनमें यह लोप ११३% है और यथावत् स्थिति. ७०% है (आगे देखिए) जो स्वोपज्ञवृत्ति के साथ बहुत कम अन्तर रखता है। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (T) அ ग ज AN व योग १ से १०० गाथाओं के सभी शब्दों का विश्लेषण ३४ ३५ ० J m IT ० ० w m O १७ २० ut लोप ८४ ११३ the m w ० ३ ३ १३ १५ १८५ १८५ ६ २९ 5 अ ० 5 w 45 ३६ २२ २१ ० ० ० ६२ ६१ ३३ १ १ ५० घोष - अघोष ㄡ ० ० ० O ० ५० Ac ० ० 6 ० ० ४९ W O ० O जे O ४ २८ ० यथावत् ० १ १ o ० १८४ १८२ १३ ८ ० ३९ ४१ ९ त 8 २८ ० ne O २ २८ O ० ९ ३ १९८ ७८ ५९ ७९ ७६ ५८ ५६ ९६ ० १४७ १४७ १४७ १४७ १५६ ६८० m w १६ 紅 ३८ ४० ६ ३६ ३३७| ३३६ ३३७ १०६ ८० ७१ ७१ ४९० ४८७ २७३२७२ | ४ ८२ ० ० १३ १७/ योग ५० २८ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी १३५ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C to ५ 65 १ ० ४ ४ स्पर्श-लोप ० त १ no ० m ३ ० हे को O m hw घ फ भ योग ५ ७ ३९ ४० १ १ 0 ० ३० ५ 20 ४ ० ० •C ० ४ ० o ० ० घोष - अघोष ० त २८ २७ ० ० ० ० ० ho ० ० ० ० ० ० २८ २७ ० को ० ० ० ० 0 ० ० अल्पप्राण और महाप्राण दोनों का योग ८९, १२०, ३७५, ३७७ १४४, १०७, ७१, ७१ 65 ० O यथावत् त ० Co हे को ० O ० ० ३६ ३५ ३४ ३३ १ १ १ १ ३६ ३६ ३२ ३२ ७४ ७३ ६८ ६७ योग Vav ३० ३८ १ ३६ १०७ ५५४, ५६०, ३४१, ३३९ । ७८७ N no के आर. चन्द्र Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (च) विश्लेषण :---विभिन्न प्रतों और संस्करणों के अनुसार । जे । ८४, १२३% _५, ५% ११३, १६३% ३ (i) लोप अ० प्रा० म० प्रा० योग (ii) यथावत् अ० प्रा० म० प्रा० | १२०, १५% । परम्परागत प्राकृत व्याकरण को समीक्षा और अर्धमागधी ४९०, ७२% ७४, ७०% ५६४, ७०% | ३३६, ५०% ३९, ३६% ३७५, ४८% हे । २७३, ४०% ५८, ५३% ३४१, ४३% हे ७१, १०३% ३३७, ५०% ४०, ३६% ३७७, ४८% को २७२, ४०% ५७, ५३% ३३९, ४३ % को ७१, १०% ०, ०% ७१, ९% योग ४८७, ७० | ७३, ७०% | ५६०, ७१% . | त ८०, १२% २७, २५% | १०७, १४% (iii) घोष-अघोष अ० प्रा० म० प्रा० - योग । १०६, १६% २८, २६% १३४, १८३% ७१, ९% Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ के आर. चन्द्र उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि वि० आ० भा० में लगभग ११% हा लोप प्राप्त होता है और यथावत् स्थिति ७०% है । छठी शताब्दी की कृति में यह कैसे हो सकता है ? इस अवस्था के लिए ऐसा माना जाता है कि उस काल मे बढते हुए संस्कृत के प्रभाव के कारण प्राकृत रचनाओं में तत्सम शब्दों का प्रयोग अधिक मात्रा में होने लगा था । जो कुछ भी हो एक बात स्पष्ट है कि नामिक विभक्तियों और क्रिया-रूपों में 'त' का प्रयोग अधिक प्रमाण में मिलता है-क० भू. कृ. 