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आर. चन्द्र
आपाणमावाणं भवति पकारेण वत्वयुक्तेन १७.१४)
व्याकरणकारों के इन परस्पर विरोधी विधानों एवं भरतमुनि के आदेश को ध्यान में लेते हुए क्या ऐसा नहीं हो सकता था कि प्रायः लोप का जो सूत्र है उसमें पकार का समावेश नहीं करके उसके लिए ऐसा विधान बनाते कि पकार का लोप या उसका वकार वैकल्पिक है । शिलालेखीय एवं साहित्यिक प्रमाणों के आधार पर ऐसा नियम बनाना भी उचित नहीं ठहरता है । मेहेण्डले द्वारा किये गये अध्ययन का सार यह है कि शिलालेखों में मध्यवर्ती पकार का अधिकतर वकार पाया जाता है (देखिए पृ० २७३ से २७५) । पिशल महोदय (१८६) के अनुसार भी मध्यवर्ती प्रकार का लोप कभी कभी ही होता है । साहित्यिक उदाहरण भी यह तथ्य स्पष्ट करते हैं । विविध ग्रंथों की भाषा का विश्लेषण यहाँ पर उदाहरण के लिए प्रस्तुत किया जा रहा है
(अ) साहित्य में मध्यवर्ती प का लोप या वकार
( ग्रन्थ का नाम )
यथावत् व लाप
(i) सेतुबन्धम्, आश्वास २
१
२५
३४ ३
(ii) गाथासप्तशती शतक ३ १ से ५० गाथा
(iii) स्वप्नवासवदत्तम् अंक १, २, ३
(iv) इसिमासियाई'
अध्याय २९, वर्द्धमान
अध्याय ३१, पार्श्व
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वकार %
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