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३. प्राकृत मे मध्यवती प और व
प्राकृत व्याकरणकारों ने मध्यवर्ती पकार और वकार के सम्बन्ध में ध्वनि परिवर्तन के जो नियम दिये हैं वे शिलालेखों और साहित्य की भाषा में कहाँ तक औचित्य रखते हैं उसी का यहाँ अध्ययन किया जा रहा है । इस विश्लेषणात्मक अध्ययन से स्पष्ट होगा कि साहित्य और व्याकरण में कितना अन्तर है ।
मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजनों (टवर्ग के सिवाय) के प्रायः लोप के विषय में हेमचन्द्राचार्य का सूत्र इस प्रकार है :कगचजतदपयवां प्रायो लुक (८.१.१७७)
इस सूत्र से स्पष्ट है कि अन्य अल्पप्राण व्यंजनों की तरह पकार का भी प्रायः लोप होता है ।
इस सूत्र के पश्चात् अन्य स्थल पर पकार के विषय में जा सूत्र दिया गया है वह इस प्रकार है
पेो वः (८.१.२३१)
इस सूत्र की वृत्ति में कहा गया है कि पकार का प्रायः वकार होता है । सूत्र की वृत्ति इस प्रकार है
स्वरात्परस्यासंयुक्तस्यान दे : पस्य प्राय वा भवति । ये दोनों सूत्र क्या एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं ? इन दोनों का समाधान वृत्ति में इस प्रकार किया गया है
एतेन पकारस्य प्राप्तयोर्लोपवकारयेार्यस्मिन्कृते श्रुतिसुखमुत्पद्यते स तत्र कार्यः ।
अर्थात् श्रुतिसुखानुसार लाप या व किया जा सकता है । इसका अर्थ तो यह हुआ कि दोनों सूत्रों में जिस प्रायः शब्द का
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