'त', प० ए० व० 'तो', व० का०, तृ० पु०, ए० व० 'ति', और मध्यवर्ती 'त' के कुल १९८ प्रसंगों में से मात्र एक स्थल पर 'त' का 'द' ( दीसदि-५३) और लोप मात्र १३ स्थलों पर मिलता है जबकि 'त' की यथावत् स्थिति १८४ स्थलों पर उपलब्ध है। इस अवस्था का कारण यह हो सकता है कि रचयिता को भाषा का यही स्वरूप उस समय मान्य था । एक अन्य 'त' प्रत जो उपलब्ध है उसमें लोप १५५ मिलता है और यथावत् स्थिति तो ७०% ही है । इनके साथ जब 'हे' एवं 'को' संस्करणों की तुलना करते हैं तो उनमें लोप ४८% और यथावत् स्थिति ४३% रहती है । घोषीकरण का प्रमाण क्रमशः घटता जाता है, –'जे' में १८, 'त' में १४ तो 'हे' और 'को' में मात्र ९ प्रतिशत ही रह जाता है। इससे स्पष्ट साबित होता है कि ग्रन्थ के मूल प्राकृत शब्दों में काल की गति के साथ चालू भाषा के प्रभाव के कारण लेहियों और पाठकों के हाथ प्रमादवश ध्वन्यात्मक परिवर्तन बढता ही गया है । इस दृष्टि से वि० आ०भा० का यह विश्लेषण बहुत ही उपयोगी है । इसके आधार से हम विश्वास के साथ कह सकते हैं कि यदि कि०आ० भा० की भाषा में कुछ शताब्दियों के पश्चात् इतना परिवर्तन आ सकता है तो फिर आगमग्रन्थों की मूल अर्घमागधी में एक हजार और पन्द्रह सौ वर्षों के बाद Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अधमागधी कितना परिवर्तन आया होगा इसका अन्दाज सरलता से लगाया जा सकता है । भाषा सम्बन्धी इस परिवर्तन के दो कारण रहे हैं -एक तो समकालीन भाषा का परिवर्तित रूप और द्वितीय व्याकरणकारों द्वारा प्रस्तुत किये गये भाषा सम्बन्धी नियम । प्राकृत भाषा के वैयाकारणों ने यदि ऐतिहासिक विकास की दृष्टि से हरेक भाषा का स्वरूप निरूपित किया होता तो शायद यह परिस्थिति उपस्थित नहीं होती । प्राकृत के व्याकरणों में आर्ष अर्धमागधी के कुछ उदाहरण तो अवश्य दिये गये हैं परन्तु मध्यवर्ती व्यंजनों का लोप (कुछ व्यंजनों के घोषीकरण के सिवाय) सर्वव्यापी सभी प्राकृत भाषाओं पर लागू हो जाता हो ऐसा फलित होता है, जबकि प्राचीन प्राकृत भाषाओं -- मागधी, अर्धमागधी, शौरसेनी आदि में इस प्रकार का लोप होना ऐतिहासिक दृष्टि से उपयुक्त नहीं लगता है । बड़े पैमाने पर मध्यवर्ती व्यञ्जनों का लोप महाराष्ट्री प्राकृत में ही हुआ है और इस भाषा का काल ई० सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों का माना जाता है । अनेक प्राचीन शिलालेखों में उत्कीर्ण भाषा के स्वरूप पर विचार करें तब भी यही फलित. होता है । उदाहरण के तौर पर भ. महावीर के ८४ वर्ष बाद में बडली ( अजमेर, राज० ) में उपलब्ध शिलालेख में मध्यवर्ती व्यंजनों का लोप नहीं मिलता, नामिक विभक्ति-'ते' और 'ये' के, स्थान पर 'ए' नहीं है । अशोक के शिलालेखों में ध्वनि-विकार का प्रारम्भ हो जाता है । घोषीकरण, अघोषीकरण एवं लोप का कुल प्रमाण ५ से ६ प्रतिशत ही है । मौर्यकालीन अन्य शिलालेखों में भी यही स्थिति है । खारवेल के शिलालेख में घोषीकरण बढ गया है । आठ में से छः बार 'थ' का 'ध' मिलता है हालाँकि वर्ण-विकार तो ५ से ६ प्रतिशत ही मिलता है । विभिन्न प्राचीन उत्कीर्ण लेखों से पता चलता है कि मध्यवर्ती व्यंजनों के लोए की प्रवृत्ति का प्रचलन उत्तर-पश्चिम और पश्चिम Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१४० के. आर चन्द्र भारत में सबसे पहले हुआ था । इतना ही नहीं परन्तु मध्यवर्ती 'न' का 'ण' में परिवर्तन होना भी दक्षिण भारत की अन्य क्षेत्रों को देन है । उत्तर - पश्चिम भारत में प्राप्त ई० सन् प्रथम शताब्दी के तीन लेखों ( पंजतर, कलवान और तक्षशिला, डी.