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________________ WW . परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी १९ (५) उत्तराध्ययन. अ. १३ [शार्पेण्टियर एवं पुण्यविजयजी के संस्करणानुसार] (आल्सडर्फ के अनुसार नौ प्राचीन पद्यों का विश्लेषण) १ १३ . ९३ (vi) विशेषावश्यक भाष्य (१०१ से २०० गाथाएं) (vii) पज्जोसवणा (कल्पसूत्र २३२ से २६१ संपा. पुण्यवि. १२ (viii) बृहत् कल्पसूत्र, अ. १ (घासीलालजी) (ix) सूत्रकृ० इत्थीपरिन्ना (क) आल्सडर्फ संस्करण १ ३२ ० (ख) म० ज० विद्यालय २ २९ ० ९४ (x) पण्णवणासूत्र (सूत्र नं. १ - ७४, १३९ - १४७) (xi) षट्खण्डागम सू. १.१-८१ ३ १९ ३ ७६ (ब) व के लोप का स्थिति मध्यवर्ती वकार का प्रायः लोप होता है ऐसा नियम दिया गया है वह भी उचित नहीं लगता है । पिशल महोदय (१८६) के अनुसार कभी कभी ही लोप होता है । मेहेण्डले के अनुसार (पृ० २७४-२७५) शिलालेखों में मध्यवर्ती वकार का लोप क्वचित् ही होता है । साहित्य में व का लोप लोप यथावत् प्रतिशत यथावत् (i) स्वप्नवासवदत्तम् (अंक१,२,३) ० ४६ (ii) गाथासप्तशती (३.१-५०) १० १२ । -(iii) सेतुबन्धम् (सर्ग २.१ से ४६) १५ ३७ .. GG ० ६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001436
Book TitleParamparagat Prakrit Vyakarana ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad
Publication Year1995
Total Pages162
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size7 MB
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