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परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी
स्वयं सर्वाङ्गीण तो नहीं कही जा सकती क्योंकि अनेक ऐसे शब्द आधुनिक साहित्यिक भाषाओ और बोलचाल की भाषाओं में अभी भी पाये जाते हैं जिनका समावेश इस कोश में नहीं हो सका है । फिर भी नकार और णकार के प्रयोग के विषय में स्पष्टीकरण हो सके इस उद्देश्य से कुछ शब्द उस कोश में से ही प्रस्तुत किये गये हैं ।
इस तालिका से प्रतीत होता है कि नकार के बदले में णकार वाले या णकार के बदले में नकार वाले शब्द अधिकतर किसी एक क्षेत्र विशेष में प्राप्त होते हैं तो अमुक शब्द कभी कभी एक से 'अधिक क्षेत्रों में पाये जाते हैं । फिर भी इतना तो स्पष्ट है कि अभी भी भारत के पश्चिमी भाग में जैसे कि गुजराती, सिंधी, मराठी आदि में मध्यवर्ती नकार का णकार अधिक प्रमाण में मिलता है और भारत के पूर्वी भाग जैसे कि हिन्दी, मैथिली, बिहारी, अवधी, बंगाली, नेपाली आदि में णकार का नकार मिलता है । अशोक और उसके बाद के प्राचीन शिलालेखों में भी इसी प्रकार की प्रवृत्ति के - दर्शन दो अलग-अलग क्षेत्रों की विशिष्टताओं के रूप में होते हैं। इससे यह फलित होता है कि प्राचीन काल से आज तक नकार का णकार में परिवर्तन पश्चिमी और दक्षिणी भारत की विशेषता रही है । प्रचलित भाषाओं में शब्दों का आदान-प्रदान होता रहता है, अतः एक प्रदेश की विशेषता का प्रभाव दूसरे प्रदेश में भी पाया जा सकता है जैसे कि तालिका के उदाहरणों से स्पष्ट हो रहा है कि मध्यवर्ती नकार या णकार वाले शब्द दोनो क्षेत्रों में पाये जाते हैं ।
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