सी. सरकार संस्करण, नं०३२, ३३.३४) की भाषा के विश्लेषण से यह साबित होता है कि उन लेखों की भाषा में लोप ३० प्रतिशत, यथावत् स्थिति ५३ प्रतिशत और घोष - अघोष १७ प्रतिशत मिलता (कुल लोप २७, यथावत् ४७, घोष १३ और अघोष २=८९ प्रसंग ) है । इनमें प्रारम्भिक 'न' का 'ण' में परिवर्तन १०० प्रतिशत है और मध्यवर्ती 'न' का 'ण' ७५ प्रतिशत मिलता है । पश्चिम भारत में नासिक, कण्हेरी और जुनर के शिलालेखों में भी लोप एवं घोषीकरण की प्रवृत्ति अधिक मिलती है । 'न' का 'ण' में परिवर्तन भी अधिक मात्रा में • उपलब्ध हो रहा है । इस ध्वन्यात्मक परिवर्तन की दृष्टि से 'इसिमासियाई' की भाषा का विश्लेषणात्मक अध्ययन भी महत्त्वपूर्ण है । यह भी एक प्राचीन अर्धमागधीं आगम - कृति मानी जाती है । शुक्रिंग महोदय द्वारा संपादित संस्करण में अध्याय नं. १,२,३,५, ११, २९ और ३१ में मध्यवर्ती व्यञ्जनों का • लोप ११ प्रतिशत से ३० प्रतिशत के बीच हैं, यथावत् स्थिति ४५ से ८१ - प्रतिशत है । इन सातों अध्ययनों का औसत है - लोप २७३ प्रतिशत, यथावत् ६०३ प्रतिशत तथा घोष - अघोष १२ प्रतिशत | इसका संपादन मात्र दो प्रतों के आधार से किया गया है । पाठान्तरों की बहुलता नहीं हैं जो हमें अर्धमागधी आगम ग्रन्थों के विभिन्न संस्करणों और उनकी प्रतियों में मिलती है । 'इसिभासियाई' के अल्प प्रचलन के कारण इस ग्रन्थ की भाषा का पीढ़ी दर पीढी विभिन्न हाथों से कायाकल्प न हो सका । यदि इसकी भी अनेक प्रतियाँ विभिन्न कालों में बनती गयी होती तो इसकी भी वही दशा होती जो अन्य प्राचीन आगम ग्रन्थों की हुई हैं । एक और विशेषता ध्यान देने योग्य यह है कि इस संस्करण में Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अE मागधी १४१ शुविंग महोदय द्वारा मध्यवर्ती 'त' का आचारांग की तरह सर्वथा लोप नहीं किया गया है परन्तु अलग-अलग अध्ययनों में अलग-अलग प्रमाण में मिलता है। लोप और यथावत् स्थिति क्रमश: इस प्रकार उपलब्ध हो रही है - अध्याय १-३२।६८, २-०।१००, ३१५/८५, ५-२८।७२, ११-२७/७३, २९-४८।५२ एवं ३१ - २१।७९ । इस स्थिति के आधार से श्री शुबिंग महोदय द्वारा सम्पादित आचारांग में उपलब्ध मध्यवर्ती व्यंजनों का ५८ प्रतिशत लोप किस तरह स्वीकारा जा सकता है । उनके द्वारा प्रयुक्त ताडपत्रीय प्रत ( संवत् १३४८ ) में ही व०का०, तृ०पु०, ए० ० के प्रत्यय 'ति' का प्रयोग ५० प्रतिशत और उसी प्रकार 'इ' का प्रयोग ५० प्रतिशत ( प्रथम अध्ययन के विश्लेषण के अनुसार ) है । उन्होंने पाठान्तरों में 'ति' नहीं दिया है और, सर्वत्र 'इ' को ही अपनाया हैं । श्री महावीर जैन विद्यालय द्वारा प्रकाशित आचारांग में मध्यवर्ती व्यंजनों का लोप २४ प्रतिशत है परन्तु पाठान्तरों के आधार से ही ऐसे पाठ स्वीकार किये जाने योग्य हैं जिनमें मध्यवर्ती वर्णलोप नहीं है । इस सूक्ष्म अध्ययन से ऐसे निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि (अर्धमागधी जैसी प्राचीन भाषा के प्राचीन ग्रन्थों की भाषा भी प्राचीन ही होनी चाहिए | कालान्तर में हस्तप्रतों में जो विकार जाने-अनजाने प्रमादवश