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________________ ११ -स्सिं और -म्हि सप्तमी एकवचन के प्राचीन विभक्ति-प्रत्यय पिशल (४२८) महोदय ने उत्तराध्ययन–१५.२ (४५४) और प्रज्ञापना सूत्र (६३७) से किम् का (सप्तमी एकवचन का) 'कम्हि' रूप उद्धृत किया है जो किसी न किसी प्रकार अर्धमागधी आगम में बच गया है । यही विभक्ति-प्रत्यय व्यवहारसूत्र में भी मिलता है --इमम्हि (७.२२, २३) । कुन्दकुन्दाचार्य के प्रवचनसार में भी यही विभक्ति-प्रत्यय नामिक शब्दों में मिलता है -चरियम्हि १.७९, दवियम्हि २.६२, जिणमदम्हि ३.११, विकधम्हि, उवधिम्हि ३.१५, चेट्टम्हि ३.१९ । स्त्रीलिंग-शब्दों में भी यह मिलता है । उबएसमाला (धर्मदासगणि) में कम्हि, (गाथा नं. ७६) मिलता है । षटखंडागम (पुस्तक, १३, पृ २९७) में भी ऐसे प्रयोग हैंएक्कम्हि, कम्हि, एगजीवम्हि । . यही -म्हि विभक्ति पालि भाषा में नाम और सर्वनाम दोनों तरह के शब्दों में प्रयुक्त हुई है; परन्तु प्राकृत साहित्य में उसका इतना प्रचलन नहीं मिलता है जितना पालि साहित्य में । प्राकृत व्याकरणकार वररुचि और हेमचन्द्र दोनों ने सप्तमी एकवचन के लिए --'म्हि' प्रत्यय का उल्लेख नहीं किया, फिर भी प्राकृत भाषा में कहीं न कहीं पर --'म्हि' वाले रूप मिल रहे हैं, जो 1. पिशल (३६६ अ) महोदय की दृष्टि में प्रवचनसार के ये रूप गलत हैं किन्तु डॉ आ० ने• उपाध्ये ने इन्हें अपनाया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001436
Book TitleParamparagat Prakrit Vyakarana ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad
Publication Year1995
Total Pages162
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size7 MB
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