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परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी
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इस प्रकार लगभग 85 प्रतिशत शब्द न्य = न्न के मिलते हैं । सार्वनामिक शब्द अन्यत् के जो जो विभक्ति रूप दिये गये हैं वे -सब न्य = न्न वाले ही मिलते हैं । उनकी शौरसेनी में भी अन्यत् के लिए अन्नं शब्द (8.4.277) ही मिलता है ।
. अपभ्रश में भी न्य = न्न के लगभम 19 प्रयोग मिलते हैं और "न्य = bण का मात्र एक ही प्रयोग मिलता है – अन्नु (6.4.337), सामन्नु (8.4.418), नीसावन्नु (8.4.341) अन्न (8.4.359, 370, 372, 383, 401) इत्यादि । वज्जालगं (एम. वी पटवर्धन संस्करण) में न्य = न्न अपनाया गया है । नम्मयासुदरी (सिंवी जैन सीरिज) में न्य = न्न अपनाया गया है। डॉ. मेहेण्डले के अनुसार (पृ. 196) शिलालेखों में न्य के परिवर्तन की स्थिति इस प्रकार रही है :
!. = ञ, म, अशोक के समय में पश्चिम और उत्तरपश्चिम में । 2. = न, न्न नि अशोक के समय में पूर्व, मध्य और उत्तरी
क्षेत्र में और दक्षिण में भी । 3. - ञ, आ उत्तरवर्ती शिलालेखों में पश्चिम में । 4. = न, न्न दूसरी शताब्दी में पश्चिम में । २. = न, न्न उत्तरवर्ती शिलालेखों में पूर्वी और मध्य क्षेत्र में । 6. = अ और न (अ, न्न) तीसरी शताब्दी तक दक्षिण में।
कहने का सार यह है कि न्य = न का पूर्व और उत्तर से मध्यक्षेत्र और पश्चिम में प्रसार होता है । "पूर्वी क्षेत्र में उसका तालव्यीकरण नहीं (अजा, ) हुआ और न ही मूर्धन्यीकरज ( = ण, ण्ण) हुआ । न्य का 'निय' (स्वरभक्ति से)
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