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________________ के. आर. चन्द्र अवश्य हुआ । डॉ. मेहेण्डले ने न्य= ण्ण का कोई उल्लेख नही किया है । ८० इस विवरण से यहीं फलित होता है कि अशोक के काल से चौथी शताब्दी तक के शिलालेखों में न्य = ष्ण के प्रयोग अपवाद के रूप में ही मिल रहे होंगे जैसे मानसेरा में 'अन्य' शब्द के लिए (अण्ण) और 'मन्य' के लिए = मण (मण्ण) मिलते हैं । अण = (घ) र्ण = ण्ण या न्न : = आ. श्री हेमचन्द्र के व्याकरण में र्ण के स्थान पर प्राय: ण मिलता है । अपवाद के रूप में अपभ्रंश में कुछ प्रयोग र्ण न्न वाले मिलते हैं :- चुम्मी होसई ( चूर्णी भविष्यति 8.4.430), कन्नडइ (कर्णे 8.4.432) 1 र्ण के लिए ण या न्न की उपलब्धि अलग अलग " संस्करणो में क्रमश: इस प्रकार है । डॉ. पी. एल. वैद्य ५ : प. बेचरभाई 10: 1 डॉ. भायाणी 9 : 2 के अनुपात मे । आचारांग की चूर्णि में (वन्नेऊण पृ. 29. पंक्ति 2 ) भी र्ण = न्न के प्रयोग मिलते हैं । नम्मयासुंदरी में र्ण = न्न के कितने ही प्रयोग मिलते हैं । डॉ. मेहेण्डले के अनुसार (पृ. 281 ) शिलालेखों में र्ण की स्थिति इस प्रकार रही है : 1. 2. मध्यक्षेत्र में = = (ण), अशोक के काल में दक्षिण में । न (न्न), अशोक के काल में पूर्व, उत्तर और 3. = ण्ण, भी तीसरी शताब्दी ई. स. पूर्व मध्यक्षेत्र में । 4. = न्न, द्वितीय और प्रथम शताब्दी ई. स. पूर्व मध्यक्षेत्र में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001436
Book TitleParamparagat Prakrit Vyakarana ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad
Publication Year1995
Total Pages162
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size7 MB
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