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१४. अर्धमागधी के दो स्वरूप : प्राचीन और उत्तरवती
यहाँ पर अर्धमागधी भाषा के प्राचीन और उत्तरवर्ती दो स्वरूपों के कुछ उदाहरण दिये जा रहे हैं। दोनों ही रूप एक साथ चलते हैं, कभी एक ही पद्य, वाक्य, परिच्छेद या अध्याय में तो कभी अलग अलग अध्यायों या ग्रन्थों में। इस प्रकार के परिवर्तनों (विभिन्न हस्तप्रतों के पाठान्तरों के अनुसार) में प्रमादवश पाठकों और लेहियों का जाने-अनजाने पीढी दर पीढी से हाथ रहा है। इस परिप्रेक्ष्य में प्राचीन ग्रन्थों के लिए यह उपयुक्त जान पडता है कि उत्तरवर्ती (शब्दों और प्रत्ययों) पाठों के स्थान पर प्राचीन पाठों को अग्रिमता दी जाय जिससे मूल प्राचीन अर्धमागधी का संरक्षण हो सकें। एक ही पद्य, वाक्य, सूत्र या परिच्छेद में विभिन्न पाठ
(प्राचीन एवं उत्तरवर्ती) आचारांग
भगिणी, भइणी 2.360, उद्दवेतव्वा, परितावेयव्वा 1 137, भगवतो, भगवओ 2.744, सदा, सता 1.33 , एगदा, एगया 1.64, 67; 2 462, वदंति, वयंति 2.520, पादं, पाय 2.594, पादाणि, पायाणि 2.592, 593, जधा, जहा 2.555, नो, णो 2.583, नामधेज्जा, णामधेज्जा 2 744, निगंथे, णिगंथे 2.784, मंसूणि, छिण्णपुव्वाइं 1.303 अण्णतराणि, तहप्पग्गाराई 2.558 सूत्रकृतांग
__आइगरे, आदियरा 2.2.718, नवनीतं, णवणीयं 2.1.650, मडंबधातंसि, आसमघातसि, गामघायसि, णगरघायंसि 2.2 699, गब्भातो गब्भ, माराओ मारं 2.2.713, दिया वा रातो वा, दिया वा राओ वा 2.4.749, अन्ने वि आदिया।ति, सयमाइयंति 2.1.653,
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