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________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी उपयोग किया गया है वह निरर्थक बन जाता है। व्याकरणकार क्या एक तरफ परंपरा का अनुसरण कर रहे हैं और दूसरी तरफ उसी में संशोधन कर रहे हैं क्या ? इन विधानों में स्पष्टता का अभाव दृष्टिगोचर हुए बिना नहीं रहता । ___ वररुचि के व्याकरण में भी यही दोष नजर आता है । उनके प्राकृतप्रकाश में पहले प्रायः लोप और पुनः प्रायः व होने का आदेश है । वृत्ति में फिर कहा गया है-जहां पर लोप नहीं हो वहां पर व बन जाता है कगचजतदपयवां प्रायो लोपः (२.२) पो वः (२.१५) वृत्तिः-प्रायोग्रहणाद्यत्र लोपो न भवति तत्रायं विधिः । त्रिविक्रम अपने प्राकृतशब्दानुशासनम् में हेमचन्द्र का ही शब्दशः अनुसरण करते हैं । (देखिए-सूत्र १.३.८,१.३.९ और १.३.५५ एवं अन्तिम सूत्र की वृत्ति) । मार्कण्डेय भी अपने प्राकृतसर्वस्व मे (सूत्र नं० २.२ और २.१४) ऐसा ही विधान करते हैं । उन्होंने हेमचंद्र और वररुचि की तरह काई समाधान नहीं किया है । इस दृष्टि से भरतनाटयशास्त्र का विधान कुछ अलग सा लगता है । उन्होंने अन्य मध्यवर्ती व्यंजनों के साथ में पकार का लोप नहीं रखा है परन्तु लोप के बदले में पकार के वकार में बदलने की बात अलग से उदाहरण देकर कही है । लेप के सूत्र में प का उल्लेख ही नहीं है वच्चन्ति कगतदयवा लोपमत्थं च से वहन्ति सरा (१७.७) फिर पकार के लिए अलग से सूचित किया है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001436
Book TitleParamparagat Prakrit Vyakarana ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad
Publication Year1995
Total Pages162
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size7 MB
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