आगये हैं वे सब त्याज्य माने जाने चाहिए । मूल ग्रन्थ की हस्तप्रतों, चूर्णि - ग्रन्थ या टीका जो भी हो जिस किसी में भी यदि भाषिक दृष्टि से प्राचीन शब्द मिलते हो और अर्थ की संवादिता सुरक्षित रहती हो. तो उन्हीं पाठों को स्वीकार किया जाना चाहिये । अर्धमागधी के प्राचीन आगम-ग्रन्थों के सम्पादकों के लिए इस विश्लेषण से यह स्पष्ट हो रहा है कि किसी भी प्राचीन ग्रन्थ की विभिन्न कालों में जितनी अधिक प्रतिलिपियाँ उतरती गयीं उतने हि प्रमाण में उस ग्रन्थ की भाषा के मूल स्वरूप में परिवर्तन भी आता गया । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषावश्यकभाष्य की गाथा नं० १ से १०० के कतिपय प्रारंभिक शब्द - अज्ञात समय की प्रति ग्रन्थ--प्रकाशन (1966 AD; 1966 AD. 1936 AD. 1914 AD. लगभग दसवीं का वर्ष नया संस्करण) शती के पूर्वाध की प्रति गाथा नं० संस्कृत मूलपाठ स्वोपज्ञ टीका को० हे. जे० ४१. अतीतम् अतीत ___ अतीत अतीयं अतीत अतीत २३. अथवा अधवा अधवा अहवा अहवा अघवा - ५०. अथवा अधवा अधवा अहवा अहवा अधवा त० अतीत अधवा के. आर चन्द्र अघवा अथवा अधवा अधवा अहवा अहवा अघवा अधवा अथवा अघवा अघवा अहवा अहवा अधवा अधवा अधवा अहवा अहवा अधवा अधवा ७८. अथवा अधवा ६५. अनुमतम् __अणुमतं ५२. अभिधानम् अभिघाणं ५७. अभिधानम् अभिधाणं ८२. अवधीयते अवधीयते २९. आगमतः आगमतो अणुमतं अभिधाणं अभिवाणं अवधीयते अणुमयं __ अभिहाणं अभिहाणं अवहीयए आगमओ अणुमयं अभिहाणं अभिहाणं अवहीयए आगमओ अणुमतं अभिधाणं अभिधाणं अवधीयते आगमतो अणुमतं अभिधाणं अभिधाणं अवधीयते आगमतो आगमती Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -आदि ७३. . -आदि ७५. -आदि- २१. इह आदि -आइ- इध -आई -आइ- -आइ आइ- इह -आदि- इध -आदि --आतिइध -आइ इध ८० ५५. इह ७७. ऋजुसूत्री उज्जुसुता उज्जुसुता ५. कृत. कत कत २४. गालयति गालयति गालयति ३३. चूतः चतो चूतो ३६. चतादिभ्यः चूताईएहितो चता० परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी ज्ञान णाण णाण उज्जुसुया उजुसुया उज्जुसुता उज्जुसुता कय कय कत कत गालयइ गालयइ गालयति गालयति चूओ चओ चूतो चतो । ___ चूयाईए० चयाईए० चयातीए° चताईए° नाणनाणपाण णाणनाणं नाणं णाण णाण जाणय जाणय जाणग जाणग तओ तओ 'ततो ततो तिहा तिहा तिधा दवए दवए दवते दवते दुयए दुयए दूयति दुयए नमोक्कारो नमोक्कारो णमोक्कारो णमोकारो ३०. ज्ञानम् ज्ञायक ८१. ततः १९. त्रिधा २८. द्रवति २८. व्यते ...... नमस्कारः जाणग णाणं णाणं जाणग ततो तिधा। दवते . दवते दूयति दूयति णमोकारो णमोकारो ततो तिधा तिघा Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा० संस्कृत नये संस्करण स्वो०टी० नं० २३. निपातात् ९७. ( अभि) निबुध्यते ५८ (परि) निवृत ४७. भूत २२. मङग्यते ८६. मति ५७. यथा २०. यदि यदि ३०. १००. यदि ७२. ४९. ९८. १००. ४०. विवदन्ति श्रत A श्रत 4 श्रत सूत्रस्य ४३, हेतु: को० हे० का पाठ णिवातणातो णिवातणातो निवायणाओ निवायणाओ भूत मंगिज्जते मति णिवातणातो णिवातणातो अभिणिबुज्झति अभिणिबुज्झति अभिनिबुज्झइ अभिणिबुज्झइ अभिणिबुज्झति अभिणिबुज्झति परिणिव्वुत परिणिव्वुत परिनिव्वय परिणिब्वत