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________________ के. आर. चंद्र स्वप्नवासवदत्तम् जैसी प्राचीन कृति में व का लोप नहीं मिलता है । परन्तु परवर्ती महाराष्ट्री प्राकृत कृतियों गाथासप्तशती और सेतुबन्ध में व का लोप मिल रहा है । क्या इसी कारण वररुचि कोव के लोप का सूत्र में उल्लेख करना पड़ा और परवर्ती सम्पादकों पर वररुचि का प्रभाव पड़ा नीचे दिये जा रहे अर्धमागधी और शौरसेनी के प्राचीन ग्रन्थों की भाषा का विश्लेषण भी यही साबित करता है कि उनमें वकार लोप नहीं मिल रहा है । का प्रायः लोप यथावत् प्रतिशत यथावत् (iv) इसिमासियाई (क) अ० २९ वर्धमान (ख) अ० ३१ पार्श्व (v) सूत्रकृ० इत्थीपरिन्ना (क) आल्सडर्फ (ख) जंबूविजयजी (vi) उत्तराध्ययन, अ. १३ ० ० Jain Education International ० (vii) पण्णत्रणा सूत्र (१ से ७४,१३९ से १४७) (viii) षट् खण्डागम अ० १.१ ८१ (ix) बृहत् कल्पसूत्र अ. १ (घासीला.) २ (x) विशेषाव. भाष्य १०१-२०० ८ (xi) पज्जोसवणासूत्र २३२-२६१ १४ ५० २७ २९ 60 १०० १००. For Private & Personal Use Only १०० १०० १०० ५३ ७५ २० ९१ ७५ ९१ ६८ ९१ साहित्य में उपलब्ध प्रयोगों से स्पष्ट हो रहा है कि मध्यवर्ती पकार का प्रायः लोप नहीं मिलता है । उसका मुख्यत: वकार ही होता है । जैन और जैनेतर दोनों ही साहित्य में कम से कम ७२ १००. ९४ www.jainelibrary.org
SR No.001436
Book TitleParamparagat Prakrit Vyakarana ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad
Publication Year1995
Total Pages162
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size7 MB
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