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परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी
5. = न्न और एण, द्वितीय शताब्दी ई. स. पूर्व में पूर्वी क्षेत्र में ।
6 = न्न, ई. स. पूर्व प्रथम शताब्दी में पश्चिम में । 7 = ण्ण, परन्तु तत्पश्चात् पश्चिम में ण्ण । 8. = न्न, प्रथम और द्वितीय शताब्दी में मध्यक्षेत्र में । 9. = पण, द्वितीय शताब्दी से दक्षिण में ।
अर्थात् ण = bण दक्षिण की प्रवृत्ति रही है और मध्यक्षेत्र की भी । वहाँ से पश्चिम में फैलती है । मूलतः र्ण = न्न पूर्वी क्षेत्र की प्रवृत्ति और बाद में वहाँ पर भी एण का प्रसार होता है ।
आ. श्री हेमचन्द्र के व्याकरण में जो उद्धरण हैं उनमें न्न और न्य गुच्छों के लिए प्रायः न्न मिलता है और ण्य तथा र्ण गुच्छों के लिए प्रायः पण मिलता है, मात्र अपवाद के रूप मे इसके लिए न्न मिलता है । शिलालेखों के अनुसार पूर्वी क्षेत्र मे प्रारंभ से ही इन सभी गुच्छों (न्न, न्य, ण्य, ण) के लिए प्रायः न्न ही मिलता है । दक्षिण और उत्तर-पश्चिम में इनके लिए ण्ण की भी परम्परा थी जो उत्तरवर्ती काल में अन्य क्षेत्रों में फैल गई । अतः प्राचीन प्राकृत साहित्य, जिसकी रचना पूर्वी क्षेत्र मे हुई है अर्थात् अर्धमागधी भाषा में तो न्न की ही परम्परा रही होगी परन्तु उत्तरवर्ती काल में पश्चिम के प्रभाव में आकर न्न का परिवर्तन प्रण में हो गया है ऐसा स्पष्ट साबित होता है । अतः जिन जिन अर्धमागधी आगम के संस्करणों में ण्ण की बहुलता दिखती है वह मूल अर्धमागधी के प्रतिकूल लगती है, ऐसा कहना अनुचित नहीं होगा ।
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