परिनिब्बुय परिनिब्बुय ७ जघ जति जति जति विवदंति सुत सुत सुत सुतस्स हतू भूत मंगिज्जते मति जध जति जति जति विवदति सुत सुत सुत सुतस्स हतू भूय मंगिज्जए मइ जह जइ जइ जइ विवयंति सुय सुय सुय सुअस्स हेऊ भूय मंगिज्जए मइ जह जइ जइ जइ विवयति सुय सुय सुय सुअस्स जे० हेऊ भूत मंगिज्जते मति जघ जति जति जति विवदंति त० सुत सुत सुत सुतस्स हेतू भूत मं गिज्जते मति जघ जति जति जति विवदंति सुत सुत सुत सुतस्स हेतू १४८ के. आर. चन्द्र Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी थ, द, ध. मिलते हैं । ग्रन्थ के 'को' एवं 'हे' संस्करणों में मध्यवर्ती त, एवं क के बदले में क्रमशः य, ह, य, ह एवं य वर्ण स्पष्ट है कि मध्यवर्ती व्यञ्जनों का लोप अधिक मात्रा में पाया जाता है जैसा कि ऊपर पहले ही बतला दिया गया है । जब तक अन्य प्राचीन ताडपत्रीय प्रतियाँ नहीं मिली थीं तब तक इन संस्करणों को ही प्रमाणित माना जाता था और मध्यवर्ती व्यञ्जन - लोप वाले शब्द ही लेखक की भाषा हो ऐसा समझा जाता रहा परन्तु 'जे' प्रत मिलने से सारा तथ्य ही बदल गया । यह प्रत सबसे प्राचीन है और उसे अधिक प्रामाणिक माना जाता है जिसमें लेखक के ही शब्दों की अपनी वर्ण- व्यवस्था सुरक्षित है। इसमें मध्यवर्ती 'त' की यथावत् स्थिति होने के कारण किसी विद्वान को यह शंका हो कि इसमें भी 'त' श्रुति आ गयी है तो उसका निराकरण इस बात से होता है कि ग्रन्थकार ने जो स्वोपज्ञ वृत्ति लिखी है उसमें भी मध्यवर्ती 'त' की वही स्थिति हैं । अतः बाद में 'त' आ गया हो ऐसा कहना उचित नहीं लगता । 'जे' प्रत के शब्दों और स्वोपज्ञवृत्ति के शब्दों की वर्ण व्यवस्था में पर्याप्त समामता है यह ऊपर बतलाया जा चुका है । कोई यदि ऐसा कहे कि स्वोपज्ञ - वृत्ति की प्रत ई० स० १४३४ की हैं अतः उसमें भी 'त' श्रुति आ गयी होगी । इसके उत्तर में यह भी तो प्रश्न होता है कि तब फिर 'क' के लिए 'ग', 'थ' के के लिए 'घ' और 'द' के लिए 'द' का प्रयोग दोनों प्रतों में मिलता है उसका क्या उत्तर होगा । अतः 'त' श्रुति की शंका करना निराधार बन जाता है । लेखक को जो मान्य थी वैसी ही वर्ण-व्यवस्था उन्होंने मध्यवर्ती शब्द-रूपों में अपनायी है । 'को' एवं 'हे' संस्करणों में वर्ण-सम्बन्धी जो परिवर्तन पाया जाता है वह लेहियों और पाठकों द्वारा १४५ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ के. आर चन्द्र . : बाद में किया गया परिवर्तन है-लोप है-उत्तरकालीन व्याकरणकारों का प्रभाव है, चाल भाषा का प्रभाव है ऐसा असंदिग्ध रूप से प्रमाणित हो रहा है । मूल भाषा बदली गयी है यह तथ्य दपर्ण की तरह स्पष्ट हो रहा है । यह तो पाँचवीं-छठी शताब्दी में रचे गये एक ग्रन्थ की कहानी है तब फिर प्राचीन आगम-ग्रन्थों की अर्धमागधी भाषा के साथ १५०० वर्षों में कितना क्या कुछ नहीं हुआ होगा यह उपलब्ध हो रहे विभिन्न पाठान्तरों के द्वारा सरलता से जाना जा सकता है । उनके साथ भी ऐसा ही हुआ है और अभी तक के संस्करणों में मध्यवर्ती व्यञ्जनों के लोप को जो महत्व दिया है वह 'उपयुक्त नहीं है और भाषा की एकरूपता के नाम से (ध्वनिपरिवर्तन की दृष्टि से मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यञ्जनों का लोप और महाप्राण व्यजनों का 'ह' में परिवर्तन) एक कृत्रिम सिद्धांत खडा किया गया है इसलिए वह अनुपयुक्त बन जाता है । अतः अभी तक अर्धमागधी प्राचीन ग्रन्थों के सम्पादन में जो पद्धति अपनायी गयी है वह उचित है या उसे बदलने-सुधारने की आवश्यकता है इस विषय पर प्राकृत और अर्धमागधी के अनुभवी विद्वान और संपादक पुन: विचार करे यही निवेदन है । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की समीक्षा और अर्धमागधी अक्षरों की प्राचीन लेखन पद्धति और नकार में णकार के भ्रम की संभावना (अध्याय नं. ७ और ८ से सम्बन्धित नयी सामग्री ) दीर्घ काल के अनुभवी और विद्वान लिपिकार श्री लक्ष्मणभाई भोजक ( लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर, अहमदाबाद) ने ऐसा बतलाया है कि प्राचीन काल में दन्त्य नकार रोमन लिपि के उलटे टी के आकार में लिखा जाता था और णकार में इस उलटे टी के ऊपर सीधे टी की तरह रेखा खींची जाती थी | परन्तु चौथो शताब्दी यानि गुप्तकाल से सभी अक्षरों पर शिरोरेखा खींची जाने लगी । इस नयी पद्धति के कारण नकार में णकार का भ्रम होना प्रारम्भ हो गया होगा ऐसी संभावना अनुचित नहीं है । बोलचाल की भाषा में भी अमुक प्रमाण में नकार के बदले में णकार बोला जाने लगा और यह प्रवृत्ति उत्तरोत्तर बढती गयी जिसके प्रमाण शिलालेखों में मिलते हैं । यह महाराष्ट्री प्राकृत का काल था अतः इन दोनों कारणों से महाराष्ट्री प्राकृत के लिए नियम - बन गया कि नकार का णकार में परिवर्तन हो जाता है । परम्परागत प्राकृत व्याकरण I महाराष्ट्री प्राकृत का यह नियम पूर्वी भारत की अर्धमागधी जैसी प्राचीन भाषा के लिए कैसे उपयुक्त हो सकता है। पालि भाषा में नकार का णकार नहीं होता है । अशोक और खारवेल के शिलालेखों में भी यह प्रवृत्ति नहीं है ऐसी हालत में अर्धमागधी भाषा में तो नकार यथावत् ही रहना चाहिए । अर्धमागधी भाषा में नकार के बदले में णकार आया है वह अक्षरों की लेखन पद्धति और महाराष्ट्री प्राकृत के नियम का प्रभाव है क्योंकि अर्धमागधी का अपना स्वतंत्र व्याकरण ही नहीं था । १४७ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ के. आर. चन्द्र पूर्व प्रकाशित इस ग्रन्थ के अध्यायों के संदर्भ इस ग्रन्थ के जो अध्याय संशोधन लेखों के रूप में पहले ही प्रकाशित हो चुके हैं वे इस प्रकार हैं । किसी किंसी लेख के शीर्षक की अपेक्षा इस ग्रन्थ के अध्याय के शीर्षक में अल्पाधिक प्रमाण में परिवर्तन भी किया गया है । इस ग्रन्थका अध्याय प्रकाशित श्रमण, पा. वि. शोध संस्थान, वाराणसी जनवरी-मार्च 1991 तुलसी प्रज्ञा, जैन विश्व भारती, लाडनू. अक्टूबर-दिसम्बर, 1992 तुलसी प्रज्ञा, जैन विश्व भारती, लाडनू सितम्बर, 1920 तुलसी प्रज्ञा. जैन विश्व भारती, लाडनू मार्च, 1991 संबोधि, ला. द. भा. स. विद्या मन्दिर, अहमदाबाद, 1992 प्राकृत विद्या, प्राकृत विद्या अध्ययन प्रसार केन्द्र, उदयपुर, जुलाई-दिसम्बर, 1990 प्राकृत विद्या, प्राकृत विद्या अध्ययन प्रसार केन्द्र, उदयपुर, जुलाई-सितम्बर, 1989 प्राकृत विद्या, प्राकृत विद्या अध्ययन प्रसार केन्द्र, उदयपुर, अप्रेल-जून, 199) प्राकृत विद्या, प्राकृत विद्या अध्ययन प्रसार केन्द्र, उदयपुर, जनवरी-मार्च, 1991 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 11 15 परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अ मागधी उत्तराध्ययन सूत्र : संदर्भ ग्रन्थ आचाराङ्गचूर्णि : ऋषभदास केसरीमलजी, रतलाम 1941 महावीर जैन विद्यालय, बम्बई आचाराङ्ग सूत्र : इसिभासियाई ( ऋषिभाषितानि ) : शुचिंग, ला द. भा. संस्कृति विद्या उवएसमाला : कल्पसूत्र गाथासप्तशती : प्राकृत विद्या, प्राकृत विद्या अध्ययन प्रसार केन्द्र, उदयपुर, अप्रेल - सितम्बर, 1992 तुलसी प्रज्ञा, जैन विश्व भारती, लाडनूं, जुलाई-सितम्बर, 1991 जैन विद्याके आयाम, ग्रथांक 1, लाला हरजसराय स्मृति ग्रंथ, पा.वि. शोध संस्थान - बनारस, 1987 अहमदाबाद, 1952 स. आ. जोगळेकर, प्रसाद प्रकाशन, पुणे, 1956 पउमचरिथं : विमलसूरि : प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, अहमदाबाद पण्णवणासूत्र (प्रज्ञापनासूत्र ) : महावीर जैन विद्यालय, बम्बई संपा. ए. एन. उपाध्ये प्रबचनसार : प्राकृत प्रकाशः वररुचि: E B. Cowell, Calcutta, 1962 हेमचन्द्राचार्य, P. L. Vaidya 1928 प्राकृत व्याकरण : बृहत्कल्पसूत्र : आ. श्री. घासीलालजी संस्करण १४९ · मन्दिर, अहमदाबाद, 1974 (1) महावीर जैन विद्यालय, बम्बई ( 11 ) जे. शार्पेण्टियर, अजय बुक सर्विस, न्यु देहली, 1980 धर्मदासगणि मुनि पुण्यविजयजी, साराभाई मणिलाल नवाब, Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० के. आर चन्द्र विशेषावश्यक भाष्य : पं. दलसुखभाई मालवणिया, ला, द. भा. सं. विद्यामन्दिर, अहमदाबाद, 1966 ववहारसूत्र (व्यवहारस्त्र) : वसुदेवहिंडी, प्रथम खंड, 1930 और 1931 षट्खंडागम सूत्रकृताङ्ग : महावीर जैन विद्यालय, बम्बई सेतुबन्धम् : पं. शिवदत्त, निर्णय सागर प्रेस बम्बई, 1935 स्वप्नवासवदत्तम् : भासनाटकचक्रम् , सी. आर. देवधर संस्करण Asoka Text and Glossary, A C. Woolner, Oxford University, Calcutia, 1924 Comparative Grammar of the Prakrit Languages, R. Pischel, Motila! Ranarasidas, Varanasi, 1965 Historical Grammar of Insriptional Prakrits, M. A. Mehendale, Poona, 1948 Kleine Schriften, Ludwig Alsdorf Wiesbaden. 1974 Pali Literature and Language, W. Geiger, (B. Ghosh) 1968 The Prakrit Grammarians, L. Nitti Dolci. Motilal Banarasidas, Banaras. 1972 Select Inscriptions, Vol I, D. C. Sircar Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परागत पृष्ठ ११ ?? १३ १५ ३१ प्राकृत व्याकरण की समीक्षा आर अधमागधी पंक्ति १८ ७ २१ ११ १० १४ २० ३५ ३६ ४२ ४३ ६१ ७२ ७७ ७८ २ ८६ १८ ९७ १९ ४ २२ २३ ११२ १९ ११९ १० शुद्धि-पत्रक अशुद्ध स्वीकार्थ एसे हो आचराङ्ग [ टिप्पण नं. ४ में जोड़िये ] जिसका शीर्षक बदल गया है । आगे पृ. ४५ और की सम्पादम परमेष्ठि मल धली अवन्नवश्वले (8 4.285) और यह पु. नपुं. एण ओपपातिकसूत्र शुद्ध स्वीकार्य ऐसे ही आचाराङ्ग अध्याय नं. १५ निकाल दीजिए कि सम्पादन परमेष्ठी मेल - घौली १.५१* आवन्नवश्वले (8.4 285) और उपरोक्त यह नपुं. एणं औपपातिकसूत्र Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के. आर. चन्द्र 5 प्रा. ज. वि. वि. फंड के प्रकाशन 1 भारतीय भाषाओं के विकास और साहित्य की समृद्धि में श्रमणों का महत्वपूर्ण योगदान, के. आर. चन्द्र, 1979 रु 10-00 2 प्राकृत-हिन्दी कोश, के. आर. चन्द्र, 1987 रु. 120-00 (पाइयसद्दमहण्णवो की किंचित् परिवर्तित आवृत्ति) 3_English Translation of Kouhala's Lilavai-Kaha, Prof. S.T. Nimkar, 1988 Rs. 30-00 नम्मयासुंदरी कहा (श्री महेन्द्रसूरीकृत). हिन्दी अनुवाद सहित, के. आर. चन्द्र, 1989 रु. 40-00 आरामशोभा रासमाला (गुजराती), प्रो. जयंत कोठारी 1989 रु. 90-00 जैनागम स्वाध्याय, पं. दलसुखभाई मालवणिया (गुजराती) 1991 रु. 100-00 7 जैनधर्म चिंतन, पं. दलसुखमाई मालवणिया (गुजराती) 1991 ___ रु. 40-00 .8 जैन आगम साहित्य (Seminar on Jaina Agama) सम्पादक, के. आर. चन्द्र, 1992 रु. 100-00 9 प्राचीन अर्धमागधी की खोज में. के. आर. चन्द्र 1991-92 रु. 32-00 10 Restoration of the Original Language ot Ardhamagadhi Texts : K. R. Chandra, 1994 Rs. 60-00 11 परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी के. आर. चन्द्र (a ) 12 भाषिक दृष्टि से आचाराङ्ग के प्रथम अध्ययन का नमूने के रूप में सम्पादन चालू : के. आर. चन्द्र Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Directions of Rehabilitating Ardhamagadhi Dr. Chandra has advanced in the book enough evidence to show that the original language of the Svetambara Agamas has suffered numerous alterations under the impact of later influential literary Sauraseni especially literary Maharastri Prakrit. Some glimpses of a number of original features of Ardhamagadhi, we can get from a few earlier Canonical texts and from some preserved archaic variant readings. Chandra ends with a plea to accept those readings as genuine original features and revise the relevent text-portions of edited Agamic works on that basis. One of the weighty implication of Chandra's findings is quite evidently the fact that they explode the contentions of those cri. tics of the Ardhamagadhi Canon according to whom the whole of the latter is unauthentic and secondary, Chandra's present investigations supplement and corroborate what other scholars and himself have found from the linguistic, formal, stylistic, and content-based features that are shared by the Asokan and Pali on the one hand and Canonical Ardhamagadhi on the other. Dr. Chandra's work necessitates revising prevalent view about the original Ardhamagadhi and invites fresh efforts to determine its real linguistic character. Dr. H. C. Bhayani